हिंडनबर्ग रिसर्च की हाल में प्रकाशित रिपोर्ट का एक प्रमुख निष्कर्ष यह था कि अदाणी समूह की कंपनियों के शेयरों का मूल्यांकन असामान्य रूप से ऊंचे स्तरों पर है। रिपोर्ट जारी होने के बाद अदाणी समूह के शेयरों में बिकवाली शुरू हो गई।अमेरिका स्थित हिंडनबर्ग रिसर्च ने अदाणी समूह के शेयरों में शार्ट सेलिंग में हिस्सा लिया। इसका नतीजा यह हुआ कि अदाणी समूह के शेयरों का संयुक्त मूल्यांकन करीब 100 अरब डॉलर फिसल गया।
अदाणी समूह के बॉन्ड के दाम में भी भारी गिरावट आई है। इसकी पूरी संभावना है कि हिंडनबर्ग रिसर्च ने शॉर्ट सेलिंग के जरिये भारी भरकम मुनाफा कमाया है। शॉर्ट सेलिंग शेयर बाजार में एक कारोबारी नीति होती है जिसके तहत निवेशक शेयर उधार लेकर इस शर्त पर उनकी बिकवाली करता है कि वह बाद में उन्हें खरीद लेगा। इस रणनीति में निवेशकों को फायदा या नुकसान दोनों हो सकता है।
अब महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि कुछ भारतीय संगठनों ने क्यों शोध नहीं किया और अदाणी समूह के शेयरों और बॉन्ड की बड़े स्तर पर बिकवाली नहीं की? अमेरिका के लोगों के बजाय भारतीय संस्थान एवं लोग शॉर्ट सेलिंग से मुनाफा कमा सकते थे। इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि भारत में शॉर्ट सेलिंग पर केंद्रित कोई विशेष शोध कंपनी नहीं है। हालांकि, दूसरे संगठन जरूर मौजूद हैं।
आइए, म्युचुअल फंड के उदाहरण पर विचार करते हैं। म्युचुअल फंडों के पास जानकारी, अनुभव, संसाधन हैं और सबसे बड़ी बात यह है कि उनकी शेयर बाजार में सीधी दिलचस्पी है। चूंकि इस पूरी कहानी में भारतीय कंपनियां केंद्र में थीं, इसलिए भारत में म्युचुअल फंड कंपनियां हिंडनबर्ग रिपोर्ट के बाद उत्पन्न स्थिति का लाभ उठा सकती थीं। हिंडनबर्ग रिसर्च भारतीय वित्तीय बाजार को लेकर कोई विशेष तजुर्बा नहीं रखती है। मगर तब भी अमेरिका की यह शॉर्ट सेलर मौके का फायदा ले गई जबकि भारतीय म्युचुअल फंड कंपनियां कुछ नहीं कर सकीं।
यह तर्क दिया जा सकता है कि कभी-कभी देश में रहना फायदेमंद कम और नुकसानदेह ज्यादा हो सकता है। मगर यह तर्क यहां प्रभावी नहीं जान पड़ता है। प्रश्न है कि भारत में म्युचुअल फंड कंपनियां हिंडनबर्ग की तरह फायदा क्यों नहीं उठा पाईं?
यह दिलचस्प बात है कि भारत में सक्रिय रूप से प्रबंधित म्युचुअल फंडों के पास अदाणी समूह के काफी कम शेयर थे।
इस वजह से यह मानना वाजिब है कि भारत में फंड प्रबंधकों को लगा कि अदाणी समूह के शेयरों की कीमतें वाकई असामान्य स्तर पर थीं। ऐसे में शेयरों में गिरावट से होने वाले नुकसान से भारत में म्युचुअल फंड बच गए। मगर वे इससे बेहतर काम कर सकते थे। म्युचुअल फंड प्रबंधक अदाणी समूह के शेयरों में शॉर्ट पोजीशन ले सकते थे और शेयरों की कीमतों में बड़ी गिरावट से फायदे में रह सकते थे। मगर उन्होंने ऐसा नहीं किया। क्यों?
