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अतार्किक विकल्प: आंकड़ों के जाल में उलझी आर्थिक वृद्धि

कहा जा रहा है कि देश में संपन्नता बढ़ती जा रही है और इसी का नतीजा है कि 5 लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने का सपना सच होता दिख रहा है।

Last Updated- September 27, 2023 | 9:18 PM IST

Indian Economy: भारतीय अर्थव्यवस्था को लेकर वृहद स्तर पर दो दृष्टिकोण हो सकते हैं। पहला यह कि देश 5 लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने की ओर तेजी से अग्रसर है। इस नजरिये को आकर्षक आर्थिक आंकड़ों से वजन दिया जा रहा है।

कहा जा रहा है कि देश में संपन्नता बढ़ती जा रही है और इसी का नतीजा है कि 5 लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने का सपना सच होता दिख रहा है। दूसरा दृष्टिकोण इस उत्साह को शक के चश्मे से देखता है और भिन्न आर्थिक आंकड़ों का हवाला देता है। दोनों नजरियों को वजन देने के लिए आर्थिक आंकड़े मौजूद हैं। आंकड़ों का झुंड उलझन की स्थिति पैदा करता है और यह मालूम करना कठिन हो जाता है कि आखिर अर्थव्यवस्था किस दिशा में जा रही है।

सबसे पहले सकल घरेलू उत्पाद (GDR) पर विचार करते हैं। जीडीपी वृद्धि दर को सबसे महत्त्वपूर्ण आंकड़ा माना जाता है क्योंकि यह अर्थव्यवस्था की संपूर्ण सेहत का हाल बताता है। इस वर्ष के पहले तीन महीनों के दौरान जीडीपी में नॉमिनल वृद्धि केवल 8 प्रतिशत रही थी जबकि वास्तविक जीडीपी वृद्धि दर 7.8 प्रतिशत थी। इसका आशय यह निकाला जा सकता है कि मुद्रास्फीति केवल 0.2 प्रतिशत थी।

कोई भी यह बता सकता है कि ये आंकड़े सही तस्वीर प्रस्तुत नहीं कर रहे हैं क्योंकि मुद्रास्फीति इससे अधिक है। मगर सरकार के पास इसका जवाब तैयार है। वास्तविक जीडीपी (महंगाई दर समायोजित) की गणना नॉमिनल जीडीपी (महंगाई शामिल) में ‘जीडीपी डिफ्लेटर’ शामिल कर की जाती है।

भारत में ‘जीडीपी डिफ्लेटर’ पर थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यूपीआई) हावी रहता है। चूंकि, डब्ल्यूपीआई में कमी आई है, इसलिए ‘जीडीपी डिफ्लेटर’ काफी कम यानी 0.2 प्रतिशत रह जाता है जिससे वास्तविक जीडीपी अधिक हो जाता है। यह विधि कई लोगों को खटकी है और भारत में जीडीपी की गणना और ‘जीडीपी डिफ्लेटर’ के रूप में डब्ल्यूपीआई के इस्तेमाल की वैधता दोनों पर ही सवाल खड़े होते हैं।

प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी में अंतरराष्ट्रीय आर्थिक नीति पढ़ाने वाले अतिथि प्राध्यापक अशोक मोदी का कहना है कि भारत जीडीपी की गणना के लिए आय या उत्पादन विधि का इस्तेमाल करता है, जबकि अमेरिका में व्यय विधि पर विचार होता है। जर्मनी, ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया में दोनों ही विधियां प्रयोग में लाई जाती हैं।

मोदी ने प्रोजेक्ट सिंडिकेट में लिखा है, ‘सिद्धांत रूप में व्यय अर्जित आय के बराबर होना चाहिए क्योंकि उत्पादक तभी आय अर्जित कर सकते हैं जब दूसरे लोग उनके उत्पाद खरीदेंगे। अप्रैल-जून में उत्पादन से आय में सालाना आधार पर 7.8 प्रतिशत इजाफा हुआ है मगर व्यय मात्र 1.4 प्रतिशत बढ़ा है।‘

यह अंतर काफी बड़ा है जिस पर ध्यान रखना चाहिए। सरकार का दावा है कि चूंकि, वह लगातार (आय आंकड़े) यह विधि गणना के लिए इस्तेमाल करती आई है इसलिए किसी तरह का प्रश्न नहीं उठना चाहिए। मोदी का कहना है कि अगर हम यूएस ब्यूरो ऑफ इकनॉमिक अफेयर्स की विधि का इस्तेमाल भारतीय आंकड़ों के संदर्भ में करें तो ताजा वृद्धि दर 7.8 प्रतिशत से कम होकर 4.5 प्रतिशत रह जाती है।

मुद्रास्फीति

अब प्रश्न यह उठता है कि मुद्रास्फीति या ‘जीडीपी डिफ्लेटर’ क्या कहानी है? इस समाचार पत्र के लिए एक स्तंभ में अरविंद सुब्रमण्यन और जोश फेलमैन भी 7.8 प्रतिशत आर्थिक विकास दर को लेकर सशंकित हैं। हां, उनके लिए कारण अलग है। वे 0.2 प्रतिशत ‘जीडीपी डिफ्लेटर’ को शंका की नजर से देखते हैं। उनका कहना है कि उन्हें यह बात हजम नहीं हो रही है कि मुद्रास्फीति का आकलन सटीक रूप में हो रहा है।

