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राष्ट्र की बात: मोदी का तीसरा कार्यकाल और तीन ‘सी’ का जाल

मोदी सरकार जनगणना की तैयारी कर रही है और हमारे लिए यह वक्त है तीन हकीकतों का परीक्षण करने का जो तीन ‘सी’ से बनी हैं- कास्ट (जाति), कोअलिशन (गठबंधन) और कॉन्स्टिट्यूशन (संविधान)

Last Updated- August 25, 2024 | 9:18 PM IST
Modi's third term and the trap of three 'C's' मोदी का तीसरा कार्यकाल और तीन ‘सी’ का जाल

सी से शुरू होने वाला एक शब्द सेंसस यानी जनगणना अचानक राष्ट्रीय सुर्खियों का विषय बन गया है, जबकि इसे एक आम विषय होना चाहिए था। जैसा कि हम जानते हैं यह समय भी हमारे राजनीतिक इतिहास का आम समय नहीं है। पिछले दशक में कई पुराने नियम नए सिरे से तैयार हुए, कुछ नियम दफन हुए और कई को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया।

उनमें से एक है हर दशक होने वाली जनगणना। यह खबर आई है कि नरेंद्र मोदी सरकार आखिरकार लंबे समय से टली आ रही जनगणना कराने वाली है जिसे 2021 में होना था। ऐसे में यह सही वक्त है जब हमें उन तीन बड़ी हकीकतों का सामना करना है जिनका प्रतिनिधित्व तीन ‘सी’ करते हैं यानी- कास्ट, सेंसर और कॉन्स्टिट्यूशन यानी जाति, जनगणना और संविधान। अगर यह सरकार मोदी 3.0 है तो हम इसे 3सी का जाल कह सकते हैं। इसके महत्त्व का पहला संकेत यह है कि आखिरकार जनगणना कराने की योजना बनी है।

एक दशक तक मोदी सरकार इन तीनों से मनचाहे ढंग से निपट रही थी। हिंदी प्रदेशों की जाति आधारित पार्टियों को काफी हद तक ध्वस्त कर दिया गया और नरेंद्र मोदी के उभार को पिछड़ी और छोटी जातियों के प्रति भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की प्रतिबद्धता के रूप में पेश किया गया।

भाजपा ने बड़ी संख्या में पिछड़े नेताओं को टिकट दिया, एक पिछड़े नेता को प्रधानमंत्री बनाया, एक दलित को राष्ट्रपति बनाया और उसके बाद एक आदिवासी को भी। कांग्रेस ने कभी देश के गैर कुलीन तबकों को इतना व्यापक और अधिकारसंपन्न प्रतिनिधित्व नहीं दिया, एक दशक में तो कतई नहीं। मोदी युग की भाजपा ने जाति और निचले वर्ग के मुद्दों को बहुत सावधानीपूर्वक समेट दिया था। वह मोदी युग अब समाप्त नजर आ रहा है।

जाति की वापसी को समझने के लिए सिविल सेवाओं में लैटरल एंट्री यानी सीधी भर्ती के मुद्दे पर दोहरी तेजी से वापसी को देखा जा सकता है। बीते पांच सालों में इसी तरीके से 63 अधिकारियों को नियुक्त किया गया और अगर कोई विरोध हुआ भी तो उसकी अनदेखी कर दी गई। इस बार विपक्षी नेताओं खासकर राहुल गांधी के कुछ ट्वीट के के बाद हड़बड़ाहट में इसे वापस ले लिया गया। बीती गर्मियों में उत्तर प्रदेश, राजस्थान और महाराष्ट्र में पार्टी को जो झटका लगा है उससे भाजपा के थिंक टैंक ने यह निष्कर्ष निकाला कि उसकी हार के लिए मोटे तौर पर अनुसूचित और पिछड़ी जातियों के गठबंधन और मुस्लिमों का साथ आना जिम्मेदार है। मुस्लिमों के लिए भाजपा कुछ नहीं कर सकती है और न ही करेगी।

