मपन्ना मल्लिकार्जुन खरगे (Mallikarjun Kharge) शायद स्वतंत्र भारत के इतिहास के दूसरे ऐसे नेता हैं जो लोकसभा और राज्यसभा दोनों सदनों में विपक्ष के नेता रह चुके हैं और एक राष्ट्रीय दल के अध्यक्ष भी। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि इस 81 वर्षीय राजनेता का राजनीतिक अनुभव कितना सुदीर्घ है।
इस वर्ष उन्होंने एक अन्य वजह से इतिहास बनाया। वह विपक्ष के पहले और इकलौते ऐसे नेता बने जो लाल किले से प्रधानमंत्री के संबोधन के दौरान अनुपस्थित रहे। इसकी वजह खराब स्वास्थ्य को बताया गया जिस पर जाहिर तौर पर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को विश्वास नहीं है।
संसद में अविश्वास प्रस्ताव पर अपने जवाब के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस को इस बात का ताना दिया कि वह लोकसभा में कांग्रेस के नेता अधीर रंजन चौधरी को पर्याप्त सम्मान नहीं देती। इससे पहले उन्होंने कांग्रेस नेतृत्व यानी गांधी परिवार पर खरगे का अपमान करने के लिए हमला बोला था।
बेलगावी में एक चुनावी सभा को संबोधित करते हुए मोदी ने कहा था कि वह वरिष्ठ नेता की इज्जत करते हैं लेकिन आश्चर्य है कि कांग्रेस ऐसा नहीं करती। उन्होंने कहा, ‘मल्लिकार्जुन खरगे ने हरसंभव तरीके से जनता की सेवा की है। मैं यह देखकर दुखी हुआ कि कैसे सर्वाधिक वरिष्ठ नेता, कांग्रेस अध्यक्ष को उनके द्वारा अपमानित किया जाता है, …दुनिया जानती है कि रिमोट कंट्रोल किसके पास है।’
पता नहीं कांग्रेस क्यों यह उल्लेख करने से बची कि भाजपा ने भी अटल बिहारी वाजपेयी को याद रखने के बजाय उन्हें भूल जाना सही समझा। हालांकि इसके लिए पर्याप्त विदेशी और घरेलू नीति संबंधी प्रमाण मौजूद हैं।
परंतु इतना तो सच है कि पार्टी चलाने के क्रम में खरगे के लिए अपने लोगों को सामने लाना आसान नहीं रहा है। करीब 10 महीने से पार्टी अध्यक्ष होने के बावजूद वह अब तक कांग्रेस की कार्य समिति नहीं गठित कर पाए हैं। हालांकि रायपुर में आयोजित पार्टी सम्मेलन में उन्हें कार्य समिति नामित करने के लिए अधिकृत किया गया था। केसी वेणुगोपाल पार्टी के संगठन महासचिव बने हुए हैं।
जाहिर है गांधी परिवार से वेणुगोपाल की नजदीकी को देखते हुए खरगे इस बात पर भरोसा करते हैं कि अगर कुछ बिगड़ा ही नहीं है तो उसे बनाने की भला क्या जरूरत है? पार्टी में चलने वाली चर्चाएं बताती हैं कि प्रियंका गांधी वाड्रा को कांग्रेस कार्य समिति में शामिल होने का निमंत्रण मिल सकता है। ऐसा करके हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव में उनके योगदान को मान्यता दी जाएगी जहां पार्टी सरकार बनाने में कामयाब रही।
राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और मुख्यमंत्री बनने की आकांक्षा रखने वाले नेता सचिन पायलट के बीच के मतभेद दूर करने में खरगे कि क्या भूमिका रही यह किसी को नहीं पता। हालांकि इसका बहुत अधिक श्रेय वेणुगोपाल को दिया जाता है। यही बात छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और उनके मंत्री टीएस सिंह देव पर लागू होती है।
बहरहाल दोनों राज्यों में इन गुटों ने आपस में सार्वजनिक रूप से झगड़ना बंद कर दिया है। पार्टी में खरगे की स्वीकार्यता राजनीति में उनके करियर में निहित है। चुनाव जीतने के मामले में उनका प्रदर्शन शानदार रहा है। सन 2019 के लोकसभा चुनाव को छोड़ दिया जाए जब उन्हें गुलबर्गा से हार का सामना करना पड़ा था तो उसके अलावा वह कभी नहीं हारे हैं। वह 2009 में पहली बार लोकसभा पहुंचने के पहले लगातार नौ बार कर्नाटक के गुरमितकल विधानसभा क्षेत्र से चुनाव जीते। कांग्रेस विरोधी लहर के बावजूद वह 2014 में गुलबर्गा से चुनाव जीतने में कामयाब रहे।
खरगे ने अपना जीवन एक श्रम संगठन अधिवक्ता के रूप में शुरू किया और उन्हें पता है कि संघर्ष क्या होता है। वास्तव में वह मुख्यमंत्री बनना चाहते थे। जब वह 1972 में गुरमितकल विधानसभा सीट से चुनाव जीते और 1976 में देवराज अर्स की सरकार में मंत्री बने तभी से उनकी यह ख्वाहिश थी। वह 1980 में गुंडु राव सरकार में भी मंत्री रहे, 1990 में एस बंगारप्पा की सरकार में भी और 1992 से 1994 तक एम वीरप्पा मोइली की सरकार में भी। सन 1994 में उनकी भूमिका बदली जब वह नेता प्रतिपक्ष बने।
वह 1999 में मुख्यमंत्री पद के दावेदारों में से एक थे लेकिन यह पद एस.एम. कृष्णा के पास चला गया। वर्ष 2004 में वह धरम सिंह से पिछड़ गए। सन 2013 में कर्नाटक में भाजपा की सरकार गिर गई लेकिन खरगे फिर से मौका चूक गए और मुख्यमंत्री पद सिद्धरमैया के पास चला गया। खरगे 2014 से 2019 तक कांग्रेस की ओर से अपमान और अवमानना से जूझते रहे। ऐसी कई समितियां हैं जहां नेता प्रतिपक्ष की मौजूदगी आवश्यक है।
मिसाल के तौर पर सीबीआई प्रमुख और सीवीसी का चयन आदि। उन्होंने लोकपाल चुने जाने के लिए होने वाली बैठकों का बहिष्कार किया क्योंकि वहां उन्हें विशेष आमंत्रित के रूप में बुलाया गया था जिसके पास कोई अधिकार नहीं था। ऐसा इसलिए किया गया था कि उन्हें लोक सभा में नेता प्रतिपक्ष के रूप में चुना नहीं गया था।
पार्टी में यह कहने वाले लोग भी हैं कि उन्हें अपनी मौजूदा नियुक्ति सोनिया गांधी की वजह से मिली है। परिवार किसी ऐसे व्यक्ति को अध्यक्ष बनाना चाहता था जो पलटकर जवाब न दे और बहुत दबदबा न कायम करे। यानी एक ऐसा नेता जो सवाल न करता हो और जो वफादार हो। उनका बेटा प्रियांक कर्नाटक सरकार में मंत्री है। ऐसे में विरासत तय है। परंतु खरगे मनमोहन सिंह नहीं हैं।
आगामी विधानसभा और लोकसभा चुनावों में प्रत्याशी चयन, प्रचार की रणनीति और अन्य विपक्षी दलों के साथ बातचीत उनके लिए वास्तविक परीक्षा की घड़ी होगी।