पिछले दो दशकों में बेहतर सड़कों और हवाई संपर्क में सुधार के साथ-साथ मध्यम वर्ग की संपन्नता बढ़ने से भारत के घरेलू पर्यटन क्षेत्र में पूरी तरह से बदलाव दिख रहा है। अब कई स्मारकों और पर्यटन स्थलों पर विदेशी पर्यटकों से ज्यादा घरेलू पर्यटक देखे जा रहे हैं। वैसे यह रुझान कोरोना से पहले से ही साफ तौर पर दिखाई दे रहा था।
हालांकि यह देखकर अफसोस होता है कि संरक्षण और विकास के बीच न सुलझने वाले तनावों के कारण हमारे लोकप्रिय पर्यटन स्थलों की हालत तेजी से बिगड़ रही है। यह एक उद्योग की सबसे अहम पूंजीगत संपत्ति को नुकसान पहुंचाने के बराबर है, जिसकी भरपाई नहीं की जा सकती है।
संरक्षण और विकास की विडंबना यह है कि ऐसे प्रयासों में अक्सर बहुत कुछ खोना पड़ता है। हाल में उत्तराखंड की राजधानी देहरादून में दो दिन के वैश्विक निवेशक सम्मेलन का आयोजन किया गया, जो प्रतिस्पर्धी संघवाद का नया चलन है। इस आयोजन के कारण देहरादून पूरी तरह ठप पड़ गया। हालांकि बाद में राज्य ने गर्व से घोषणा की कि इसके 2 लाख करोड़ रुपये के लक्ष्य से कहीं अधिक लगभग 3.5 लाख करोड़ रुपये के निवेश प्रस्ताव मिले हैं।
राज्यों द्वारा आयोजित ऐसे वैश्विक निवेशक सम्मेलन के बाद अरबों-खरबों के आंकड़े गिनाना कोई बड़ी बात नहीं है। इसके अलावा कारोबारी भी (जिनमें से कुछ ही वास्तव में वैश्विक स्तर के होते हैं) बड़े-बड़े वादे करने के लिए दबाव में आ जाते हैं, जिन्हें वास्तव में पूरा करने का उनका कोई इरादा नहीं होता, लेकिन यह सम्मेलन इस मायने में चिंताजनक रहा।
क्योंकि, इस आयोजन के आखिरी दिन गृहमंत्री अमित शाह ने अपने भाषण में कहा कि उत्तराखंड ‘पर्यावरण की हिफाजत करते हुए इसके अनुकूल तरीके से उद्योगों से जुड़ने’ के लिए बेहतर राज्य है। उत्तराखंड किस तरह उद्योगों से जुड़ने के साथ ही पर्यावरण की रक्षा कर पाएगा, यह देखना होगा।
इस राज्य में आने वाले किसी पर्यटक को पहली नजर में पर्यावरण-अनुकूल चीजें नहीं दिखती हैं। उत्तराखंड का 86 फीसदी क्षेत्र दुनिया के सबसे नाजुक और भूकंप के खतरे वाले पहाड़ी क्षेत्र में है। इसके अलावा इसका 65 फीसदी क्षेत्र जंगल से घिरा है। करीब 24 साल पहले जब उत्तराखंड बना था तब प्राकृतिक सुंदरता उसे विरासत में मिली थी और पर्वतों के अप्रतिम प्राकृतिक दृश्यों के बीच मौजूद बेहद प्राचीन मंदिर इस राज्य की शान थे, लेकिन अब इन्हीं नाजुक पहाड़ों पर बांधों का भार है जिनकी संख्या 14 हो चुकी है।
इस क्षेत्र में ही मुख्य तौर पर औद्योगिक निवेश किए जा रहे हैं। ये बांध बिजली पैदा करने के मकसद से बनाए जा रहे हैं, लेकिन ये इंसानों की जिंदगी के लिए भी खतरा बन रहे हैं। हाल ही में राज्य में दुबई की शैली वाले घर, मॉल और होटलों का अंधाधुंध निर्माण होता दिखा, जो इन क्षेत्रों के पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने के साथ ही पहाड़ों की नैसर्गिक सुंदरता को भी फीका कर रहे हैं।
उत्तराखंड की क्षमता का दोहन करने में सबसे बड़ी बाधा राज्य की राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा और धार्मिक राष्ट्रवाद का मिला-जुला रूप है, जो कम से कम राज्य के निवासियों के हित में नहीं है। बेहतर सड़क, रेल और हवाई नेटवर्क के कारण चार धाम की यात्रा अब आसान हो गई है, जिससे यहां बड़ी संख्या में तीर्थयात्री आ रहे हैं। इन चार धार्मिक स्थलों पर काफी भीड़ इकट्ठा हो रही है और स्थानीय निकायों के पास न तो इतने जनबल है और न ही इतने संसाधन हैं कि वे इस भारी भीड़ और कचरे का प्रबंधन कर सकें।