इसका उत्तर सरल है। भारत में नियम-शर्तें म्युचुअल फंडों को सीधे शॉर्ट सेलिंग करने से भले ही नहीं रोकती हैं, मगर किसी न किसी रूप में इससे दूर रहने की हिदायत देती हैं। इसमें शक की गुंजाइश नहीं कि नियम-कायदे अपनी जगह ठीक हैं मगर एक गलती तो अवश्य हुई है।
यह सच है कि शॉर्ट सेलिंग काफी जोखिम भरा हो सकता है। मगर शॉर्ट सेलिंग में बिल्कुल दांव नहीं लगाने या नाम मात्र का जोखिम लेने के बजाय सीमित स्तर पर दांव खेलने में कोई हर्ज नहीं है। शॉर्ट सेलिंग में दिलचस्पी रखने वाली कई म्युचुअल फंड कंपनियों में प्रत्येक ने सीमित स्तर पर भी दांव खेला होता तो संभवतः कहानी कुछ और होती।
मैंने यहां म्युचुअल फंड उद्योग का उल्लेख किया है लेकिन जब हम दूसरे भारतीय वित्तीय संस्थानों पर विचार करते हैं तो इसी तरह का तर्क लागू होता है। यह कहानी केवल किताबों में लिखे नियमों तक ही सीमित नहीं हैं। यह कहानी पूरे नीतिगत तंत्र की भी है जिसके दायरे में रहकर भारत में वित्तीय संस्थान काम करते हैं।
सोच की बात करें तो समस्याएं और अधिक गंभीर हो जाती हैं। यह सोच ऐसी है जो भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) और भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) जैसे सार्वजनिक संस्थानों से लेकर वित्तीय संस्थानों के संचालन बोर्ड तक अपनी पैठ जमा चुकी है। शॉर्ट सेलिंग का समर्थन करने वाले अक्सर कम होते हैं। इसका परिणाम यह हुआ है कि आय का एक बड़ा हिस्सा संभवतः अमेरिका के संस्थानों और लोगों को चला गया है और भारत के लोग तमाशा देखते रह गए।
नीतिगत स्तर पर क्या किया जाना चाहिए यह स्पष्ट है। शॉर्ट सेलिंग पर सीधी या परोक्ष रूप से अत्यधिक पाबंदी समाप्त की जानी चाहिए। मैं यहां एक बात कहना चाहूंगा कि शॉर्ट सेलिंग कयास को बढ़ावा देने के बजाय इसे नियंत्रित कर सकती है। शॉर्ट सेलिंग की मदद से परिसंपत्ति कीमतों में आई असामान्य उछाल का बुलबुला फोड़ा जा सकता है।
केवल भारत में ही ऐसा नहीं रहा है। दुनिया के अन्य देशों में भी म्युचुअल फंडों पर अत्यधिक पाबंदी है मगर वहां दूसरे संस्थान भी हैं, जो वित्तीय बाजार में भागीदारी निभाने और शेयरों आदि की कीमतें दुरुस्त करने की स्थिति में हैं। भारत में यह बात काफी कम दिखती है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि भारत में परिसंपत्ति बाजार अमेरिका या अन्य विकसित देशों की तरह अच्छी तरह नियंत्रित नहीं है। भारत में कंपनी संचालन और वित्तीय नियमन में सुधार की मांग बार-बार उठ रही है। यह मांग उठनी भी चाहिए। मगर कहानी का एक दूसरा पहलू भी है। भारत में नीति निर्धारकों ने बाजार तंत्र को अच्छी तरह काम करने की स्वतंत्रता नहीं (अक्सर अनजाने में) दी है। इसका नतीजा यह होता है कि देश में आर्थिक गतिविधियां पूरी रफ्तार से आगे नहीं बढ़ पाती हैं।
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि भारत में शॉर्ट सेलिंग पर पाबंदी कम करने से सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में कोई बड़ा इजाफा होगा। मगर इस तरह की पाबंदी उन अन्य तमाम अनावश्यक रोक-टोक की ओर इशारा करती है जो कहीं न कहीं भारतीय अर्थव्यवस्था में हर जगह व्याप्त हो चुके हैं। इन सभी पाबंदियों से सुनियोजित तरीके से एक-एक कर निरंतर निपटना जरूरी है। इन प्रयासों का समग्र प्रभाव कालांतर में काफी व्यापक हो सकता है।
(लेखक अशोक यूनिवर्सिटी में अतिथि प्राध्यापक हैं।)