कई लोग पूरी तरह आश्वस्त दिखते हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था विकसित राष्ट्र बनने की दिशा में जा रहा है। सभी उत्साहित हैं और कहा जा रहा है कि वर्ष 2014 तक भारत जिन अनिश्चितताओं सामना कर रहा था वे अब खत्म हो चुकी हैं। इस सोच के अनुसार सकल घरेलू उत्पाद (GDP) की 7 प्रतिशत से अधिक वृद्धि दर भारत को एक विकसित राष्ट्र बनाने के लिए काफी होगी।
इसके ठोस संकेत भी हैं, जैसे ऋण एवं जीडीपी अनुपात कम होना, चालू खाते का घाटा काबू मे होना, मजबूत बैंकिंग तंत्र, राजकोषीय घाटा नियंत्रण में रहना और मुद्रास्फीति भी कम होना। किंतु एक छोटे समूह (जिसमें मैं भी शामिल हूं) को लगता है कि ये सभी दावे बढ़ा-चढ़ा कर पेश किए जा रहे हैं।
कई सकारात्मक बातों से कुछ समय के लिए अनुकूल स्थिति तैयार हो गई है मगर ये भारत की कुछ बुनियादी कमजोरियों पर पर्दा डालने का ही काम कर रही हैं। कुछ सकारात्मक बातों के समर्थन में दिए जा रहे आंकड़े भी सवालों के घेरे में हैं। आइए, सभी सकारात्मक बातों पर बारी-बारी से विचार करते हैं।
ऋण-जीडीपी अनुपातः सरकार का दावा है कि भारत का ऋण-जीडीपी अनुपात कम है मगर विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) के अनुसार यह 82 प्रतिशत से अधिक है, जो अब तक के सबसे ऊंचे स्तर के पास है। यह अनुपात 2014 में बिल्कुल नीचे था और वहां से लगातार बढ़ते हुए कोविड महामारी के दौरान 89 प्रतिशत तक पहुंच गया था। उसके कुछ वर्ष बाद तक यह 80 प्रतिशत के ऊपर ही रहा। इससे पहले 2004 में यह अनुपात 80 प्रतिशत के ऊपर गया था। पिछले 25 वर्षों में इसका उच्चतम स्तर 2003 में था, जब यह 83 प्रतिशत रहा था, जो आज के स्तर से दूर नहीं है।
चालू खाताः चालू खाते पर आयात, निर्यात और वित्तीय प्रवाह (निवेशकों और विदेश से आने वाली रकम) का मुख्य प्रभाव होता है। आयात बढ़ रहा है और (कच्चा तेल, इलेक्ट्रॉनिक्स, सोना) कम होने वाला नहीं है। निर्यात उतनी तेजी से नहीं बढ़ रहा है। 2013 में देश से हुए कुल निर्यात का मूल्य जीडीपी का 25 प्रतिशत था मगर 2015 के बाद यह घट गया और फिलहाल जीडीपी का 22.8 प्रतिशत है।
आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2014-15 और 2023-24 के बीच भारत से वस्तुओं का निर्यात बढ़ता गया और वित्त वर्ष 2015 के 310 अरब डॉलर से बढ़कर वित्त वर्ष 2024 में 437 अरब डॉलर हो गया। मगर यह केवल 3 प्रतिशत सालाना चक्रवृद्धि दर है। चूंकि यह मुद्रास्फीति दर से काफी कम है और रुपया भी कमजोर रहा है, इसलिए भारत से निर्यात होड़ में बहुत पीछे है। इस बीच आयात में 4.67 प्रतिशत सालाना चक्रवृद्धि हुई है।
सेवा निर्यात के आंकड़ों ने बचा लिया, जो इसी अवधि के दौरान 8.92 प्रतिशत बढ़ा। मगर चालू खाते का अहम घटक यानी वस्तुओं का व्यापार कमजोर रहा है। इस कमी को विदेश से आने वाले निवेश और धन ने कुछ हद तक पूरा किया मगर उनके आंकड़े भी बहुत खुशगवार नहीं हैं।
वित्त वर्ष 2015 में इन तरीकों से कुल 65.7 अरब डॉलर पूंजी आई थी, जो वित्त वर्ष 2024 में बढ़कर 105.8 अरब डॉलर हो गई मगर यह केवल 5.58 प्रतिशत सालाना चक्रवृद्धि है। पिछले 10 वर्षों में चालू खाते का घाटा जीडीपी का 1-2 प्रतिशत रहा है, यानी इसमें कोई बुनियादी सुधार नहीं हुआ है।
