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अतार्किक विकल्प: उम्मीद के अनुरूप चल रही देश की अर्थव्यवस्था

भारतीय अर्थव्यवस्था में लंबे समय से साधारण वृद्धि चक्रों का रुझान देखा गया। इसमें शायद ही कभी मंदी का अनुभव किया। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि इसने लगातार टिकाऊ वृद्धि हासिल की हो।

Last Updated- November 12, 2024 | 9:24 PM IST
ECONOMY

अगर आप भारतीय अर्थव्यवस्था और शेयर बाजार को लेकर हमेशा निराशावादी रहेंगे तब आप अच्छे मौके गंवा सकते हैं। हमने इसे 2022 के मध्य से अब तक देखा है, जब अर्थव्यवस्था में मजबूती देखी गई और शेयर बाजार में भी तेजी आई। लेकिन जब अर्थव्यवस्था में कमजोरी दिखने लगती है तब कुछ लोग सरकार की नई नीतियों, मंत्रियों के बयानों और सोशल मीडिया पर चलने वाली अच्छी खबरों पर बहुत ज्यादा भरोसा कर लेते हैं लेकिन इससे निराशा ही हो सकती है। देश में मूलभूत संरचनात्मक बदलाव के अभाव में अर्थव्यवस्था फिर से कमजोर हो जाती है।

शायद अब यही हो रहा है, जिससे बाजार को लेकर बेहद आशावादी होने वाले लोग भी निराश हो रहे हैं। हमने पिछले महीने वॉशिंगटन में इसकी एक बानगी देखी थी जब केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा था, ‘जहां आर्थिक गतिविधियां बेहतर, मजबूत और गतिशील होती हैं, वहां पैसा आता है। यह एक सामान्य धारणा है। मैं पूछना चाहती हूं कि निवेश करने के लिए फंड कहां हैं? निवेशक कहां हैं? उनकी नजर किस पर है? उन्हें क्या चीजें रोक रही हैं?’

इसका सीधा जवाब वही समान कारक हैं जो उन्हें 10-15 वर्ष पहले रोक रहे थे। इसमें एकमात्र अपवाद अवांछनीय बुनियादी ढांचा और रियल एस्टेट क्षेत्र में आई तेजी थी जो वर्ष 2006 और 2012 के बीच देखी गई थी और यह भ्रष्टाचार और छद्म पूंजीवाद (क्रॉनी कैपिटलिज्म) से ग्रस्त था।

भारत की अर्थव्यवस्था में लंबे समय से साधारण वृद्धि चक्रों का रुझान देखा गया है और इसमें शायद ही कभी मंदी का अनुभव किया गया है लेकिन ऐसा भी नहीं है कि इसने लगातार टिकाऊ वृद्धि हासिल की हो। ये सभी चक्र स्पष्ट रूप से व्यापक आर्थिक कारकों जैसे घरेलू मुद्रास्फीति, ब्याज दरों, विनिर्माण और कृषि में कम वृद्धि और अमेरिका तथा यूरोपीय अर्थव्यवस्थाओं की स्थिति (जो निर्यात को प्रभावित करता है) के हिसाब से संचालित होते हैं।

सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि घरेलू आमदनी के स्तर पर या कॉरपोरेट जगत की कमाई चाहे जैसी भी हो, सरकारी राजस्व में वृद्धि हमेशा दो अंकों में होती है। सरकारी कर्मचारियों के वेतन, राष्ट्रीय सुरक्षा और सरकारी ऋण पर ब्याज का भुगतान करने के लिए बड़ी मात्रा में पूंजी खर्च करने की आवश्यकता होती है। समाज में हाशिये पर जी रहे लोगों के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और शहरी परिवहन में निवेश के लिए काफी कम गुंजाइश बचती है। इससे भी बुरी बात यह है कि राज्य और स्थानीय स्तर पर बड़े पैमाने के भ्रष्टाचार के कारण जो कुछ खर्च किया जाता है उसमें से अधिकांश अक्सर बरबाद हो जाते हैं।

देश की व्यापक अर्थव्यवस्था की स्थिति ऐसी थी कि सकल घरेलू उत्पाद वृद्धि को समर्थन नहीं मिल सकता था। ऐसे में मौजूदा 6-7 फीसदी वृद्धि की बात तो छोड़ ही दीजिए। लेकिन दो बड़ी वजहों से यह संभव हुआ। पहला पिछले वर्ष 161 अरब डॉलर के शुद्ध सेवाओं का निर्यात हुआ और दूसरा जो भारतीय विदेश में रहते हैं उन्होंने भारत में बहुत पैसा भेजा जो करीब 125 अरब डॉलर था। इन दोनों वजहों के बिना रुपये में और कमजोरी बनी रहती और महंगाई तथा ब्याज दरों में बढ़ोतरी के चलते वृद्धि दर के आंकड़े अच्छे नहीं दिखते। ये व्यापक कारक देश की अर्थव्यवस्था को प्रभावित करते रहे हैं और कई दशकों से इसमें बहुत बदलाव नहीं आया है और इनके सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही परिणाम देखने को मिले हैं।