पर्यटकों की तादाद बढ़ने के साथ ही घटिया और कमजोर संरचना वाले होटलों और लॉज का जाल बिछ गया है। इन्हें बनाने में निर्माण और पर्यावरण मानकों का पालन शायद ही किया जाता है। प्राचीन मंदिरों के एक प्रमुख नगर जोशीमठ की जमीन तेजी से धंस रही है और नैनीताल तथा उत्तरकाशी में भी खतरा मंडरा रहा है, लेकिन सिलक्यारा सुरंग का हादसा भी सबकी आंख खोलने के लिए काफी नहीं रहा और सरकार की महत्त्वाकांक्षी, चार धाम सड़क-रेल परियोजना का जोश भी कम होता नहीं दिख रहा है।
यहां जंगलों के विशाल हिस्से काटे जा रहे हैं और अस्थिर पहाड़ों में सड़कें और सुरंगें बनाने के लिए विस्फोट किए जा रहे हैं। इन गतिविधियों के साथ-साथ तेजी से हो रहे जलवायु परिवर्तन के कारण हिमनदों के पिघलने से पूरी परिस्थितियां बेहद खतरनाक हो गई हैं। इन सबका नतीजा पहले से ही दिख रहा है और हिमालय के ऊपरी हिस्से में हजारों श्रमिकों और पर्यटकों की जान तक जा चुकी है। निश्चित रूप से अंधाधुंध विकास से लोगों का भला नहीं हो सकता है और इसका नतीजा सिर्फ पहाड़ नहीं, यहां से हजारों किलोमीटर दूर रेगिस्तान भी भुगत रहे हैं।
राजस्थान के रेगिस्तान में सुनहरे बलुआ पत्थर से बना और सदियों का गवाह रहा जैसलमेर का प्राचीन किला अब अपने ही लोगों के कारण जर्जर हो रहा है। इसे मशहूर फिल्मकार सत्यजीत रे ने ‘सोनार केला’ के रूप में प्रसिद्धि दी। 12वीं सदी का यह किला राज्य का दूसरा सबसे पुराना किला है और यह उन चुनिंदा बचे हुए किलों में से एक है, जिनका उपयोग हो रहा है और जहां लोग रहते हैं।
इस किले के इतिहास की छाया में पले-बढ़े और किस्मत के धनी माने जाने वाले यहां के करीब 3,000 से अधिक निवासी इस सीमावर्ती शहर में पर्यटन के जरिये कारोबारी मौके भुनाने के चक्कर में अपने ही आशियाने को होटल, रेस्तरां और दुकानों में तब्दील कर रहे हैं। इसके साथ-साथ वे निर्माण और जल निकासी प्रणाली में भी सामान्य तरीकों का इस्तेमाल कर रहे हैं।
खराब जल निकासी के चलते बलुआ पत्थर पर पानी के रिसाव का असर पड़ रहा है और इस किले की बाहरी दीवार को देखें तो लगभग आधे से अधिक ऊंचाई तक पानी की नमी के निशान साफ नजर आते हैं। ऐसे में इसका ढहना लगभग तय है, लेकिन न तो केंद्र सरकार ने और न ही स्थानीय या राज्य प्राधिकरणों ने आजीविका और विकास से जुड़े संभावित संकट के समाधान पर कोई सक्रियता दिखाई है।
किले को बचाने के उपाय के तहत किले के अंदर होटल और अन्य प्रतिष्ठानों पर प्रतिबंध लगाना अहम होगा, मगर कोई भी सरकार यहां के निवासियों की राजनीतिक प्रतिक्रिया का सामना कर ऐसे जोखिम नहीं लेना चाहेगी। कुछ जागरूक पर्यटन गाइडों ने इस बाबत अपील भी की थी, लेकिन इसके जवाब में उन्हें सिर्फ धमकियां मिली हैं।
मध्य प्रदेश के दक्षिण में भोपाल के बेतरतीब शहरीकरण से होने वाला प्रदूषण भीमबेटका की अनूठी तरह से चित्रित पत्थरों वाली गुफाओं को नष्ट कर रहा है। जिम्मेदार नागरिकों की अपील के बावजूद अधिकारी इस दुर्लभ पुरातात्विक धरोहर को विकास की विभीषिका से बचाने के लिए इच्छुक नहीं दिखते हैं।
उत्तराखंड, जैसलमेर और इतिहास के साक्षी रहे भीमबेटका की मौजूदा स्थिति यह दर्शाती है कि कैसे अंधाधुंध विकास के नाम पर हम अपने पर्यटन के अनमोल खजाने को ही बरबाद कर रहे हैं। विडंबना यह है कि विकास की इस पूरी प्रक्रिया में जब देश जानबूझकर अपनी वहीं चीज खो रहा है, जो सबके लिए आकर्षण का केंद्र है तब इसका सबसे ज्यादा नुकसान स्थानीय लोगों को होता है।