भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (SEBI) ने कुछ दिनों पहले अपने 35वें स्थापना दिवस के अवसर पर नया प्रतीक चिह्न (लोगो) जारी किया था। SEBI अधिनियम 31 साल पहले 1992 में प्रभाव में आया था। SEBI की स्थापना के पीछे भी एक कहानी और लोक नीति को लेकर कुछ दिलचस्प बाते हैं।
भारत में नीति विचारकों ने 1980 के दशक में प्रतिभूति बाजार नियामक की आवश्यकता महसूस की थी। SEBI अधिनियम पारित होने से कुछ वर्षों पहले 12 अप्रैल, 1988 को भारत सरकार के प्रशासनिक प्रस्ताव के तहत एक गैर-सांविधिक SEBI का गठन हुआ था। अर्थशास्त्री सुरेंद्र दवे इसके संस्थापक सदस्य थे और एक नया संगठन स्थापित करने में उनका सहयोग करने के लिए जिस दल का गठन किया गया था उनमें अधिकांश IDBI के अधिकारी थे।
अब SEBI उस कार्य की 35वीं वर्षगांठ बना रहा है जिसकी शुरुआत दवे की टीम ने की थी। इस टीम ने भारत में प्रतिभूति नियामक की भूमिका का ढांचा तैयार किया था और पहला मसौदा लिखा था जो बाद में SEBI अधिनियम बन गया।
अप्रैल 1922 में संसद ने SEBI अधिनियम पारित किया था। मोटे तौर पर यह समझा जाता है कि हर्षद मेहता (Harshad Mehta) प्रकरण के बाद सभी ने बाजार नियामक की स्थापना की जरूरत महसूस की। हालांकि, इस प्रकरण के लिए सरकारी प्रतिभूति बाजार से जुड़ी त्रुटियां जिम्मेदार थीं।
हर्षद मेहता प्रकरण के बाद सरकारी प्रतिभूति बाजार पर ध्यान केंद्रित करना अधिक तर्कसंगत होता। मगर दो कारणों से ऐसा नहीं हो पाया। इनमें एक कारण भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) में अफसरशाही एवं राजनीति से संबंधित था। दूसरा कारण यह था कि गैर-सांविधिक SEBI में डॉ. दवे की टीम इक्विटी बाजार को बेहतर बनाने के संभावित उपायों की सूची के साथ तैयार थी।
यहां पर हमारे लिए एक बड़ी सीख है। तथ्यों और नीतिगत दस्तावेज के साथ तैयार रहने वाले लोगों की टीम तैयार करना आवश्यक है क्योंकि हम नहीं जानते कि कोई महत्त्वपूर्ण सुधार लागू करने की जरूरत कब पेश आ जाए।
वास्तव में SEBI की स्थापना की यात्रा 1984 में स्थापित जी एस पटेल समिति के साथ शुरू हुई थी। इस समिति की रिपोर्ट पर काम करने वाले IDBI के अर्थशास्त्री आर एच पाटिल 1990 के दशक की शुरुआत में नैशनल स्टॉक एक्सचेंज (NSE) की अगुआई करने के लिए चुने गए थे।
उनकी टीम में ज्यादातर सदस्य SEBI में दवे की टीम से लिए गए थे। हमारी विकास यात्रा का मूल मंत्र ज्ञान बढ़ाने एवं समुदाय तैयार करने से जुड़ा हुआ है। हमें इस नींव को और मजबूती देते रहने की जरूरत है।
आधुनिक भारत में पूर्ण एवं आधुनिक नियामकों में शामिल SEBI की स्थापना सबसे पहले हुई थी। हमें उन लोगों के कार्य एवं समझ की सराहना करनी चाहिए जिन्होंने इसे तैयार किया और पिछले कई वर्षों से इसका संचालन किया है। पिछला अनुभव साथ होने के बाद हम अब अच्छी तरह जानते हैं कि सुधार से जुड़े कई पहलू होते हैं।
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वर्ष 1992 में स्थापित सांविधिक SEBI भारत का पहला नियामक है जो मानव संसाधन एवं वित्त के क्षेत्र में वैधानिक रूप से स्वायत्त है। SEBI की सांविधिक स्थापना के दो वर्ष बाद प्रतिभूति बाजार के नियमन के वास्ते इसे सरकार की अनुमति लिए बिना विशेष गंभीर विषयों पर दिशानिर्देश तय करने की स्वायत्तता भी इसे मिल गई।
इसके अलावा सरकार ने बुद्धिमानी का परिचय देते हुए एक नए विधान के साथ एक नई एजेंसी की स्थापना के पक्ष में निर्णय लिया और राष्ट्रीय राजधानी से बाहर (मुंबई जहां इक्विटी बाजार हैं) में सभी नए कर्मचारियों से लैस संस्था की स्थापना की। इन सभी पहल ने पूरी तरह एक नई कार्य शैली के साथ एक एजेंसी की स्थापना में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
