जो कभी एक बार की दिक्कत लग रही थी अब वह सिलसिला लगने लगा है। वस्तु एवं सेवा कर (GST) संग्रह में वृद्धि घटकर 6.5 फीसदी रह गई, जो 40 महीनों में सबसे सुस्त वृद्धि है। करीब 6.5 फीसदी के स्तर पर जीएसटी संग्रह शायद ही मुद्रास्फीति के अनुरूप है जिसका अर्थ यह है कि मात्रा के लिहाज से कारोबार में कोई वृद्धि नहीं हुई है।
अगस्त में व्यापार घाटा बढ़कर 29.7 अरब डॉलर हो गया, जो एक वर्ष पहले 24.2 अरब डॉलर था। वस्तु निर्यात भारत की दुखती रग है और इसी से पता चलता है कि प्रतिस्पर्द्धा के मामले में भारत कितना कमजोर है। यह निर्यात अगस्त में घटकर 34.7 अरब डॉलर रह गया, जबकि पिछले वर्ष अगस्त में यह 38.3 अरब डॉलर था।
सकल घरेलू उत्पाद (GDP) की वार्षिक वृद्धि दर भी 7.8 फीसदी से घटकर 6.7 फीसदी रह गई। कोयला, तेल एवं बिजली जैसे आठ बुनियादी उद्योगों के उत्पादन के हिसाब से घटने बढ़ने वाला औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (आईआईपी) तीन वर्षों में पहली बार इस अगस्त में शून्य के नीचे गया था। पिछले वर्ष सितंबर के मुकाबले इस बार सितंबर में कारों की बिक्री भी 19 फीसदी घट गई।
सरकार वृहद आंकड़ों का संग्रह और संकलन जिस तरह करती है, उसे देखते हुए हो सकता है कि बाद में कुछ आंकड़े इतने बुरे नहीं निकलें। जैसे मैं आईआईपी के आंकड़े पर ज्यादा भरोसा नहीं करूंगा मगर निर्यात और जीएसटी से जुड़े आंकड़े अधिक विश्वसनीय हैं। इसी तरह कंपनियों से लिए गए परचेजिंग मैनेजर्स इंडेक्स (PMI) जैसे आंकड़े अधिक भरोसेमंद हैं।
पीएमआई अगस्त में 57.5 था मगर सितंबर में घटकर आठ महीने के सबसे कम स्तर 56.5 पर चला गया। अगस्त में 60.9 पर पहुंचा सेवा पीएमआई भी सितंबर में 57.7 रह गया, जो 10 महीने का सबसे कम आंकड़ा था। पहली तिमाही में आवास ऋण वितरण में 9 फीसदी की कमी आई और वाहन ऋण 2 फीसदी तथा पर्सनल लोन 3 फीसदी ही बढ़े।
वित्तीय प्रौद्योगिकी (फिनटेक) कंपनियों द्वारा दिया गया कर्ज भी ठहरा रहा। अप्रैल से अगस्त तक डीजल की बिक्री पिछले साल अप्रैल से अगस्त के मुकाबले केवल 1 फीसदी बढ़ी। लग रहा है कि मंदी आने लगी है।
तिमाही नतीजे आ रहे हैं और बड़ी भारतीय कंपनियों के शुरुआती नतीजे बेहद खराब रहे हैं। पिछले हफ्ते वित्त वर्ष 2025 की दूसरी तिमाही के नतीजे जारी होने के बाद से बजाज ऑटो का शेयर 15 फीसदी तक गिर गया है, जो जनवरी 2011 के बाद से इसमें सबसे बड़ी साप्ताहिक गिरावट है।
परिचालन मुनाफा पिछले वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही के आंकड़े से 2.68 फीसदी नीचे रहा और परिचालन मुनाफा मार्जिन (ओपीएम) 20 फीसदी से कम होकर 16 फीसदी रह गया। इससे भी बुरी बात यह है कि कंपनी प्रबंधन ने त्योहारों के दौरान बिक्री में केवल 1-2 फीसदी वृद्धि का अनुमान लगाया, जो उद्योग के 5-6 फीसदी के अनुमान से कम है।
देश में खपत पिछले कुछ समय से कम रही है। खराब आर्थिक नीतियों ने मध्य वर्ग और निम्न आय वर्गों को कमाई घटा दी है और वेतन में असली वृद्धि ऋणात्मक हो गई है। यहां तक कि आम तौर पर मंदी से बेअसर रहने वाली नेस्ले इंडिया के उत्पादों पर भी इस गिरावट का असर पड़ा है।
कंपनी के भारतीय कारोबार में केवल 1 फीसदी वृद्धि हुई, जो उन विकसित देशों के बराबर है, जहां कंपनी हर तबके में पैठ बना चुकी है। शुद्ध लाभ में केवल 7 फीसदी इजाफा हुआ और परिचालन राजस्व में महज 3.3 फीसदी वृद्धि हुई।
सेवा निर्यात में भारत की बढ़त मानी जाती है। यहां बेंगलूरु, हैदराबाद, चेन्नई और गुरुग्राम में वैश्विक क्षमता केंद्रों (जीसीसी) की अपार संभावनाएं हमेशा गिनाई जाती हैं मगर उनमें वृद्धि के आंकड़े बहुत मामूली हैं। 2014-15 और 2023-24 के बीच सेवाओं के निर्यात में केवल 8.92 फीसदी इजाफा हुआ। इसलिए इन्फोसिस के सितंबर तिमाही के नतीजे अच्छे नहीं रहने पर हैरत नहीं होनी चाहिए, जिसका राजस्व मुद्रास्फीति को मात देने में जूझता रहा।