वे कहते हैं, ‘जीडीपी डिफ्लेटर कोई ठोस आंकड़ा नहीं माना जा सकता। उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) की तरह इसकी गणना प्रत्यक्ष तरीके से नहीं होती है। वास्तव में यह एक ऐसी विधि से निर्धारित होता है जिसके साथ कई त्रुटियां मौजूद हैं।’ दोनों लेखक ऐसी कई त्रुटियों का जिक्र करते हैं जो ‘जीडीपी डिफ्लेटर’ की गणना में दिखती हैं। वे तर्क देते हैं कि ‘जीडीपी डिफ्लेटर’ सीपीआई की तरह नहीं हो सकता मगर ‘दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में दोनों उपायों में अंतर मामूली रहा है।’

अगर जीडीपी मुद्रास्फीति कुछ ऐसी चीज पर आधारित है जो सीपीआई से गहरा संबंध रखता है तो उस स्थिति में भारत ने शुरुआती तिमाहियों में काफी ऊंची वृद्धि दर दर्ज की मगर अंतिम तिमाही में केवल 3 प्रतिशत वृद्धि हुई है (यह मानते हुए कि सीपीआई 5 प्रतिशत है)। हो सकता है कि आंकड़ों में जो दिख रहा है उसकी तुलना में भारत की अर्थव्यवस्था तेजी से विकास कर रही है। या यह भी हो सकता है कि अर्थव्यवस्था का प्रदर्शन आंकड़ों की तुलना में काफी पिछड़ा हुआ है। वास्तविकता क्या है फिलहाल हम यह नहीं जानते हैं। संकलित आंकड़ों की गुणवत्ता भी अधिक नहीं होती है। वित्त मंत्रालय स्वयं आंकड़े एकत्र करने के लिए परंपरागत विधि के इस्तेमाल से जुड़ी परेशानियों का जिक्र कर चुका है।

कुछ दिनों पहले मंत्रालय ने एक्स पर लिखा, ‘अगर कोई बात खलती है तो यह कि भारत के आर्थिक विकास से जुड़े आंकड़े वास्तविकता को सही ढंग से पेश नहीं कर रहे हैं क्योंकि औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (आईआईपी) से दर्शाए गए आंकड़े विनिर्माण कंपनियों द्वारा दिए जा रहे आंकड़ों से काफी कम हैं।’

अन्य आंकड़े

भारत के आर्थिक विकास की बेहतर तस्वीर पाने के लिए हमें कई सारे आंकड़ों पर विचार करना होगा। इनमें कुछ प्रत्यक्ष कर राजस्व, ई-वे बिल, जीएसटी संग्रह, रेल यातायात और बाह्य व्यापार जैसे आंकड़े भी हैं, जो काफी विश्वसनीय हो सकते हैं। 22 सितंबर को सरकार ने मासिक आर्थिक समीक्षा जारी की है। साल के पहले पांच महीनों के आंकड़े बहुत उत्साहजनक तस्वीर पेश नहीं कर पा रहे हैं।

हां, अच्छी बात यह है कि जीएसटी संग्रह में 11 प्रतिशत इजाफा हुआ और ई-वे बिल के आंकड़े 16.7 प्रतिशत अधिक रहे। इसके अलावा सीमेंट एवं इस्पात का उत्पादन मजबूत रहा और बैंकों के ऋण आवंटन में 19.7 प्रतिशत तेजी आई।

मगर सकल कर राजस्व महज 2.8 प्रतिशत (अप्रैल-जुलाई) बढ़ा और औद्योगिक उत्पादन सूचकांक में भी मात्र 4.8 प्रतिशत (अप्रैल-जुलाई) तेजी दर्ज की गई। बिजली उपभोग 5 प्रतिशत बढ़ा, जबकि रेल यातायात में भी मात्र 2.2 प्रतिशत का इजाफा हुआ। इससे भी महत्त्वपूर्ण बात यह रही कि कुल निर्यात 5.21 प्रतिशत कम रहा और आयात भी 10.35 प्रतिशत कम रहा। वस्तुओं का निर्यात 11.8 प्रतिशत कम रहा जो भारत की कमजोर प्रतिस्पर्द्धी क्षमता को उजागर करता है। वर्ष 2011 से 2020 के बीच भारतीय अर्थव्यवस्था लगभग ठहर सी गई थी।

कोविड महामारी के बाद इसने तेज रफ्तार पकड़ी मगर अब फिर यह सुस्त हो गई है। पिछली कुछ तिमाहियों में सरकार की तरफ से किए गए पूंजीगत व्यय भारत के आर्थिक विकास को गति देने का प्रयास कर रहे हैं।

सरकार ने रक्षा, रेलवे, शहरी परिवहन, माल वहन और अन्य आधारभूत ढांचा परियोजनाओं में पूंजीगत व्यय किए हैं। मगर केवल सरकार की तरफ से पूंजीगत व्यय बढ़ाकर आर्थिक विकास को मजबूती प्रदान नहीं की जा सकती। इस रणनीति के साथ कर संग्रह भी बढ़ाना होगा मगर कर संग्रह में तेजी भी तभी संभव है जब आर्थिक गति तेज रहेगी।

मौजूदा आंकड़ों के आधार पर ऊंची आर्थिक वृद्धि दर तो संभव नहीं लग रही है। ध्यान रहे कि कम कर राजस्व के कारण इस साल के पहले पांच महीनों में राजकोषीय घाटा एवं राजस्व घाटा बढ़ गए हैं।

First Published - September 27, 2023 | 9:18 PM IST

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