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नब्बे वर्ष के केंद्रीय बैंक का प्रदर्शन सराहनीय, RBI के बीते चार-पांच साल खासा उल्लेखनीय

जब RBI अच्छा प्रदर्शन करता है, जब वह सरकार समेत सभी अंशधारकों की सहमति से काम करता है, तो राजनीतिक सत्ता भी उसे उसका काम करने देना चाहती है। बता रहे हैं टी टी राम मोहन

Last Updated- April 15, 2024 | 9:18 PM IST
The performance of the central bank in the last 90 years is commendable, the last four-five years of RBI are quite remarkable नब्बे वर्ष के केंद्रीय बैंक का प्रदर्शन सराहनीय, RBI के बीते चार-पांच साल खासा उल्लेखनीय
Illustration: Binay Sinha

भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) 90 वर्ष की अवस्था में भी न केवल सुस्थिर बल्कि चपल और फुर्तीला नजर आ रहा है। ऐसे में उसे इस अवसर पर प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री से उचित ही सराहना मिली। आर्थिक उदारीकरण की पूरी प्रक्रिया के दौरान उसका प्रदर्शन शानदार रहा है। बीते चार-पांच वर्षों में उसका प्रदर्शन खासा उल्लेखनीय है क्योंकि इस दौरान उसके समक्ष कई तरह की चुनौतियां आईं।

2020 में कोविड-19 संकट हमारे सामने आया। उस समय बैंकिंग व्यवस्था पहले ही फंसे हुए कर्ज से जूझ रही थी। 2019-20 में कुल कर्ज में इसकी हिस्सेदारी 8.5 फीसदी हो गई थी। फरवरी 2022 में शुरू हुए यूक्रेन संघर्ष ने वैश्विक अर्थव्यवस्था को अनिश्चित बनाया है। दो दशकों में वैश्विक वृद्धि अपने निचले स्तर पर गिर गई।

इस तनावपूर्ण समय में रिजर्व बैंक ने सभी क्षेत्रों में विश्वसनीय ढंग से काम किया। इसमें मौद्रिक नीति, विदेशी मुद्रा प्रबंधन और वित्तीय स्थिरता जैसे क्षेत्र शामिल हैं। वित्तीय स्थिरता के प्रबंधन को सबसे बड़ी उपलब्धि माना जा सकता है। किसी ने नहीं सोचा होगा कि 2020 के महामारी संकट के बाद केवल साढ़े तीन साल में फंसा कर्ज 3.2 फीसदी पर आ जाना मामूली उपलब्धि नहीं है। समय के साथ वित्तीय स्थिरता में योगदान देने वाली कई नीतियां उभरीं। कुछ नीतियां महामारी से निपटने के क्रम में उबरीं। दोनों तरह की नीतियों पर नजर डालना उपयोगी है।

समय के साथ उभरी नीतियों में पहली है नियमन और निगरानी का एकीकृत तरीका। हाल के वर्षों में रिजर्व बैंक ने बैंकों, गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों यानी एनबीएफसी और शहरी सहकारी बैंकों (यूबीसी) के एकीकृत नियमन की दिशा में पहल की है। इससे नियामक को इन कारोबारों के परस्पर संबंध को समझने और कमजोरियों को तत्काल भांपने में मदद मिलती है। दूसरा, रिजर्व बैंक ने हल्के विनियमन से परहेज किया है। वह इस बात में यकीन नहीं करता है कि जोखिम प्रबंधन का काम पूरी तरह बैंकों के बोर्ड और प्रबंधन पर छोड़ा जा सकता है। उसने जरूरत पड़ने पर विस्तृत पहल भी की है।

उदाहरण के लिए बैंकों के लिए लार्ज एक्सपोजर फ्रेमवर्क। तीसरा, रिजर्व बैंक ने बैंक पूंजी के मामले में नियामकीय कर्व से आगे रहने का चयन किया। बेसल मानक जहां 8 फीसदी न्यूनतम पूंजी की बात कहते हैं, वहीं रिजर्व बैंक ने 9 फीसदी की जरूरत बतायी है। समझ यही है कि बैंकिंग में अधिक पूंजी का होना बेहतर है।

चौथा, रिजर्व बैंक ने एनबीएफसी का नियमन सख्त किया है। उसका मानना है बड़ी और महत्त्वपूर्ण एनबीएफसी को बैंकों में बदला जाना चाहिए और उन्हें सख्त नियमन के दायरे में लाया जाना चाहिए जो बैंकों पर लागू हैं।

पांचवां, रिजर्व बैंक अन्य केंद्रीय बैंकों के उलट लंबे समय से विविध संकेतकों वाले रुख का इस्तेमाल कर रहा है। वह मूल्य स्थिरता, आर्थिक वृद्धि, वित्तीय स्थिरता और वित्तीय समावेशन पर ध्यान देता है। ये संकेतक परस्पर गति देते हैं। सभी संकेतकों पर ध्यान केंद्रित करने से बेहतर नतीजे हासिल करने में मदद मिलती है।

