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Editorial: अस्वास्थ्यकर संकेत

द लांसेट ने भारत को लेकर जो निष्कर्ष पेश किए हैं वे जन स्वास्थ्य प्रशासकों के लिए चिंता पैदा करने वाले हैं।

Last Updated- September 28, 2023 | 10:40 PM IST
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संसद में महिला आरक्षण विधेयक पारित होने के बमुश्किल एक सप्ताह बाद शोध पत्रिका द लांसेट ने एक अध्ययन प्रकाशित किया है जो कैंसर के इलाज में महिला-पुरुष भेदभाव को रेखांकित करता है। ‘महिलाएं, सत्ता और कैंसर’ शीर्षक वाले इस अध्ययन में दुनिया के 185 देशों में महिलाओं और कैंसर को लेकर अध्ययन किया गया और पाया गया कि समाज के सत्ता समीकरणों और कैंसर की पहचान और इलाज तक महिलाओं की पहुंच के बीच सीधा संबंध है। दुनिया के अधिकांश देशों में कैंसर की बीमारी समयपूर्व मृत्यु की शीर्ष तीन वजहों में शुमार है।

द लांसेट ने भारत को लेकर जो निष्कर्ष पेश किए हैं वे जन स्वास्थ्य प्रशासकों के लिए चिंता पैदा करने वाले हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि भारतीय महिलाओं में कैंसर के कारण होने वाली मौत के करीब 63 फीसदी मामलों को समय पर जांच- पड़ताल करके रोका जा सकता था जबकि 37 फीसदी मामलों में समय पर उपचार मुहैया कराके रोका जा सकता था। इन आंकड़ों की विडंबना यह है कि भले ही पुरुषों को कैंसर होने का खतरा अधिक हो लेकिन इस बीमारी की शिकार और इससे मरने वालों में महिलाओं की संख्या अधिक है।

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भारतीय महिलाओं के बड़ी संख्या में कैंसर का शिकार होने के प्रमाण परेशान करने वाले हैं। बहरहाल, यह बहुत चौंकाने वाला नहीं लगता। स्वास्थ्य सेवाओं तक औसत भारतीयों की पहुंच कमजोर है। कोविड महामारी के सबसे बुरे दौर में हम सबका सामना इस सच्चाई से हुआ। इनमें भी महिलाओं की स्थिति तो और भी अधिक बुरी है। खासतौर पर समाज के कमजोर तबकों में उनकी स्थिति अधिक बुरी है।

चिकित्सा पेशे से जुड़े लोग बताते हैं कि वास्तव में समस्या कई स्तरों पर है। पहली समस्या है कैंसर और उसके कारणों के बारे में पर्याप्त जानकारी का अभाव। महिलाओं में स्तन कैंसर, गर्भाशय के कैंसर, अंडाशय के कैंसर और सर्विकल कैंसर की आशंका अधिक होती है। उनके सामने खतरा इसलिए भी बड़ा होता है कि निर्णय प्रक्रिया में उनकी भागीदारी नहीं होती है और उनके पास इतनी वित्तीय शक्तियां नहीं होतीं कि वे नियमित जांच के लिए जा सकें और संभावित बीमारी का समय रहते पता लगा सकें।

एक दिक्कत यह भी है कि अक्सर वे पुरुष चिकित्सक से जांच कराने की इच्छुक नहीं होतीं। यह बताता है कि योग्य महिला चिकित्सकों की कितनी अधिक आवश्यकता है। कुल एलोपैथिक चिकित्सकों में से केवल 17 फीसदी महिलाएं हैं और उनमें भी केवल 6 फीसदी ग्रामीण इलाकों में काम करती हैं। एक और समस्या जांच या उपचार के लिए बड़े शहरों या कस्बों में जाने की है।

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घरेलू काम के बोझ में दबी ग्रामीण महिलाओं के लिए यह लगभग असंभव है। 2019 में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स), भारतीय सांख्यिकी संस्थान, प्रधानमंत्री आर्थिक सलाहकार परिषद और हार्वर्ड विश्वविद्यालय के संयुक्त अध्ययन में पता चला था कि जनवरी से दिसंबर 2016 के बीच एम्स आने वाले 23 लाख मरीजों में से केवल 37 फीसदी महिलाओं की पहुंच स्वास्थ्य सुविधाओं तक थी। पुरुषों में यह आंकड़ा 67 फीसदी था।

शिक्षा की तरह ही कैंसर सहित महिलाओं के स्वास्थ्य के मामले में ज्यादा निर्भरता सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं पर ही है। हालांकि केंद्र सरकार ने राज्य स्तर पर महिलाओं के लिए कई स्वास्थ्य योजनाएं शुरू की हैं लेकिन उनमें से अधिकांश गर्भवती महिलाओं और नवजात शिशुओं की मांओं के लिए हैं। महिला स्वास्थ्य के अन्य पहलुओं मसलन जागरूकता कार्यक्रम, कैंसर की नियमित जांच आदि की मोटे तौर पर अनदेखी की जाती है।

इसके बावजूद बड़े पैमाने पर आयुष्मान भारत जैसी सब्सिडी आधारित चिकित्सा बीमा योजना समाधान की ओर संकेत करती है। यह देखते हुए कि इस योजना के तहत कैंसर उन शीर्ष बीमारियों में शामिल है जिनकी देखभाल उपचार इसमें शामिल है। जिन 50 करोड़ लोगों की पहुंच आयुष्मान भारत योजना में है उनमें से 49 फीसदी महिलाएं हैं। यह बताता है कि कैसे स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में महिलाओं को सशक्त बनाने से ऐसे ठोस लाभ मिल सकते हैं जो शायद संसदीय आरक्षण से न मिलें।

First Published - September 28, 2023 | 10:40 PM IST

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