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सियासी हलचल: एक ताकतवर क्षत्रप का हाशिये में जाना

राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा नेता वसुंधरा राजे जब अपने आसपास नजर डालती हैं तो यही सवाल वह अपने आप से पूछ सकती हैं।

Last Updated- October 13, 2023 | 10:00 PM IST
Political turmoil: Marginalization of a powerful satrap
BS

राजनीति में विरोधाभासों की भरमार है। ऐसा ही एक है-क्या ऐसा भी होता है कि कोई राजनेता बहुत ज्यादा लोकप्रिय हो जाए? राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा नेता वसुंधरा राजे जब अपने आसपास नजर डालती हैं तो यही सवाल वह अपने आप से पूछ सकती हैं। राज्य विधानसभा के आगामी चुनावों के लिए जारी भाजपा उम्मीदवारों की सूची से उनके कई कट्टर समर्थकों के नाम गायब हैं।

इनमें पांच बार के विधायक और पूर्व मुख्यमंत्री स्वर्गीय भैरों सिंह शेखावत के दामाद नरपत सिंह राजवी का नाम भी शामिल है। इसके लिए आपको कोई बहुत दिमाग लगाने की जरूरत नहीं है कि यह ताकतवरों द्वारा वसुंधरा राजे के पर कतरने की साजिश है। लेकिन अगर पार्टी के भीतर आपका समर्थन आधार नहीं है तो आपका राजनीतिक वजन काफी घट जाता है।

जिस शख्स ने इसे गलत साबित किया वह थे राज्य की राजनीति में भाजपा के दिग्गज नेता शेखावत जिन्होंने किसी पार्टी में विभाजन किए बगैर आराम से बहुमत जुटा लिया। असल में शेखावत के बहुत कम, यूं कहिए कि कोई विरोधी नहीं थे। इसके बावजूद, उनके नेतृत्व में भाजपा अपने बूते कभी भी 100 का आंकड़ा पार नहीं कर पाई।

जरा आंकड़ों को देखिए। शेखावत पहली बार 1977 में मुख्यमंत्री बने। जनता पार्टी को 200 में से 150 सीट मिलीं। 1990 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को 84 सीट मिलीं और वह जनता दल की मदद से सरकार बनाने में कामयाब रही। इसके बाद 1993 में भाजपा को 95 सीट मिलीं लेकिन उसने 124 सीट के साथ गठबंधन सरकार बना ली। इन चुनावों ने शेखावत को अदृश्य मित्रों का महत्त्व बता दिया। पार्टी आलाकमान अनुमान लगाता रहा और साथ ही साथ अपनी राजनीतिक सौदेबाजी का महत्त्व बढ़ाते रहे।

वसुंधरा राजे प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यालय-पीएमओ में राज्य मंत्री थीं। उनको 2002 में भाजपा का मुखिया बनाकर जयपुर भेजा गया लेकिन वह वहां जाने की इच्छुक नहीं थीं। उनके नेतृत्व में भाजपा ने वर्ष 2003 के चुनाव में 123 सीट के साथ सत्ता में शानदार वापसी की। वर्ष 2013 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने पार्टी की सीटों की संख्या 163 तक बढ़ा दीं जो किसी भी पैमाने पर जबरदस्त थी। अब भाजपा को किसी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष दोस्त की जरूरत नहीं थी।

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शुरू में सब चीजें अच्छे से चलीं। वह वित्त मंत्री भी थीं। जब उन्होंने अपना पहला बजट पेश किया तो उन्होंने एक शेर पढ़ा: “आंधियों से कह दो जरा औकात में रहें, हम परों से नहीं हौसलों से उड़ा करते हैं।“ यह वसुंधरा ही कर सकती थीं।

जब उन्होंने सत्ता संभाली तो राजस्थान का राजकोषीय घाटा 6.6 प्रतिशत (वर्ष 2003-04) था। वर्ष 2007-08 में यह घटकर 1.75 फीसदी पर आ गया। उन्होंने सार्वजनिक सेवाओं तक डिजिटल पहुंच के लिए कार्यक्रम शुरू किया। जापानी निवेश के जरिये बुनियादी ढांचे को मजबूत किया गया। भिवाड़ी में वाहन विनिर्माण क्षेत्र बनाया गया जहां होंडा कार्स ने अपना संयंत्र लगाया।