आपने देखा ही होगा कैसे भाजपा के प्रमुख नेता और खासकर उसके मुख्यमंत्री उन पर अत्यधिक आक्रामक ढंग से हमला बोलते हैं। वे ऐसा इस उम्मीद में करते हैं कि हिंदू उनके पास एकजुट हो जाएंगे। पार्टी ऐसा बिल्कुल नहीं चाहती है कि विपक्षी दल इस धारणा को मजबूत करें कि भाजपा और हिंदुत्ववादी ताकतें उच्च वर्ग के कुलीनों को मदद पहुंचाती हैं, न कि सभी हिंदुओं को। सीधी भर्ती दोबारा शुरू होगी लेकिन इस बार उसमें पहले से तय कोटा होगा। इससे उसका उद्देश्य ही पूरा नहीं होगा।

अतीत में कांग्रेस तथा गैर भाजपा गठबंधन सरकारों, यहां तक कि जनता पार्टी की सरकारों ने अपनी मर्जी से लोग चुने थे जो अब संभव नहीं। अब तो यह भी संभव नहीं होता कि बाहर से वित्त सचिव लाया जा सके जबकि पी वी नरसिंह राव की अल्पमत सरकार ने मोंटेक सिंह आहलूवालिया के रूप में बाहर से वित्त सचिव चुना था। यही कारण है कि हमें जनगणना में होने वाली प्रगति पर करीबी नजर रखनी होगी।

हमारी दशकीय जनगणना 1881 में आरंभ हुई थी। उसके बाद 1941 में विश्व युद्ध के चलते यह नहीं हुई, वरना हर दशक पर इसे अंजाम दिया गया। 2021 में कोविड महामारी ने इसे बाधित किया। सच तो यह है कि कोविड के आने के पहले भी जनगणना को लेकर कोई सक्रियता नहीं नजर आ रही थी। माना जा रहा था कि मोदी सरकार अपना समय लेगी। इन आम चुनावों से 10 महीने पहले सरकार ने नए जनगणना भवन का धूमधाम से उद्घाटन किया। परंतु उस समय तक भी जनगणना को लेकर कुछ सुनने को नहीं मिल रहा था।

माना जा रहा था कि भाजपा ब्रिटिश युग की दशकीय जनगणना को लेकर बाध्य महसूस नहीं कर रही। वह इसके लिए सही समय का इंतजार कर सकती थी। सही समय से तात्पर्य संसदीय क्षेत्रों के नए परिसीमन की अगली समय सीमा भी हो सकता था।

इसे ठीक से समझते हैं। परिसीमन को विभाजनकारी विषय माना जाता रहा है क्योंकि राज्यों की आबादी में इजाफे में बहुत भिन्नता है। खासकर तटवर्ती, आर्थिक और सामाजिक रूप से अग्रणी एवं हिंदी प्रदेशों की आबादी में बहुत अंतर है। परिसीमन के परिणामस्वरूप संसदीय सीट में उच्च जन्म दर वाले राज्यों की हिस्सेदारी बढ़ेगी जबकि जनसंख्या नियंत्रण करने वालों की कम होगी। इससे अस्थिरता और क्षेत्रीय प्रतिद्वंद्विता पैदा हो सकती है।

यही वजह है कि एक के बाद एक सरकारें इसे टालती रहीं। 2001 में आखिरी बार अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने एक संविधान संशोधन लाकर परिसीमन को 25 साल के लिए टाल दिया था। इसे इस अवधि के बाद यानी 2026 के बाद होने वाली जनगणना पर आधारित होना था। संभव है भाजपा इस बात की प्रतीक्षा कर रही हो कि वह तीसरी बार बहुमत पाने और चौथे की ओर बढ़ने के बाद इस दिशा में बढ़ेगी लेकिन 4 जून को ऐसा नहीं हो सका। राजनीतिक रूप से विवादित परिसीमन को अंजाम देना विकल्प नहीं रहा। ऐसे में जनगणना को अनंतकाल तक टालने और संसद में शर्मिंदा होने का कोई अर्थ नहीं था।

