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राष्ट्र की बात: अमर सिंह चमकीला, कनाडा और भविष्य के खतरे

चमकीला फिल्म में 1988 के दौरान पंजाब में फैले आतंकवाद का हल्का फुल्का जिक्र है लेकिन मोटे तौर पर इसमें उसे नजरअंदाज कर दिया गया है।

Last Updated- May 12, 2024 | 10:19 PM IST
Chamkila

अमर सिंह चमकीला (Amar singh Chamkila) की हत्या के कुछ सप्ताह पहले भी पंजाब में हर दूसरे दिन हत्याएं हो रही थीं, वह पूरा दौर आतंकी घटनाओं और हत्याओं का दौर था।

आम चुनाव की बढ़ती सरगर्मी के बीच भला किसी को एक ओटीटी फिल्म के बारे में क्यों बात करनी चाहिए? भले ही वह समालोचकों द्वारा सराही जा रही इम्तियाज अली की फिल्म अमर सिंह चमकीला (नेटफ्लिक्स पर प्रसारित) ही क्यों न हो?

फिल्म का कथानक 1988 के पंजाब का है जहां उस समय आतंकवादियों का दबदबा था। फिल्म की कहानी 8 मार्च, 1988 को अमर सिंह चमकीला की गोली मारकर हत्या किए जाने के साथ ही समाप्त होती है। चमकीला पंजाब के ग्रामीण इलाकों के एक लोकप्रिय सुपरस्टार थे।

हम यहां फिल्म समीक्षाएं नहीं लिखते हैं। हालांकि यह फिल्म हमें विवश करती है कि हम उस हकीकत से जुड़ें जिसे हम भुलाना चाहते हैं। जो लोग असहज करने वाली हकीकतों को भुलाना चाहते हैं उन्हें उसे दोबारा जीना पड़ता है। आगे बढ़ते हुए तीन बातें:

समकालीन इतिहास पर केंद्रित अन्य फिल्मों की तरह यह फिल्म भी बहुत अधिक और अनैतिक रूप से गलत है। यह पूरी तरह संदर्भ से कटी हुई है। इसमें 1988 में पंजाब में फैले आतंकवाद का हल्का फुल्का जिक्र है लेकिन मोटे तौर पर इसमें उसे नजरअंदाज कर दिया गया है।

मैं इस बात के संदर्भ को आगे के पैराग्राफ में खोलूंगा लेकिन यह हत्याकांड स्वर्ण मंदिर परिसर में ऑपरेशन ब्लैक थंडर के ठीक दो महीने पहले हुआ। उसके बाद ही आतंकवादी और कट्‌टरपंथी वापसी नहीं कर सके। 10 मई को ऑपरेशन की 36वीं बरसी थी।

तीसरी और सबसे अहम बात। कनाडा ने हाल ही में चार ‘भारतीय नागरिकों’ (सभी पंजाबी और शायद सिख) को हरदीप सिंह निज्जर की कथित हत्या के आरोप में गिरफ्तार किया है। पंजाब में दोबारा उसी आग को भड़काने और उसे झुलसाने के लिए ठोस और समर्थित प्रयास चल रहे हैं जो कनाडा में केंद्रित हैं लेकिन जिनका संबंध अन्य एंग्लो-अमेरिकी देशों से भी है।

इसे गत पखवाड़े उस समय और वैधता मिल गई जब कनाडा के प्रधानमंत्री और उसके नेता प्रतिपक्ष दोनों ने एक सिख धार्मिक आयोजन में शिरकत की जहां अलगाववादी और आपत्तिजनक नारे लगाए गए। वहां अनुचित तस्वीरें और पोस्टर भी प्रदर्शित किए गए।

स्पष्टता के लिए बता दें कि सन 1981 से 1993 में आतंकवाद के दौर में वहां के कुछ नेता कनाडा और ब्रिटेन चले गए थे लेकिन वहां उन्हें बहुत कम राजनीतिक समर्थन मिला और वे ज्यादातर पाकिस्तान चले गए। आज, अलगाववादी नेतृत्व केवल कनाडा में है और उसे वहां पूरा राजनीतिक समर्थन मिल रहा है।

दूसरा अंतर यह है कि 1980 के दशक के उलट ऐसे अभियान को पंजाब में कोई समर्थन नहीं मिल रहा है। यह अच्छी बात है। नकारात्मक बात यह है कि यह विदेशी अभियान कनाडा की घरेलू वोट बैंक राजनीति से गहराई से जुड़ गया है। वहां अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर घृणित गतिविधियों को प्रश्रय दिया जा रहा है।

कनाडा मानता है कि निज्जर की हत्या के आरोपी भारतीय ‘एजेंसियों’ के इशारे पर काम कर रहे थे। इसके साथ ही हमें यह भी जानकारी है कि उक्त आरोपी स्टूडेंट वीजा पर कनाडा गए थे और वे एक भी दिन स्कूल या कॉलेज नहीं गए। वे माफिया के आदमी हैं और उनका नाम तीन और हत्याओं में आया है जिनका ‘भारतीय एजेंसियों’ से कोई लेनादेना नहीं है।

कनाडा में हत्याएं और जवाबी कार्रवाई आम हो चुके हैं। भारत के कुछ कुख्यात हथियारबंद माफिया जिनके नेता जेल में हैं, वे भी कनाडा के इन समूहों के जरिये काम कर रहे हैं।