अच्छी बात यह है कि अगर ये कारक स्थिर रहते हैं तब यह माना जा सकता है कि कई बड़ी अर्थव्यवस्था की तुलना में वृद्धि कहीं ज्यादा हो सकती है और इससे अमीर और मध्यम वर्ग के लोगों को बहुत फायदा होगा जिनके हिस्से में इस वृद्धि का अधिक लाभ आता है। एक और सकारात्मक बात यह है कि इस वृद्धि में निजी क्षेत्र की कंपनियां बहुत बड़ी भूमिका निभा रही हैं। चाहे कोई भी राजनीतिक दल सत्ता में हो, सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों को बहुत ज्यादा बढ़ावा नहीं दिया गया है। ऐसे में आम धारणा यह है कि दो या तीन बड़ी कंपनियों का दबदबा सारे कारोबारी मौके पर होता है लेकिन यह पूरी तरह सही नहीं है।

पिछले तीन दशकों में भारत की अर्थव्यवस्था में सबसे बड़ा बदलाव उपभोक्ता प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग, दवा क्षेत्र, ऊर्जा और यहां तक कि वित्तीय क्षेत्र में उद्यमिता का रुझान असाधारण तरीके से बढ़ा है। इसका एक कारण यह है कि सरकार इसमें न्यूनतम हस्तक्षेप करती है। कल्पना कीजिए कि कृषि उत्पादकता में सुधार, विनिर्माण, लॉजिस्टिक्स और बिजली की लागत में कमी और विशेषकर पिछड़े क्षेत्रों में श्रम कौशल को बेहतर करने के साथ और क्या हासिल किया जा सकता था।

देश की अर्थव्यवस्था में धीमी वृद्धि का दूसरा पहलू यह है कि इसमें कोई बड़ा बदलाव नहीं आएगा बल्कि क्रमिक आधार पर वृद्धि होगी। इसके अलावा हमें व्यापक स्तर पर प्रत्यक्ष विदेशी निवेश या घरेलू पूंजीगत खर्च में बढ़ोतरी की उम्मीद नहीं करनी चाहिए। वृद्धि का लाभ धीरे-धीरे निचले स्तर पर लोगों में जाएगा जिससे लोगों का भविष्य बेहतर होने की उम्मीद तो रहेगी, लेकिन यह उनकी बचत या खर्च के लिए पर्याप्त नहीं होगा।

गौर करने वाली बात यह है कि देश की अर्थव्यवस्था 7 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है लेकिन इसके बावजूद माइक्रोफाइनैंस सहित असुरक्षित ऋण साधनों में बहुत ज्यादा दबाव बढ़ गया है। ज्यादातर लोगों की आमदनी उतनी नहीं बढ़ी है इसलिए वे कर्ज लेकर अपने खर्चों का प्रबंधन कर रहे हैं। यह स्पष्ट है कि देश की अर्थव्यवस्था के बेहतर दिखते आंकड़े और वृद्धि की वास्तविक गुणवत्ता में काफी अंतर है।

नोटबंदी और वस्तु एवं सेवा कर (GST) के कारण जब अर्थव्यवस्था गंभीर संकट के दौर से गुजर रही थी तब सरकार ने तत्काल कदम उठाते हुए अक्टूबर 2019 में कॉरपोरेट कर को 30 प्रतिशत से घटाकर 22 प्रतिशत कर दिया था जो बड़ा कठोर कदम था। नए कारोबारों के लिए कर दरें और भी कम, 15 प्रतिशत के स्तर पर निर्धारित की गई थीं। लेकिन निजी पूंजी निवेश अब भी कमजोर बना हुआ है। तीन साल बाद, कोविड के बाद की अवधि में, सरकार ने वर्ष 2023-24 के बजट में 10 लाख करोड़ रुपये के पूंजीगत व्यय की घोषणा की और अगले वर्ष इसे बढ़ाकर 11 लाख करोड़ रुपये कर दिया। केंद्र सरकार के कुल पूंजीगत व्यय के प्रतिशत के रूप में कुल खर्च वित्त वर्ष 2024 में बढ़कर 28 प्रतिशत हो गया जो वित्त वर्ष 2014 में 14 प्रतिशत था।

हालांकि, यह निजी क्षेत्र के निवेश में वृद्धि लाने के लिए प्रोत्साहन देने में विफल रहा। अभी, मजबूत बैलेंसशीट के बावजूद, निजी खपत और पूंजीगत खर्च दोनों की ही स्थिति कमजोर है और इसमें कमी आ रही है। अगर सरकार वास्तव में जानना चाहती है कि ऐसा क्यों है तब उसे उद्योग से खुलकर बात करनी होगी और कई कठोर कदम उठाने होंगे। यह शायद ही संभव लगता है। अधिक संभावना है कि अर्थव्यवस्था अपने स्वाभाविक मध्यम वृद्धि के साथ बढ़ती रहेगी जैसी उम्मीद इससे की जाती है।

First Published - November 12, 2024 | 9:12 PM IST

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