पिछले पखवाड़े सीएनएक्स स्मॉलकैप 100 सूचकांक 7.3 प्रतिशत लुढ़क गया। इस सूचकांक में इससे ज्यादा गिरावट दिसंबर 2022 में आई थी, जब यह 8.33 प्रतिशत फिसला था। स्मॉलकैप 100 सूचकांक में शामिल शेयरों में पिछले कुछ महीनों से बदलाव की कवायद चल रही थी मगर यह उठ नहीं पाया और आखिरकार लुढ़क गया। सूचकांक के प्रदर्शन पर नजर दौड़ाएं तो पिछले साल मध्य सितंबर में यह ऊंचाई पर पहुंचा था और उसके बाद से लगातार गिर ही रहा है। अक्टूबर के तीसरे सप्ताह में यह 6.45 प्रतिशत गिरा था और नवंबर के शुरू में भी सूचकांक में बड़ी गिरावट दर्ज की गई। यह सिलसिला जारी रहा और पिछले सप्ताह यह और तेजी से ढह गया।
बाजार के दो प्रमुख सूचकांक निफ्टी 50 और सेंसेक्स 27 सितंबर को सबसे ऊपरी स्तर पर पहुंचे थे और उसके बाद से दोनों में करीब 11 प्रतिशत गिरावट आ चुकी है। इस दौरान विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफआईआई) ने जमकर बिकवाली की है। दिसंबर की शुरुआत तक लग रहा था कि छोटी कंपनियां बाजार में गिरावट का असर खुद पर हावी नहीं होने देंगी मगर ऐसा नहीं हुआ। क्या पिछले पखवाड़े हुई भारी बिकवाली किसी अलग तस्वीर की तरफ इशारा करती है? इसका उत्तर जानने के लिए कुछ तथ्यों पर विचार करते हैं।
जब आर्थिक वृद्धि ‘के’ आकृति की बताई जाती है तो इसका अर्थ होता है कि अर्थव्यवस्था के कुछ हिस्से तेजी से बढ़ रहे हैं मगर कुछ हिस्सों में गिरावट बरकरार है। दोनों विरोधाभासी चाल का ग्राफ अंग्रेजी का ‘के’ अक्षर बना देता है। ‘के’आकृति वाली आर्थिक वृद्धि का सबसे बुरा दौर तब होता है, जब मुट्ठी भर अमीर लोग बेहद तेजी से प्रगति करते हैं और आबादी का बड़ा हिस्सा मुश्किलों में घिरा रहता है। शेयर बाजार में भी ‘के’ आकृति वाली वृद्धि का ही दौर चल रहा था मगर आर्थिक वृद्धि वाले ‘के’ से एकदम उलट है। बाजार में ‘के’ का अर्थ है कि ऊंचे बाजार पूंजीकरण और भरपूर नकदी वाली संसाधन संपन्न दिग्गज कंपनियों को आगे बढ़ने में परेशानी हुई मगर छोटी कंपनियों ने लंबी छलांग लगाई।
मार्च 2023 से माइक्रोकैप, स्मॉलकैप और मिडकैप से चलने वाले सूचकांक बिना रुके लगातार चढ़े हैं। अप्रैल 2023 से सितंबर 2024 के बीच निफ्टी स्मॉलकैप 100 सूचकांक चढ़कर दोगुना हो गया। इसमें मार्च 2024 में थोड़ी गिरावट आई थी और आम चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के खराब प्रदर्शन से जून में यह थोड़ा फिसला था। मगर छोटे शेयर इन झटकों से उबर गए। निवेशकों का तर्क था कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में फिर सरकार बनने और केंद्रीय मंत्रिमंडल में कोई बड़ा उलटफेर नहीं होने से बाजार राजनीतिक अनिश्चितता से बेपरवाह रह कर आगे बढ़ता रहेगा। तर्क तो ठीक लग रहा था क्योंकि सरकार में मुख्य सहयोगी चंद्रबाबू नायडू और नीतीश कुमार अपने-अपने राज्यों में मौजूदगी से ही संतुष्ट दिखे और सरकार को अस्थिर करने की धमकी नहीं दी। मोदी सरकार के तीसरे कार्यकाल की शुरुआत भी इतनी सहज रही है कि हमें याद ही नहीं है कि वह गठबंधन सरकार चला रहे हैं।
‘कुछ नहीं बदला है’ के सिद्धांत को तब और ताकत मिल गई जब बजट में भारी भरकम पूंजीगत व्यय में किसी तरह की कटौती नहीं की गई। छोटी कंपनियों के लिए यह उत्साह बढ़ाने वाला संकेत था। सरकार ने अक्षय ऊर्जा, बिजली पारेषण एवं वितरण, रक्षा विनिर्माण, शहरी परिवहन, रेलवे, जल आपूर्ति, सपोर्टिव लाइट इंजीनियरिंग और निर्माण पर जमकर व्यय करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। इसका छोटी कंपनियों को खूब फायदा मिला है। छोटी कंपनियां की तेजी से बढ़ते नए कारोबारों मसलन इलेक्ट्रॉनिक्स विनिर्माण सेवा, स्वास्थ्य सुविधा और रीसाइक्लिंग, स्मार्ट मीटरिंग, डेटा सेंटर, उपभोक्ता तकनीक और शेयर ब्रोकिंग एवं वेल्थ मैनेजमेंट में भी मौजूदगी है।