छठा, बैंकों में निजी और विदेशी स्वामित्व को लेकर एक खाका है जहां किसी भारतीय में एक कंपनी या संस्था के स्वामित्व की सीमा बताई गई है। विदेशी बैंकों के लिए भी नीति है जहां अनुषंगी मार्ग से आने पर उनके साथ भारतीय बैंकों जैसा व्यवहार किया जाएगा। केंद्रीय बैंक ने महामारी के दौरान भी अनेक रचनात्मक प्रतिक्रियाएं दीं। इनमें से तीन का उल्लेख जरूरी है।

पहला कदम था कर्ज भुगतान पर छह महीने का स्थगन। विश्लेषकों का मानना था कि सभी इसका लाभ लेना चाहेंगे लेकिन केवल 40 फीसदी बकाया कर्ज के लिए यह सुविधा ली गई। जिन लोगों के पास नकदी की दिक्कत नहीं थी उन्होंने समय पर ऋण चुकाना सही समझा।

दूसरा, कॉर्पोरेट और पर्सनल लोन के पुनर्गठन की योजना पेश की गई। विश्लेषकों ने चेतावनी दी कि करीब पांच फीसदी बकाया कर्ज का पुनर्गठन करना होगा। उन्होंने कहा कि इसमें से आधा अनचुकता रह जाएगा और फंसे हुए कर्ज में इजाफा होगा। ऐसा कुछ नहीं हुआ। औसतन कुल कर्ज का केवल 1.5 फीसदी पुनर्गठित हुआ। महज 0.2 फीसदी कॉर्पोरेट ऋण का पुनर्गठन हुआ। ऐसा इसलिए हुआ कि पुनर्गठन के लिए सख्त मानक और निगरानी व्यवस्था तय की गई थी। इनके जरिये फर्जी मामलों को छांटा जाना था। जैसा कि हमने पहले भी कहा फंसे हुए कर्ज का स्तर बढ़ने के बजाय कम हुआ।

मई 2020 में सरकार ने रिजर्व बैंक के साथ चर्चा करके इमरजेंसी क्रेडिट लाइन गारंटी स्कीम (ईसीएलजीएस) प्रस्तुत की। आर्थिक मुश्किलों से जूझ रहे सूक्ष्म, लघु एवं मझोले उपक्रमों को पूरी गारंटी वाली इमरजेंसी क्रेडिट लाइन की मदद से तीन लाख करोड़ रुपये तक की अतिरिक्त फंडिंग प्रदान की गई। कुछ लोगों ने इस योजना को भी एक और लोन मेले की तरह देखा जो बैंक में फंसा हुआ कर्ज बढ़ाने वाली थी।

इस योजना के तहत दिए गए कुल कर्ज में 5 फीसदी फंसा कर्ज है। एमएसएमई में मार्च 2023 तक यह औसतन 6.8 फीसदी था। कई अर्थशास्त्री नियामकीय सहनशीलता को सही नहीं मानते। उन्हें लगता है कि इसके अंतर्गत समस्या को भविष्य के लिए टाल दिया जाता है। रिजर्व बैंक ने उन्हें गलत साबित किया। उसने यह दिखाया कि अगर नियामकीय सहनशीलता को सही ढंग से बनाया और क्रियान्वित किया जाए तो इससे सकारात्मक नतीजे हासिल हो सकते हैं।

बैंकिंग में बदलाव से अपेक्षित परिणाम निकले। सरकारी बैंकों के निजीकरण की बात जो बैंकिंग संकट के दौरान जोर पकड़ गई थी वह कमजोर पड़ गई। इन बैंकों की वित्तीय स्थिति में सुधार ही इसकी इकलौती वजह नहीं है। कोई सरकार नहीं चाहती कि उसे सरकारी बैंकों का इस प्रकार निजीकरण करना पड़े जिससे बैंकिंग की स्थिरता के लिए तैयार निजी और विदेशी स्वामित्व ढांचे के साथ समझौता करना पड़े।

आरबीआई गवर्नर शक्तिकांत दास के पद संभालने के पहले लगातार दो गवर्नरों की विवादास्पद विदाई हुई थी। उस समय भारतीय और विदेशी मीडिया में देश के केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता में कमी आने को लेकर कई तरह की बातें हो रही थीं। दास ने दिखाया कि रिजर्व बैंक जरूरी स्वायत्तता का इस्तेमाल कर सकता है और दुनिया भर में उच्च विश्वसनीयता हासिल कर सकता है। वह ऐसा बिना राजनीतिक प्राधिकार से भिड़े कर सकता है।

यहां एक अहम सबक है। स्वायत्तता कोई ऐसी चीज नहीं है जो केंद्रीय बैंक को आसानी से हासिल हो सके। जब केंद्रीय बैंक अच्छा प्रदर्शन करता है, सरकार सहित सभी अंशधारकों के हितों को ध्यान में रखता है तो राजनीतिक प्राधिकार उसे अपने तरीके से काम करने देता है और इस पर प्रसन्न होता है।

First Published - April 15, 2024 | 9:18 PM IST

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