पिछले चार वर्षों में भारत के शेयर बाजार में अच्छी तेजी देखी गई है और यह महामारी के निराशाजनक दौर की गिरावट से उबरता हुआ भी दिख रहा है। निफ्टी 50, मार्च 2020 के अंत में 8,598 के स्तर पर बंद हुआ और कोई भी इसमें दोबारा तेजी की भविष्यवाणी नहीं कर सकता था।
इसकी वजह, कोरोनावायरस महामारी का प्रकोप, यूक्रेन पर रूस का आक्रमण, पश्चिमी देशों का प्रतिबंध, चीन और यूरोप में मंदी और यहां तक कि एक बेहद लोकप्रिय नेता के नेतृत्व में भारत की सत्तारूढ़ पार्टी का आम चुनावों में स्पष्ट बहुमत लेकर नहीं आना जैसे कारक हैं।
इस वर्ष सितंबर के आखिर में निफ्टी 25,810 के स्तर पर चला गया जो महज चार साल में तीन गुना से अधिक की वृद्धि है। निफ्टी स्मॉलकैप सूचकांक ने पांच गुना की बढ़त के साथ और बेहतर प्रदर्शन किया। सभी अच्छी चीजों का अंत होता है और यही बात बाजारों पर भी लागू होती हैं जहां थोड़ी देर के लिए चीजें थम जाती हैं।
पिछले छह हफ्ते में, निफ्टी 50 में 9 प्रतिशत की गिरावट आई, जबकि स्मॉलकैप सूचकांक में 8 प्रतिशत तक की गिरावट आई। हालांकि विशेषज्ञ इन गिरावटों को लेकर संजीदा नहीं दिखते हैं लेकिन मैं इसको लेकर ज्यादा आश्वस्त नहीं हूं। यह मंदी के चरण या लंबे समय तक मंदी का दौर बरकरार रहने की शुरुआत का संकेत हो सकता है। विभिन्न स्थानीय और वैश्विक कारक इसकी दिशा तय करेंगे और इनमें से कई भारत सरकार के नियंत्रण से बाहर भी हैं। एक प्रमुख मुद्दा जिस पर गौर करने की जरूरत है, वह है अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में डॉनल्ड ट्रंप की शानदार जीत।
6 नवंबर को यह स्पष्ट हो गया था कि ट्रंप की व्हाइट हाउस में वापसी होगी। यह हैरानी की बात है कि ट्रंप की घोषित योजनाओं से भारत को कम लाभ मिलेगा लेकिन इसके बावजूद ट्रंप की जीत की घोषणा वाले दिन भारतीय बाजारों में तेजी देखी गई। हालांकि, एक बार उनके वापसी की हकीकत सामने आने के बाद, बाजारों में छह दिनों में बिकवाली शुरू हो गई। विदेशी निवेशक भी कुछ समय से भारतीय शेयरों की बिकवाली कर रहे हैं जो भारतीय निवेशकों की तुलना में व्यापक आर्थिक रुझानों को बेहतर ढंग से समझते हैं। ट्रंप की जीत ने केवल आग में घी डालने का काम किया है।
वैश्विक स्तर के नेता, निवेशक और कूटनीतिज्ञ इस बात का इंतजार कर रहे हैं कि ट्रंप के अप्रत्याशित रूप से राष्ट्रपति चुने जाने के बाद क्या होने वाला है क्योंकि उन्होंने जो प्रमुख नियुक्तियां की हैं, वह उनके ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ (एमएजीए) एजेंडे के अनुरूप हैं। उनकी नियुक्तियों में ईलॉन मस्क भी शामिल हैं, जिन्हें एक नए विभाग के प्रमुख नियुक्त किया गया है जो सरकारी दक्षता से जुड़ा विभाग है।
इन कदमों के संदेश स्पष्ट हैं। ट्रंप अपने चुनाव वादों को जल्द से जल्द लागू करना चाहते हैं। हालांकि यह मान लेना नुकसानदेह साबित होगा कि उन्होंने जिन कदमों के वादे किए हैं उनमें व्यावहारिक राजनीति के माध्यम से संतुलन बनाया जाएगा या उनकी नीतियां अमेरिका में प्रशासन के समानांतर किसी ‘कथित गोपनीय नेटवर्क’ से नियंत्रित होंगी।
अगर ट्रंपोनॉमिक्स (ट्रंप का अमेरिकी अर्थव्यवस्था को मजबूत करने का एजेंडा) का कुछ हिस्सा लागू किया जाता है तो यह बाकी दुनिया पर भी एक सुनामी जैसा प्रभाव डालेगा जिसके कारण कोई भी प्रमुख अर्थव्यवस्था अछूती नहीं रहेगी।
ट्रंप के योजनाबद्ध कदम के तहत चीन से आने वाले उत्पादों पर 60 प्रतिशत तक और दुनिया के बाकी हिस्से से आने वाले उत्पादों पर 10-20 प्रतिशत तक शुल्क लगाया जाना है। उन्हें ऐसा लगता है कि कोई भी देश जिसका अमेरिका के साथ बड़े पैमाने पर व्यापार अधिशेष है, वह अमेरिका को धोखा दे रहा है। इसी वजह से ट्रंप और उनके सलाहकार द्विपक्षीय संतुलन बनाए रखने में दिलचस्पी लेते हैं।