बैंकिंग प्रणालीः इस पर भी बड़े दावे किए जा रहे हैं। इसका मतलब है कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों ने अपने बहीखाते साफ कर लिए हैं। निजी बैंकों के साथ ऐसी समस्या थी ही नहीं। दुर्भाग्य से बहीखाते एक बार साफ करना और संचालन तथा प्रबंधन में बुनियादी बदलाव लाना बिल्कुल अलग-अलग बातें हैं। आश्चर्य की बात यह है कि पहले कर्ज फंसने की सबसे बड़ी वजह को जान-बूझकर अनदेखा किया जा रहा है। ऋण मंजूर करने में बैंक अधिकारियों का भ्रष्टाचार और सिफारिश पर कर्ज दिया जाना बैंकों की दुर्दशा के बड़े कारण रहे हैं।
बैंकों को जवाबदेह बनाने की कोशिश कभी हुई ही नहीं है। वास्तव में भारतीय रिजर्व बैंक, वित्त मंत्रालय, बैंकों की निगरानी टीम और बैंक चेयरमैन समेत हर किसी ने फंसे कर्ज के लिए दो बाहरी वजहें बताई हैं – सामान्य कारोबारी विफलता और खराब दिवालिया कानून। मगर ऋण शोधन अक्षमता एवं दिवालिया संहिता (आईबीसी) हमें दिखा चुकी है कि बैंकों में कितना ज्यादा भ्रष्टाचार है। बिना किसी की जवाबदेही तय किए ही लाखों करोड़ रुपये बट्टे खाते में डाल दिए गए हैं। इसका क्या सबूत है कि परिस्थितियां अब बदल गई हैं? शुरू में ज्ञान संगम (जो अब बंद हो चुका है) में इंद्रधनुष, बैंक बोर्ड ब्यूरो, पुनर्पूंजीकरण और बैंकों के विलय के जरिये सार्वजनिक बैंकों में सुधार की कवायद शुरू हुई थी। एक सार्वजनिक बैंक के पूर्व चेयरमैन ने बैंकों के विलय पर कहा, ‘अगर आप दो छोटी समस्याओं को मिला देंगे तो आपको बड़ी समस्या ही मिलेगी।’
सुधार के जितने भी प्रयास हुए उनमें सबसे जरूरी बात की अनदेखी की गई और वह थी जवाबदेही पक्की करने के लिए व्यवस्था तैयार करना। लेकिन इसके लिए मालिकाना हक में बदलाव करना पड़ेगा। यह बदलाव तो मालिकाना नियंत्रण के जरिये किया जा सकता है। दिक्कत यह है कि आईडीबीआई बैंक का बहुचर्चित निजीकरण भी कहीं नहीं पहुंच पाया है।
राजकोषीय घाटा
वित्त वर्ष 2022 में भारत का राजकोषीय घाटा जीडीपी का 5.63 प्रतिशत था, जो 2012 और 2019 के बीच के आंकड़ों से ज्यादा था। इससे पहले वित्त वर्ष 2011 में ही राजकोषीय घाटा 5.9 प्रतिशत पहुंचा था। सरकार की वित्तीय ताकत में कोई बुनियादी बदलाव नहीं आया है। राजकोषीय घाटा कम रखने के लिए या तो पूंजीगत व्यय घटाया जा रहा है (जैसा कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार ने किया था) या (मौजूदा सरकार की तरह) राजस्व व्यय कम किया जा रहा है।
मुद्रास्फीतिः कुछ महीने पहले लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी (BJP) के खराब प्रदर्शन के लिए जो तीन कारण जिम्मेदार थे, उनमें एक ऊंची महंगाई भी थी। अन्य दो कारण थे बेरोजगारी और लोगों के रहन-सहन में वास्तविक सुधार नहीं होना। आधिकारिक आंकड़ों में मुद्रास्फीति कम है मगर वास्तव में यह कम नहीं है। कुल मिलाकर आधिकारिक मुद्रास्फीति कम है मगर खाद्य मुद्रास्फीति लगभग दो अंक में है। आधिकारिक मुद्रास्फीति इसलिए भी कम है क्योंकि तेल के दाम कम हुए हैं मगर इसके लिए भारत वाहवाही नहीं लूट सकता।
सच्चाई यह है कि पिछले 100 वर्षों में तीन-चार देश ही अपना कायाकल्प कर विकसित देश बन पाए हैं। 19वीं शताब्दी के अंत और 20वीं शताब्दी के शुरू में जापान, 20वीं शताब्दी के मध्य में ताइवान और दक्षिण कोरिया तथा 1990 के दशक में चीन ही यह कारनामा कर पाए हैं।
ऐसे क्रांतिकारी बदलाव में तीन बातें दिखती हैं। पहली जरूरी बात कृषि क्षेत्र में सुधार है, जिससे ग्रामीण क्षेत्र में लोगों की माली स्थिति में सुधार होगा। दूसरी बात विनिर्माण में लंबे अरसे तक दो अंक में वृद्धि होना है और तीसरी जरूरी बात है उच्च मूल्य वर्द्धित उत्पादों का निर्यात बढ़ना। खुद से पूछिए कि क्या हमने इनमें किसी भी एक लक्ष्य की तरफ कदम बढ़ाने की शुरुआत की है?
(लेखक मनीलाइफ फाउंडेशन के संपादक और न्यासी हैं)