पिछले साल की दूसरी तिमाही के मुकाबले मुनाफा केवल 4.73 फीसदी और राजस्व महज 5.11 फीसदी बढ़ा। सबसे बड़ी देसी आईटी सेवा कंपनी टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज का राजस्व भी केवल 7.06 फीसदी बढ़ा और शुद्ध लाभ में 5 फीसदी तेजी ही आई।
निफ्टी 50 की ही कंपनी एलटीआई माइंडट्री का राजस्व केवल 5.92 फीसदी बढ़ा और लाभ में 7.68 फीसदी वृद्धि ही हुई। निफ्टी 50 की दो प्रमुख कंपनियों कोटक महिंद्रा बैंक और एचडीएफसी ने मुनाफे में भी 5 फीसदी बढ़ोतरी ही हो पाई।
हाल में आई नुवामा की एक शोध रिपोर्ट कहती है कि भारतीय अर्थव्यवस्था को मांग में भारी सुस्ती का सामना करना पड़ रहा है और कई संकेतक कोविड से पहले के स्तर पर हैं।
नुवामा के मुताबिक इसकी एक वजह यह है कि सरकार का पूंजीगत खर्च लगातार चार साल तक ऊंचा रहने के बाद अब चुक गया लगता है। मगर निजी क्षेत्र ने अभी तक इसकी बागडोर नहीं थामी है। रिपोर्ट में कहा गया है, ‘भारत की कंपनियों की मुनाफा वृद्धि भी शायद अपना शीर्ष स्तर छूकर लौट आई है क्योंकि राजस्व कमजोर है और मार्जिन कम है क्योंकि व्यापार की शर्तें बदल गई हैं।’ पहले ही बताया जा चुका है कि बड़ी कंपनियों के शुरुआती नतीजे भी इसी बात की तस्दीक करते हैं।
किंतु आंकड़ों में कुछ सकारात्मक बातें भी हैं। भारत के तेजी से बढ़ते शेयर बाजारों से पूंजीगत लाभ कर मिलने के कारण शुद्ध प्रत्यक्ष कर संग्रह काफी बेहतर रहा है। भारत का विदेशी मुद्रा भंडार 705 अरब डॉलर तक पहुंच गया है। इसके अलावा 5जी स्मार्टफोन की बिक्री 23 फीसदी की दर से बढ़ रही है, जिस कारण भारत अब चीन के बाद दुनिया में सबसे बड़ा 5जी बाजार बन गया है।
इलेक्ट्रॉनिक्स विनिर्माण क्षेत्र में भी मजबूत वृद्धि दर्ज की गई है, जो ‘मेक इन इंडिया’ की सफलता को दर्शाती है। आम चुनावों के कारण कुछ समय ठहरने के बाद सरकार ने रक्षा, अक्षय ऊर्जा और बुनियादी ढांचा क्षेत्र में अपना पूंजीगत खर्च बढ़ाया है।
इस तरह के सकारात्मक आंकड़ों के साथ पीठ तो थपथपाई जा सकती है मगर जब इन्हें मंदी की व्यापक तस्वीर मसलन कम निजी निवेश, विनिर्माण और निर्यात में कमी, कम वेतन वृद्धि के बरअक्स रखा जाता है तब ये मामूली लगते हैं।
पिछले दिनों मैंने इशारा किया था कि शेयर बाजार के विशेषज्ञ मजबूत बैंकिंग तंत्र, मजबूत चालू खाता, कम मुद्रास्फीति, काबू में आया बजट घाटा, कम ऋण-जीडीपी अनुपात जैसी जिन बातों को स्थायी बदलाव बताते हुए अघाते नहीं है उन्हें करीब से देखने पर लगता है कि यह सही नहीं है।
अब आंकड़े दर्शाते हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था में उतार-चढ़ाव का सिलसिला बना रहता है और उत्पादकता तथा प्रतिस्पर्द्धात्मकता में वृद्धि के जरिये उच्च आय की ओर बुनियादी बढ़त नहीं दिख रही है।
वैसे भी समृद्धि भारत का जन्मसिद्ध अधिकार नहीं है और हमें कृषि सुधारों के जरिये ग्रामीण क्षेत्रों की आमदनी बढ़ाने की मेहनत करनी है। साथ ही हमें बड़े पैमाने पर विनिर्माण को सस्ता और निर्यात को प्रतिस्पर्द्धी बनाने की जरूरत है। ये बातें कहीं भी एजेंडे में नहीं हैं।
लेकिन लोगों को पसंद आने वाली बात कही जा रही है कि यह ‘भारत की सदी’है और यह ‘भारत का दौर’ है। अगर वृद्धि कोविड से पहले के स्तर पर पहुंच जाती है तो कई लोगों को अपना आशावाद कम करना पड़ सकता है।
(लेखक मनीलाइफ डॉट इन के संपादक और मनीलाइफ फाउंडेशन के ट्रस्टी हैं)