न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) देश की कृषि नीति का अनिवार्य अंग रहा है। इसके पीछे खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने तथा किसानों को कीमतों के जोखिम से बचाने जैसे नेक इरादे रहे हैं। लेकिन इसके कुछ अनचाहे परिणाम भी हैं जैसे फसलों की विविधता कम होना और देश के कुछ हिस्सों में पर्यावरण को नुकसान शामिल हैं। अब कृषि से होने वाली आय में इजाफे की जरूरत है मगर कुछ किसान समूहों की मांग मानकर एमएसपी को कानूनी जामा पहनाना अच्छा नहीं रहेगा। इससे सही मूल्य निकालने में दिक्कत आ सकती है और आगे चलकर उत्पादन और भी बिगड़ सकता है। इसके अलावा यह कृषि आय को सुरक्षित रखने का कारगर उपाय भी नहीं है।
राष्ट्रीय कृषि अर्थशास्त्र और नीति अनुसंधान संस्थान का हाल में आया एक अध्ययन कहता है कि एमएसपी के लाभ कम किसानों तक ही पहुंच पाते हैं। अध्ययन में पता चला कि 15 फीसदी धान किसान और 9.6 फीसदी गेहूं किसान ही सरकारी खरीद प्रक्रिया में शामिल हैं और वे भी बड़े किसान हैं। छोटे और सीमांत किसान देश का 53.6 फीसदी धान और 45 फीसदी गेहूं उगाते हैं मगर सरकारी खरीद में उनकी ज्यादा हिस्सेदारी नहीं है। एमएसपी पर सरकारी खरीद में हिस्सेदारी और खेतों के आकार में सीधा संबंध इसलिए है क्योंकि छोटे और सीमांत किसानों को सरकारी खरीद व्यवस्था के बारे में बहुत कम जानकारी है। इसके अलावा अक्सर कम उत्पादन भी उनके हाथ बांध देता है।
एमएसपी से होने वाली दूसरी दिक्कतें हैं खजाने से भारी रकम निकल जामा, बहुत पानी खर्च कराने वाली फसलों का जरूरत से ज्यादा उत्पादन और भंडारण की नाकाफी व्यवस्था। कृषि आय सुधारने के लिए जरूरी है कि बाजार अच्छी तरह काम करें। इसमें बुनियादी ढांचे में निवेश और किफायती मूल्य श्रृंखला तैयार करना शामलि है ताकि खेत से निकली फसल के थाली तक पहुंचने में कीमत बहुत अधिक न बढ़े।
कीमतों में उतार-चढ़ाव हमेशा किसानों के लिए जोखिम से भरा होता है और उन्हें इससे बचाने के लिए उस अध्ययन में भावांतर चुकाने की बात है। इसके तहत किसानों को बाजार में एमएसपी से जितनी कम कीमत मिलती है उस अंतर की भरपाई कर दी जाती है। इसका लक्ष्य एमएसपी नीति को खरीद से हटाकर आय का साधन बनाना है मगर इसका क्रियान्वयन भी दिक्कतों से भरा है। अतीत में मध्य प्रदेश भावांतर भुगतान योजना आजमा चुका है, लेकिन एक सीजन के बाद ही उसने इससे तौबा कर लिया।
कृषि अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी का कहना है कि इस नीति से बाजार भाव और भी नीचे जा सकते हैं क्योंकि किसान तथा व्यापारी सांठगांठ कर बाजार मूल्य को एमएसपी से बहुत कम कर देंगे। इस तरह उन्हें अधिक भावांतर मिल जाएगा मगर सरकारी खजाने पर बोझ बढ़ सकता है।
जाहिर है कि इन सवालों के जवाब आसान नहीं हैं। फिर भी भारत को निजी खरीद प्रोत्साहित करने, फसलों में विविधता लाने और कृषि शोध बढ़ाने की जरूरत है। कृषि जिंसों के क्षेत्र में डेरिवेटिव्स बाजार भी भागीदारों को बाजार की अनिश्चितता और कीमतों के जोखिम से बचाते हैं। भारत को मुक्त बाजार और मजबूत कृषि मूल्य श्रृंखला चाहिए, जहां उपभोक्ताओं की जेब से जा रही रकम का बड़ा हिस्सा किसानों को ही मिले।
विशेषज्ञों ने कहा भी है कि इस क्षेत्र में वृद्धि मोटे तौर पर एमएसपी के दायरे से बाहर वाले उत्पादों से हो रही है। जरूरत यह है कि इन सफलताओं से सीखते हुए उत्पादन में मांग के मुताबिक बदलाव लाया जाए। मूल्य समर्थन और भावांतर भुगतान के जरिये सरकारें एक हद तक ही हस्तक्षेप कर सकती हैं मगर इस क्षेत्र को स्थायी मदद नहीं पहुंचाई जा सकती। कृषि बाजारों को व्यापार के लिए खोलने के बढ़ते दबाव के बीच सरकार समेत सभी अंशधारकों को प्रतिस्पर्द्धा बढ़ाने के रास्ते तलाशने होंगे।