संसद के पिछले सत्र में राहुल गांधी ने जोर देकर कहा कि वह यह सुनिश्चित करेंगे कि इसी संसद के तहत जाति जनगणना हो। उधर भाजपा, लंबे समय से लंबित 2021 की जनगणना तक की बात नहीं कर रही थी। अब ऐसा करना राजनीतिक दृष्टि से उपयुक्त नहीं रह गया था। अगर जनगणना फॉर्म में जाति का कॉलम भी हो तो चकित होने की जरूरत नहीं है। अगर ऐसा नहीं हुआ तो मैं जरूर चौंकूंगा। यह राहुल गांधी और उनके सहयोगियों के हाथों हार जैसा होगा।

सिक्के का दूसरा पहलू यह है कि उस स्थिति में विपक्ष के मुख्य हथियारों में से एक बेकार हो जाएगा। बाद के दोनों ‘सी’ पहले से जुड़े हैं। जाति की अनिवार्यता ने ही लैटरल एंट्री यानी सीधी भर्ती के मामले में भाजपा के साझेदारों को सतर्क किया।

उदाहरण के लिए बिहार के दो साझेदार दलों की बात करें तो अगर उनके समर्थन वाली केंद्र सरकार आरक्षण के साथ किसी तरह की छेड़छाड़ करती है तो अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में उनके लिए दिक्कत खड़ी हो जाएगी। एकनाथ शिंदे की शिव सेना खामोश हो सकती है लेकिन लोक सभा चुनाव में करारी शिकस्त के बाद वे बहुत परेशान हैं।

आखिर में संविधान। प्रधानमंत्री इस हकीकत को पहचानने वाले पहले व्यक्ति थे और उन्होंने लोक सभा के गठन के अवसर पर संविधान के सामने सर झुकाया। चुनाव प्रचार तक दावे किए जा रहे थे कि एक बार 400 सीट का आंकड़ा पार करने के बाद संविधान में बड़े संशोधन किए जा सकते हैं। अन्य लोगों के अलावा अयोध्या के भाजपा प्रत्याशी ने भी इस विषय में बयानबाजी की थी।

इस बात को लेकर भी बहस थी कि क्या सर्वोच्च न्यायालय के 13 सदस्यीय संविधान पीठ द्वारा संविधान के बुनियादी ढांचे की व्याख्या और उसे छेड़छाड़ से परे बताने वाला आदेश अभी भी प्रासंगिक है या नहीं। वंचित जातियों और वर्गों के बीच इसे आरक्षण पर हमले के रूप में देखा गया। विपक्ष ने भी इसे फैलाने में पूरा जोर लगाया। इसके फलस्वरूप संविधान को अब ऐसा दर्जा दे दिया गया है जैसा इससे पहले कभी नहीं था। जबकि अर्थव्यवस्था, समाज और राजनीति में निरंतर बदलाव के बीच इसमें भी समय-समय पर संशोधन की जरूरत होती है। अब तक इसमें 106 संशोधन हो चुके हैं।

इन संशोधनों का इतिहास बताता है कि इनमें से ज्यादातर व्यापक सहमति से किए गए जहां विपक्षी दल भी साथ थे। क्या मोदी सरकार अपने तीसरे कार्यकाल में ऐसा करना चाहेगी? बिना सर्वसम्मति के वह संविधान को हाथ लगाने से डरेगी। आखिरी बात, ये तीनों ‘सी’ मिलकर भाजपा को एक चौथे ‘सी’ की ओर ले जाएंगे: आम सहमति। अगर वह उसे नहीं अपनाएगी तो यह सरकार के लिए एक झटका होगा।

First Published - August 25, 2024 | 9:17 PM IST

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