दिल्ली-मुंबई बुनियादी ढांचा गलियारे ने सड़क ढांचे में पूरी तरह सुधार को रफ्तार दी। तब तक वसुंधरा में अपनी आलोचनाओं को नजरअंदाज करने का विश्वास आ गया था। लोग उनकी आलोचना करते थे, पर उनके काम की नहीं। पुराने मित्र और सलाहकार दिवंगत जसवंत सिंह ने सलाह के संदेश भेजे।

लेकिन वह भी तब फंस गए जब 2007 में राज्य सरकार ने उनके और नौ अन्य लोगों के खिलाफ नारकोटिक्स, ड्रग्स और साइकोट्रॉपिक सबस्टैंसेज ऐक्ट में मामला दर्ज कर लिया। यह मामला एक समारोह में अफीम के कथित इस्तेमाल के आरोप में दर्ज किया गया था।

लेकिन जब दूसरी पारी शुरू हुई तो गंभीर समस्याएं उभरने लगीं। इनमें से एक ललित मोदी नाम की थी। दूसरी भ्रष्टाचार थी। तीसरी विधायकों से जुड़ी थी कि मुख्यमंत्री तक उनकी पहुंच ही नहीं है। ये सब समस्याएं उनके गंभीर सुधारों के काम पर भारी पड़ने लगीं। ये सुधार थे-श्रम कानूनों में संशोधन, राजस्थान में निवेश के लिए निजी क्षेत्र को आमंत्रण, बिजली क्षेत्र में सुधार, स्वास्थ्य और सामाजिक सुरक्षा से जुड़ी भामाशाह जैसी योजनाएं और दूसरे कई कार्यक्रम।

और यह है विरोधाभास। वर्ष 2018 में वसुंधरा राजे अपने प्रदर्शन के लिहाज से ऊंचाइयों पर थीं। समूचे राजस्थान में वह आसानी से पहचाना जाने वाला चेहरा थीं। भाजपा के कई विधायक थे पर उनको जानना और सबसे मिलना मुश्किल काम था। लेकिन पार्टी के भीतर ही कानाफूसी का अभियान शुरू हो गया। वह अपने आप को नरेंद्र मोदी के साथ जोड़ने की कोशिश कर रही थीं।

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पार्टी में हाशिये वाले लोगों द्वारा वसुंधरा अर्थशास्त्र की तारीफ भी मददगार नहीं हुई। जैसा कि हमेशा होता है, धारणा को सच मान लिया जाता है। सीकर में एक किसान आंदोलन से ठीक से नहीं निपटा गया और यह बेकाबू हो गया। अजमेर और अलवर के लोकसभा उपचुनाव (2017) में हार से कांग्रेस में सचिन पायलट का वजन बढ़ गया। आरएसएस ने उनको कभी भी पसंद नहीं किया।

उन्होंने जसवंत सिंह के बेटे मानवेंद्र (जो तब तक कांग्रेस में शामिल हो गए थे) के खिलाफ 2018 में झालरापाटन विधानसभा सीट से चुनाव लड़ा। इसमें अचरज यह नहीं है कि वह जीतीं बल्कि यह है कि उनकी जीत का अंतर महज 30,000 वोट रहा। अब तक पार्टी से उनकी दूरी इतनी बढ़ गई थी कि इसे पाटना मुश्किल था।

यह भी हो सकता है कि वसुंधरा इतनी स्वाभिमानी रही हों कि उन्होंने मदद लेना गवारा नहीं समझा। गजेंद्र सिंह जैसे नेता इस दूरी में शामिल हो गए। अब उनके समर्थकों को टिकट न देकर पार्टी यह संकेत दे रही है कि वह उनको छोड़ने को तैयार है।

सवाल है कि क्या राजे को मणिपुर के मुख्यमंत्री वीरेंद्र सिंह के नक्शे कदम पर चलना चाहिए जो इतने लोकप्रिय हैं कि भाजपा उनके बगैर कुछ भी नहीं कर सकती। कहना मुश्किल है। वसुंधरा में कुछ कमियां हो सकती हैं लेकिन वह अपरंपरागत और बहादुर नेता हैं जो बेहतर व्यवहार की हकदार हैं।

First Published - October 13, 2023 | 10:00 PM IST

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