चीन का अमेरिका में बड़े पैमाने पर व्यापार अधिशेष है और इसके बाद मेक्सिको और वियतनाम का स्थान है। ये सभी सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे लेकिन भारत भी संभावित प्रभावितों की सूची से बाहर नहीं है। अमेरिका के साथ व्यापार अधिशेष वाले देशों की सूची में दक्षिण कोरिया, ताइवान और इटली के ठीक नीचे भारत 11वें पायदान पर है। चीन और मेक्सिको (चीन जिसका इस्तेमाल अमेरिका को सीधे निर्यात करने के लिए करता है) पर बड़े पैमाने पर शुल्क लगाया जाना तय है। इसकी प्रतिक्रिया के तौर पर चीन अपनी कीमतों में और कटौती करेगा और अमेरिकी निर्यात को संरक्षित करने के लिए अपनी मुद्रा को कमजोर करेगा।
इसके अलावा यह ग्लोबल साउथ क्षेत्र पर अधिक कब्जा जमाने के अपने प्रयास को दोगुना करेगा जहां यह पिछले कुछ वर्षों से पश्चिमी देशों को बाहर करने में बेहद सफल रहा है। हालांकि भारत में इस तरह के कदम उठाने की ताकत नहीं हैं। हमारे देश में अधिक लागत वाला अकुशल विनिर्माण आधार है और इसके अलावा रुपये में भी कमजोरी है जिसको लेकर हमारी मजबूत सरकार भी कोई ठोस समाधान नहीं निकाल सकी है।
अब दुनिया के लिए अगली बड़ी समस्या डॉलर में मजबूती आना है। ट्रंप अमेरिकी कंपनियों पर अधिक दबाव बना रहे हैं कि वे अमेरिका में विनिर्माण करें और इसके लिए विनियमन, पर्यावरणीय नियमों में कटौती और ऊर्जा की लागत में कमी करने जैसे कदमों पर भी विचार किया जा रहा है। अगर वह सफल रहते हैं तब अमेरिका में निवेश होंगे जिसके चलते डॉलर में और मजबूती आएगी।
27 सितंबर से डॉलर में लगभग 6.5 प्रतिशत और 5 नवंबर से 3 प्रतिशत की तेजी आई है। ट्रंप के शुल्क लगाने और अप्रवासियों को देश से निकालने की नीतियों से महंगाई पर असर दिखेगा और इसके चलते पहले से संकट से गुजर रहे श्रम बाजार का संकट और बढ़ेगा और डॉलर में मजबूती आएगी। उच्च स्तर की मुद्रास्फीति से ब्याज दरें भी अधिक होंगी और डॉलर में आगे भी मजबूती आएगी।
मुमकिन है कि ट्रंप की टीम के पास इसका कोई समाधान हो लेकिन हमें इंतजार करना होगा और यह देखना होगा कि कैसे इन बुनियादी आर्थिक ताकतों पर नियंत्रण किया जा सकता है। डॉलर में मजबूती से आयात और महंगा होगा और भारत जैसे देश के लिए मुद्रास्फीति का दबाव और बढ़ेगा।
इससे खराब समय नहीं हो सकता था। बाहरी मोर्चे पर परेशानियां ठीक उसी वक्त दिख रही हैं जब बड़े घरेलू कारोबारों में गंभीर रूप से मंदी के रुझान दिख रहे हैं। हिंदुस्तान यूनिलीवर, नेस्ले, एशियन पेंट्स, ब्रिटानिया, टाटा कंज्यूमर, सीमेंट कंपनियां, यात्री कार कंपनियां, बड़े बैंक, आईटीसी और रिलायंस जैसी विविध कारोबार वाली कंपनियां, माइक्रोफाइनैंस कंपनियां, ये सभी वृद्धि के लिए संघर्ष कर रही हैं।
एक विदेशी ब्रोकिंग कंपनी जेफरीज ने हाल ही में करीब उन दो-तिहाई भारतीय कंपनियों के लिए वित्त वर्ष 2025 के लिए आमदनी के अनुमान में कटौती की है जिनके रिकॉर्ड पर उसकी नजर थी और जिन कंपनियों ने अपने सितंबर तिमाही के नतीजे की घोषणा की थी। वर्ष 2020 के बाद से ग्रेडिंग अनुपात में सबसे अधिक कटौती है। आखिर इसकी वजह क्या है? यह अर्थव्यवस्था में चक्रीय मंदी है। हालांकि कई भारतीय कंपनियों का मूल्यांकन ऐसे हो रहा है मानो वे साल दर साल दो अंकों की वृद्धि दर्ज करने जा रही हैं। ट्रंपोनॉमिक्स, कम वृद्धि और उच्च स्तर का मूल्यांकन निश्चित रूप से भारतीय बाजारों के लिए तेजी का नुस्खा नहीं है।
(लेखक मनीलाइफ डॉट इन के संपादक और मनीलाइफ फाउंडेशन के ट्रस्टी हैं)