किसान प्रतिनिधियों ने गेहूं और चावल से इतर पांच फसलों के बाजारयोग्य अधिशेष को अगले पांच वर्ष तक न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर खरीदने के सरकार के प्रस्ताव को नकारकर एक अवसर गंवा दिया है। वे इसे स्वीकार करके प्रदर्शनकारियों की अतिवादी मांगों एवं केंद्र सरकार की राजकोषीय क्षमताओं के बीच एक मध्य मार्ग निकाल सकते थे।
सरकार ने यह पेशकश की थी कि अगर किसान गेहूं और चावल के बजाय मसूर, उड़द, अरहर, मक्के और कपास की खेती करते हैं तो वह अगले पांच साल तक इन फसलों को घोषित एमएसपी पर खरीदने पर विचार करेगी। इस योजना के तहत की जाने वाली खरीद खुली प्रकृति की होगी और इस पर मात्रा की कोई सीमा नहीं लागू की जाएगी। यह खरीद नैशनल एग्रीकल्चरल कोऑपरेटिव मार्केटिंग फेडरेशन ऑफ इंडिया (नेफेड) तथा भारतीय कपास निगम (सीसीआई) के जरिये अनुबंधित समझौतों के तहत की जाएगी।
पंजाब और हरियाणा राज्य किसान आंदोलन के मूल में हैं और यह योजना इन राज्यों के किसानों की वाजिब मांग पूरी करने के अलावा कुछ हद तक एक आसन्न संकट को भी दूर करने की दिशा में मददगार होती। वह संकट है उत्तर भारत में धान की ज्यादा खेती की, जिसकी वजह से जल स्तर प्रभावित हो रहा है और उर्वरकों का भारी इस्तेमाल मिट्टी को खराब कर रहा है। इसके साथ ही इससे फसलों में विविधता लाते हुए उन फसलों की खेती की जा सकती थी जिनमें कम पानी और उर्वरकों की आवश्यकता होती है।
ऐसा करके स्वस्थ भोजन को बढ़ावा दिया जा सकता था। यह योजना दालों और चने की घरेलू आपूर्ति में कमी की समस्या को भी दूर करने में मददगार साबित होती। इससे जैव ईंधन और पालतू पशुओं के चारे की समस्या भी दूर होती। यह योजना कमियों से मुक्त नहीं है लेकिन इसने कई समस्याओं का एक हल जरूर सुझाया है।
वर्ष 2020-21 में किसान आंदोलन का नेतृत्व करने वालों के एक धड़े ने इस पेशकश को दो कारणों से नकार दिया। पहली वजह 23 फसलों की सांविधिक एमएसपी गारंटी की उनकी मांग से जुड़ी है। नेताओं ने कुछ विशेषज्ञों के हवाले से यह भी कहा कि सभी 23 फसलों की एमएसपी से सरकारी खजाने पर 1.75 लाख करोड़ रुपये का बोझ आएगा। उन्होंने कहा कि सरकार मलेशिया और इंडोनेशिया से पाम ऑयल के आयात पर पहले ही इतनी धनराशि व्यय कर रही है जबकि वह पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य दोनों के लिए नुकसानदेह है। उन्होंने कहा कि सरकार इतनी राशि तिलहन की एमएसपी पर खर्च कर सकती है और आयात बिल कम कर सकती है।
इस तर्क में दम है लेकिन सभी 23 फसलों के लिए जो आंकड़ा बताया गया है वह हकीकत से काफी कम है। सरकार और स्वतंत्र अनुमान बताते हैं कि वर्ष 2024-25 में सभी 23 फसलों को खरीदने पर करीब 10 से 15 लाख करोड़ रुपये व्यय करने पड़ेंगे। हालांकि सरकार 23 फसलों के लिए एमएसपी घोषित करती है लेकिन उसकी खरीद मोटे तौर पर गेहूं और चावल तक सीमित है। ये दोनों अनाज खाद्यान्न भंडार तैयार करने के लिए जरूरी हैं। वर्ष 2022-23 में सरकार ने अकेले खाद्यान्न खरीद पर ही 2.28 लाख करोड़ रुपये की राशि व्यय की थी।
उस लिहाज से देखा जाए तो किसानों का यह कहना सही प्रतीत होता है कि योजना में गेहूं और चावल की खेती छोड़कर इन फसलों को उगाने वालों भर को शामिल करने से उन लोगों के लिए बाजार खराब होगा जो पहले से ये पांच फसलें उगाते हैं। तथ्य यह है कि यह उन एजेंसियों के अधीन होगा जिनके पास बड़े पैमाने पर सरकारी खरीद का अनुभव नहीं है। यह बात भी भरोसा कम करने वाली है।
गतिरोध दूर करने के लिए प्रतिष्ठित कृषि अर्थशास्त्री मूल्य अंतर भुगतान (किसानों को एमएसपी और बाजार मूल्य के अंतर का भुगतान) और भंडार सीमा तथा मनमाने निर्यात प्रतिबंधों को शिथिल करने के सुझाव दे रहे हैं। परंतु इस नवीनतम इनकार से संकेत मिलता है कि स्थायी हल बहुत दूर हैं।