एक दूसरी सीख हमें यह भी मिली है कि पुरानी एवं चरमरा चुकी प्रणाली के साथ कार्य करने के बजाय पूरी तरह से एक नई प्रणाली की शुरुआत करना अधिक फायदेमंद होता है।
अब एक अहम प्रश्न यह उठता है कि SEBI का काम-काज कैसा रहा है? सबसे पहले तो SEBI की इस बात के लिए सराहना की जानी चाहिए कि 2000 के शुरुआती दशक में केतन पारेख (Ketan Parekh) प्रकरण के बाद बाजार में कोई बड़ा गंभीर घोटाला नहीं हुआ है।
हालांकि, प्रतिभूति बाजार के प्रदर्शन का आकलन करने के कई तरीके हैं। उदाहरण के लिए भारत में बाजार पूंजीकरण खासा बढ़ा है। सकल घरेलू उत्पाद (GDP) और बाजार पूंजीकरण अनुपात 2021-22 में बढ़कर 1.11 हो गया। 1989-90 में यह अनुपात 0.123 था।
अन्य मानदंडों जैसे म्युचुअल फंडों (Mutual Funds) की प्रबंधनाधीन परिसंपत्ति, डीमैट खातों की संख्या, डीमैट खातों में कारोबार, डेरिवेटिव अनुबंध के सौदे आदि में भी समय के साथ बढ़ोतरी हुई है। इनमें कुछ का श्रेय SEBI को जाता है मगर ये उपलब्धियां देश की अर्थव्यवस्था के संपूर्ण विकास को भी दर्शाती हैं।
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यह एक रुचिकर प्रश्न पूछा जा सकता है कि वे कौन सी नीतियां रही हैं जिनके दम पर TCS 11.6 लाख करोड़ रुपये और इन्फोसिस (Infosys) 5 लाख करोड़ रुपये का बाजार पूंजीकरण (MCap) प्राप्त कर पाई हैं? दशकों पहले भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों (IIT) की स्थापना से लेकर 1990 दशक में दूरसंचार क्षेत्र में हुए सुधार सहित इस उपलब्धि का कारण रहे हैं। इसमें वित्तीय सुधारों-पूंजी पर नियंत्रण कम होना और पूंजी बाजार में नकदी की उपलब्धता एवं बाजार की क्षमता-ने इसमें अहम भूमिका निभाई।
लिहाजा, वित्तीय आर्थिक नीति को इक्विटी बाजार में बाजार पूंजीकरण पर कम और प्रतिभूति बाजार को मजबूत एवं सक्षम बनाने और नकदी की उपलब्धता सुनिश्चित करने पर अधिक ध्यान केंद्रित करना चाहिए। बाजार में कारोबारी गहराई, उतार-चढ़ाव से निपटने में बाजार की क्षमता इसके प्रमुख लक्षण हैं।
भारत में सार्वजनिक स्तर पर ये बातें नहीं दिखाई दे रही हैं। टर्नओवर रेश्यो (TR) के जरिये हम कुछ आंकड़ों का आकलन कर सकते हैं। पिछले एक साल के कारोबार के आंकड़े को मौजूदा बाजार पूंजीकरण से विभाजित कर टर्नओवर रेश्यो की गणना की जाती है।
कुछ सीमा तक यह बाजार पूंजीकरण से जुड़ा है क्योंकि 1 लाख करोड़ रुपये से अधिक बाजार पूंजीकरण वाली कंपनी का TR स्वाभाविक रूप से 0.1 या 0.01 लाख करोड़ रुपये बाजार पूंजीकरण वाली कंपनी की तुलना में अधिक होगा।
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यह आंकड़ा क्या दर्शाता है? हम इसके लिए 2003-04 को आधार वर्ष मानते हैं क्योंकि तब तक बाजार में इक्विटी डेरिवेटिव की शुरुआत हो चुकी थी। 2003-04 में हाजिर बाजार में कारोबारी 11.86 लाख करोड़ रुपये तक पहुंच गया था और टर्नओवर रेश्यो 1.34 था। 2022-23 में ये आंकड़े क्रमशः 25.8 लाख करोड़ रुपये और 0.54 थे।
यह देखकर आश्चर्य होता है कि 20 वर्षों की अवधि के दौरान भारतीय इक्विटी हाजिर बाजार का टर्नओवर रेश्यो वास्तव में कम हो गया जबकि इसे बाजार पूंजीकरण में बढ़ोतरी के कारण इसमें बढ़ोतरी होनी चाहिए थी। यह हमें SEBI और एक्सचेंजों को लेकर नए सिरे से सोचने के लिए विवश करता है।
बदलती परिस्थितियों में हमें SEBI एवं एक्सचेंजों में किस तरह सुधार किया जाए ताकि पूंजी बाजार के संचालन के लिए बेहतर नियम-कायदे बनें। यह सुनिश्चित कर हम बाजार को सभी लिहाज से और अधिक मजबूत बनाने में सक्षम हो पाएंगे।
(लेखक सीपीआर में मानद प्राध्यापक और पूर्व अफसरशाह हैं।)