दूसरी तरफ दिग्गज कंपनियों की सॉफ्टवेयर सेवाओं, उपभोक्ता वस्तु, बैंकिंग, दूरसंचार, वाहन, दवा और जिंस कारोबार में मौजूदगी रही है। ये सभी क्षेत्र पहले से कदम जमाए हुए हैं मगर सुस्त गति से बढ़ते हैं। बैंकों को उम्मीद थी कि बुनियादी क्षेत्र पर जोर से उन्हें फायदा मिलेगा मगर सरकार और पूंजी बाजार से आर्थिक वृद्धि के लिए इतनी पूंजी मिल रही थी कि उन्हें (बैंकों को) कौन पूछता। मुनाफा कमाने के लिए बैंक एवं वित्तीय कंपनियां उपभोक्ता एवं व्यक्तिगत (पर्सनल) ऋण कारोबार बढ़ाने पर जोर देती हैं। मगर अब यह भी सहज नहीं रह गया है क्योंकि बड़ी संख्या में लोगों की आय नहीं बढ़ी है और ऊंची महंगाई की मार भी उन पर पड़ी है।
‘के’ वाली आर्थिक वृद्धि का यह भी एक नतीजा है। उपभोक्ता कंपनियों का प्रदर्शन फिसलने के पीछे भी यही कारण जिम्मेदार है। जब छोटी कंपनियों के शानदार प्रदर्शन का सिलसिला जारी था तब इक्विटी फंड नए स्मॉलकैप फंड बाजार में उतार रहे थे या मौजूदा फंडों को धार देने में जुट गए थे। इसके पीछे दलील थी कि छोटी कंपनियों के ढांचे में बदलाव के कारण उनमें वृद्धि चल रही है। इसलिए उनके शानदार प्रदर्शन का सिलसिला लंबे समय तक जारी रहेगा। लेकिन जैसे-जैसे यह दलील लोकप्रिय होती गई, इस पर संदेह के बादल भी छाने लगे।
मैं पिछले तीन महीने से अपने आलेखों में कहता आ रहा हूं कि लगातार तीन साल तक तेजी से वृद्धि करने के बाद अब भारतीय अर्थव्यवस्था अपनी सामान्य चाल में लौट आई है। यह बात बड़े क्षेत्रों जैसे कार, उपभोक्ता वस्तु और बैंक एवं वित्तीय सेवा क्षेत्रों की कंपनियों के शेयर भाव में भी नजर आने लगी है। पिछले दो महीनों से छोटी कंपनियां बड़े शेयरों में गिरावट के रुझान को स्वयं पर हावी नहीं होने दे रही थीं और इसके वाजिब कारण भी मौजूद थे। पिछले कुछ वर्षों में भारत की आर्थिक वृद्धि में कुछ क्षेत्रों की छोटी एवं कुशल कंपनियों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। इन क्षेत्रों का उल्लेख मैं ऊपर कर भी चुका हूं।
तो क्या अब छोटी कंपनियों की भी रफ्तार सुस्त होगी? आम तौर पर शेयर कीमतों में बड़े बदलाव वर्तमान व्यवस्था में बदलाव का संकेत देते हैं और ये संकेत बदलाव आने के काफी पहले दिखने शुरू हो जाते हैं। शेयर अज्ञात भविष्य को लेकर चलते हैं अतीत में हुई ज्ञात घटनाओं को लेकर नहीं।
मुझे लगता है कि हमें स्मॉलकैप श्रेणी में भी अलग-अलग चाल नजर आएंगी। जिन कंपनियों का कारोबार सरकारी व्यय पर निर्भर है उन पर नकारात्मक असर पड़ सकता है। हां, व्यय में तेजी आई तो इनकी सूरत कुछ और हो सकती है। सरकार की नीतियों से अप्रभावित रहने वाले क्षेत्रों जैसे दवा शोध, उपभोक्ता तकनीक, ठेके पर ली जाने वाली (आउटसोर्स्ड) सेवाओं, ठेके पर होने वाले विनिर्माण, स्वास्थ्य और कुछ अन्य पुराने परंपरागत कारोबार जैसे लाइट इंजीनियरिंग एवं निर्यात पर केंद्रित वाहन कल-पुर्जा कारोबार आदि का प्रदर्शन लगातार बढ़िया रहेगा।
भारत के उद्योग जगत में ये क्षेत्र इस समय ठीक वैसे ही दमक रहे हैं जैसे दो दशक पहले सॉफ्टवेयर निर्यात, बैंकिंग, फार्मा और उपभोक्ता उत्पाद दमक रहे थे। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि उनसे दो साल पहले जैसा ही प्रतिफल मिल पाएगा। प्रतिफल शेयर के कम मूल्यांकन और उम्मीद से ज्यादा वृद्धि पर निर्भर करता है। छोटे शेयरों की दुनिया में कीमत अब कम नहीं रह गई और तेज वृद्धि से किसी को हैरत नहीं हो रही। निवेशकों को यह ध्यान रखते हुए की उम्मीदें लगानी चाहिए। मगर यह भी सच है कि इन कारोबारों की भविष्य में काफी पूछ होगी इनका प्रदर्शन बेहतर बना रहेगा।