उदाहरण के लिए लॉरेंस बिश्नोई गुजरात की साबरमती जेल में कैद है। पंजाब माफिया, संगीत संस्कृति, नशे और बंदूक की तस्करी तथा अवैध आव्रजन आदि का मिश्रण खतरनाक है। इसका पोषण सुस्त (बल्कि मिली हुई) कनाडाई व्यवस्था कर रही है।

यह तो कनाडा के लोगों को पूछना चाहिए कि उनका देश भारतीय पंजाब से ऐसे बेरोजगार युवाओं को क्यों आने दे रहा है जो उनके देश में माफिया का काम कर रहे हैं। हम जानते हैं कि हमारे पंजाब में ‘कबूतरबाजी’ का रैकेट है यानी अवैध तरीके से लोगों को दूसरे देशों में पहुंचाने वाला गिरोह।

उन्हें वीजा किस तरह मिलता है? क्या जी7 और फाइव आइज के सदस्य देश की वीजा प्रणाली इतनी ढीली है कि इतने सारे ‘छात्र’ वहां पहुंचते रहते हैं? या फिर यह किसी खास दल के लिए वोटों की जरूरत की वजह से है? कनाडा भारत से माफिया आने दे रहा है। ज्यादातर तो वे आपस में लड़ते हैं। अब इसका असर भारत तक हो रहा है। गायक सिद्धू मूसेवाला की हत्या इसका उदाहरण है।

मूसेवाला की हत्या ने पूरे देश का ध्यान आकृष्ट किया क्योंकि वह राष्ट्रीय स्तर की सितारा हैसियत रखते थे। अमर सिंह चमकीला एक दलित थे जिनका असली नाम धनी राम था और जब उनकी हत्या हुई तो वह केवल 28 साल के थे। उनकी छवि एकदम स्थानीय थी। वह मेहनतकश वर्ग के थे, उनके गीत एकदम देसी थे और ज्यादातर लोग उन्हें जानते तक नहीं थे।

फिल्म से यह संकेत निकलता है कि उन्हें मारा गया क्योंकि ‘किसी को’ लगता था कि उनके बोल अश्लील थे, उसने उन्हें इससे दूरी बनाने को कहा और उन्होंने ऐसा नहीं किया क्योंकि उनके श्रोताओं को ‘वही’ पसंद था। यह बात का साधारणीकरण है। या फिर शायद फिल्मकार के लिए यह बात केवल इतनी ही थी। बात यहीं पर संदर्भ से कट जाती है।

परंतु मेरा मानना है कि अगर इतिहास के इतने अहम मोड़ पर केंद्रित फिल्म में संदर्भ को जानबूझकर या अपनी सुविधा से छोड़ दिया जाता है तो रचनात्मक स्वतंत्रता नहीं बल्कि आपराधिक कृत्य है। फिल्म यह नहीं बताती है कि आतंकियों ने चमकीला को मारा था। फिल्म में आतंकवाद शब्द तक नहीं आता है।

चमकीला के जो द्विअर्थी गीत थे, ग्रामीण पंजाब में उससे भी गंदे गीत तब भी गाए जाते थे और आज भी गाए जाते हैं। चमकीला की शोहरत ने उनके प्रतिद्वंद्वियों को बहुत परेशान किया था जो ज्यादातर ऊंची जाति के थे। क्या किसी ने भाड़े के हत्यारों से उसकी हत्या कराई? यह बात हमें आज भी नहीं पता।

बहरहाल, अगर उन्हें अश्लीलता के लिए मारा गया तो लोकप्रिय प्रगतिशील कवि पाश (अवतार सिंह संधू) को चमकीला की हत्या के महज दो सप्ताह बाद क्यों मार दिया गया? उनकी कविताओं में तो समानता और सर्वहारा क्रांति की बातें थीं। उनकी सबसे प्रसिद्ध कविता है: सबसे खतरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना। क्या इसके लिए उनकी हत्या कर दी गई?

वह नक्सली रह चुके थे, उन्होंने जेल में समय बिताया था और अपने प्रदेश में हो रही हिंसा के खिलाफ पंजाबी प्रवासियों की अंतरात्मा को जगाने के लिए की गई विदेश यात्रा से लौटे ही थे। विदेश में वह एंटी-47 नामक एक समूह में शामिल हुए थे। यहां 47 शब्द एके-47 राइफल से लिया गया है जो पाकिस्तानियों द्वारा आतंकियों को दी जा रही थी। पंजाब में हुई करीब 25,000 हत्याओं में उसका इस्तेमाल किया गया। पाश की हत्या उन्होंने नहीं तो किसने की?

उन सप्ताहों में हुई सामूहिक हत्याओं की सूची मैं आपको दे सकता हूं। चमकीला की हत्या के समय और उसके बाद दो महीनों में करीब 500 लोगों को जान से मारा गया। चमकीला की हत्या के पहले के सप्ताहों में भी हर दूसरे दिन हत्याएं हो रही थीं। इन सब बातों को नजरअंदाज करना अपराध नहीं तो भी बौद्धिक कायरता है।

ऐसा लगता है मानो बॉलीवुड के फिल्मकार हमें यह यकीन दिलाना चाहते हैं कि सन 1988 में पंजाब और सिख जो झेल रहे थे वह बस कुछ बुरे अपराध थे। जस्टिन ट्रुडो की कनाडाई सरकार अपने देश में पहुंच चुके सिख प्रवासी गैंगों को भी उसी चश्मे से देख रही है। आने वाले समय में अनेक खतरे छिपे हुए हैं।

First Published - May 12, 2024 | 10:19 PM IST

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