Lucknow Chikankari: समय से पहले ही चढ़ चुके पारे ने लखनऊ के चिकन कारोबार में गर्मी भर दी है। फरवरी के महीने से ही सिकुड़ते जाड़े और बढ़ती गर्मी तथा इसी बीच होली व ईद के त्योहार ने लखनवी चिकन की मांग को देश-विदेश में आसमान पर पहुंचा दिया है। मांग बढ़ने का आलम यह है कि कभी लखनऊ तक सीमित चिकनकारी का काम अब आस-पड़ोस के जिलों में किया जाने लगा है।
रमजान के महीने में जिस कदर खाड़ी देशों से ऑर्डर आए हैं उसके चलते कारोबारियों को इस बार निर्यात में 35 से 40 फीसदी तक इजाफे की उम्मीद है। लखनऊ चिकन के कद्रदान इस बार ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया सहित कई यूरोपीय देशों में भी मिल रहे हैं और वहां से भी ऑर्डर मिल रहे हैं। बीते साल जहां लखनऊ से 260 करोड़ रूपये के चिकन कपड़ों का निर्यात हुआ था वहीं इस बार इसके 400 करोड़ के पार जाने की उम्मीद है।
देसी बाजारों में पारे के चढ़ने के साथ ही चिकन के कपड़ों के ऑर्डर भी बढ़ते जा रहे हैं। कारोबारी बताते हैं कि इस बार पहले से ही जाड़े के दिनों में कमी और बेतहाशा गर्मी पड़ने के अनुमान के चलते जनवरी से ही घरेलू बाजारों से ऑर्डर आने लगे थे। चिकन हैंडीक्राफ्ट एसोसिएशन के वीरेंद्र सिंह बताते हैं कि सबसे ज्यादा माल दिल्ली में मंगाया गया है और ऑर्डर की भरमार इस कदर होने लगी है कि कई फर्मों ने तो अपनी खुद की शाखाएं राष्ट्रीय राजधानी में खोल दी है। इसके अलावा बड़ी तादाद में ऑनलाइन प्लेटफार्मों पर मांग हो रही है। उनका कहना है कि 45 दिनों तक चले महाकुंभ में भी लखनऊ से चिकन के कपड़े बिकने गए और अच्छा कारोबार हुआ।
चिकन कारोबारी सुल्तान खान बताते हैं कि रमजान से काफी पहले फरवरी के महीनों से ही कारखानों में 24 घंटे काम चल रहा है फिर भी ऑर्डर पूरा कर पाना मुश्किल होता जा रहा है। उनका कहना है कि लखनऊ की सीमाओं के बाहर सीतापुर, हरदोई जैसे जिलों के गांवों में भी चिकनकारी का काम रफ्तार पकड़ रहा है।
चिकनकारी की मांग इस कदर बढ़ी है कि बीते दस सालों के भीतर ही इसका घरेलू टर्नओवर 500 करोड़ रुपये सालाना से बढ़कर 1000 करोड़ रुपये के पार निकल गया है। वहीं विदेश को होने वाला निर्यात तो पिछले पांच सालों में ही दोगुना हो गया है। कारोबारी अजय खन्ना बताते हैं कि इंटरनेट ने इसमें बड़ी भूमिका निभाई है। पहले जहां लखनऊ के कारोबारियों से माल खरीद कर दिल्ली-मुंबई की फर्में विदेश को भेजती थीं वहीं अब ज्यादातर विदेशी खरीदार खुद ही संपर्क साध रहे हैं। खन्ना बताते हैं कि खाड़ी देशों में तो हमेशा से लखनऊ का चिकन जाता रहा है पर बीते पांच सालों में इसे यूरोप व अमेरिका में भी बाजार मिल गया है। उनका कहना है कि इस बार कई अफ्रीकी देशों जैसे केन्या, इजिप्ट और द. अफ्रीका से भी ऑर्डर मिले हैं। ऑनलाइन प्लेटफार्मों पर हो रही बिक्री ने भी टर्नओवर बढ़ाने में बड़ी भूमिका निभाई है।
देश के जानेमाने फैशन डिजायनरों के बीच भी लखनऊ की चिकनकारी मशहूर हुई है। अबू जानी, तरुण तहिलियानी, संदीप खोसला से लेकर कई नए फैशन डिजायनर लखनवी चिकन के साथ प्रयोग कर रहे हैं। कारोबारी सुल्तान खान का कहना है कि हाल ही में बॉलीवुड हस्तियों रकुलप्रीत सिंह, नताशा पूनावाला और आथिया शेट्टी ने लखनऊ में बने चिकन के लंहगे, घाघरे व साड़ी पहन कर इसकी ओर सभी का ध्यान खींचा। उनका कहना है कि अब कई फिल्मों से लेकर सेलिब्रिटीज की शादियों व अन्य फंक्शनों के लिए चिकन के ड्रेसों के ऑर्डर आ रहे हैं। उनके मुताबिक चिकनकारी अब केवल कुर्ते या कमीज तक ही सीमित नहीं रही है बल्कि शाॅर्ट कुर्ते-कुर्ती, अद्धी, जैकेट, गाउन, लंहगा, घाघरा, साड़ी और शाल तक में की जाने लगी है।
लखनवी इतिहास के जानकारों का कहना है कि चिकनकारी की शुरुआत मुगल साम्राज्ञी नूरजहां के दौर में हुई थी। इसका नाम तुर्की शब्द चिक, जिसका मतलब जालीदार जिसमें रोशनी व हवा आ जा सके, से पड़ा। नूरजहां की किसी दासी के साथ यह कला मुगल दरबार से उठकर अवध में आई और बाद में यहां के नवाबों ने इस संरक्षण दिया। लखनऊ में चिकनकारी का इतिहास 200 साल से भी ज्यादा पुराना है। अवध की राजधानी फैजाबाद से उठकर लखनऊ आने के बाद यह तेजी से बढ़ी और पुराने शहर में इसके सैकड़ों कारखाने खुल गए। नवाबों के दौर में यह रईसों की पसंद का वस्त्र था जो बाद में कम कीमत व सहज उपलब्धता के चलते आम लोगों को भाने लगा।