वर्ष 2000 की गर्मी के मौसम की शुरुआत की बात है। दक्षिणी दिल्ली के एक स्कूल के बच्चों को विज्ञापन की दुनिया के ऐसे शख्सियत से रूबरू कराया गया जो दिखने में बेहद आकर्षक नहीं थे और उनकी उम्र उन दिनों तकरीबन 50 के करीब होगी। उन्हें प्राइमरी स्कूल के बच्चों के लिए गर्मी की छुट्टियों के दौरान आयोजित की गई कला और ड्रॉइंग की कार्यशाला में अतिथि वक्ता के रूप में आमंत्रित किया गया था।
मैं भी इस समूह का हिस्सा था और मुझे अच्छी तरह से याद है कि कैसे हम लोग इस बात को लेकर उलझन में थे कि ‘ऐडमैन’ का वास्तव में क्या मतलब होता है और क्या वह हमें ड्रॉइंग सिखा सकते हैं। हमने अपने स्कूल के दोस्तों के साथ वास्तव में मजाक बनाने की कोशिश भी की और अब मुझे यह समझ आता है कि उनके पेशे में ‘मैडमैन’ बेहद सामान्य सा संबोधन क्यों है।
हालांकि हम सब की हंसी और बोरियत, उस वक्त गायब हो गई और हम सब शांति से उन्हें तब सुनने लगे जब उस वर्कशॉप के संयोजक ने हमें बताया कि इसी ‘मैडमैन’ का दिमाग हम सबकी पसंदीदा ‘अमूल गर्ल’ कार्टून किरदार को तैयार करने में लगा। यह बातचीत करीब एक घंटे तक चली और सिल्वेस्टर दाकुन्हा बेहतरीन कहानीकार थे।
उन्होंने हमें अपनी उस कहानी के साथ जोड़े रखा कि किस तरह उन्होंने और यूस्टेस फर्नांडिस ने ‘अमूल गर्ल’ के लुक की पेशकश की थी और इस किरदार को डिजाइन करने में क्या-क्या हुआ। उन्होंने यह भी बताया कि कैसे दिन में एक बार और केवल एक मजाकिया पंक्ति में बात कहने की बात तय हुई।
उन्होंने इस तरह के किस्से भी सुनाए कि किस तरह इस ब्रांड के विशिष्ट शुभंकर की ड्रेस, उसकी हेयरस्टाइल, उम्र तय हुई लेकिन दाकुन्हा की एक बात मुझे विशेष तौर पर याद आती है जो उन्होंने अमूल के रोजाना के एक पैनल वाले कार्टून विज्ञापनों के बारे में कही थी। उन्होंने कहा, ‘हम हमेशा विज्ञापनों के बारे में स्पष्ट रहे हैं।
अमूल देश का मक्खन है, और इसलिए ‘अमूल गर्ल’ को देश से अपनी बात कहनी है और राष्ट्र के साथ जुड़ने का सबसे अच्छा तरीका उन मुद्दों और विषयों के बारे में बात करना है जो अभी हर किसी के दिमाग में हैं।’उन्होंने कहा, ‘हालांकि मैं किसी भी तरह से खुद की तुलना आर के लक्ष्मण या शंकर जैसी रचनात्मक प्रतिभा वाली शख्सियत से नहीं कर सकता, लेकिन मुझे लगता है कि अमूल गर्ल आम आदमी के लिए अन्य राजनीतिक कार्टूनों के समान भूमिका निभा रही है।’
यह तुलना अमूल विज्ञापनों की एक महत्वपूर्ण विशेषता को दर्शाती है। एक ऐसे दौर में जब मीम आसानी से सुलभ है और जीआईएफ हमारी रोजमर्रा की बातचीत में मजाकिया पुट लाते हैं और सोशल मीडिया के चलते अखबारों के कार्टून की प्रासंगिकता थोड़ी कम होती जा रही है लेकिन ‘अमूल गर्ल’ का सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर व्यंग्य बिल्कुल नया और ताजा लगता है।
वर्ष 1966 में शुरू किया गया मक्खन-केंद्रित विज्ञापन अभियान अब भी दिन के ताजा मुद्दों और बहसों के सार पर आधारित होता है तो एक चुटीली पंक्ति के साथ बेहद मजेदार लगता है। निश्चित रूप से यह ‘मैडमैन’ दाकुन्हा की प्रतिभा थी जिससे उन्होंने राष्ट्र से जुड़ी सोच को एक दूध उत्पाद के साथ जोड़ने के बारे में सोचा और इस किरदार की मदद से न केवल राष्ट्रीय महत्व के दावों को बल्कि विज्ञापन की जगह को उन्होंने राष्ट्रीय संवाद की जगह में बदल दिया।
दाकुन्हा ने अमूल गर्ल वाले विज्ञापनों को सादगी से पेश करने पर जोर दिया। उन्होंने इसकी मुख्य किरदार एक बड़ी आंखों वाली एक लड़की बनाई जो लाल पोल्का डॉट्स वाले ड्रेस के साथ बालों में मैचिंग रिबन लगाती है और उसके जूतों का रंग भी लाल है।
इस विज्ञापन के शुभंकर और केंद्रीय चरित्र को दिवंगत चित्रकार और कला निर्देशक यूस्टेस फर्नांडिस ने जीवंत किया और इसे माताओं और बच्चों को समान रूप से अपील करने के लिए डिजाइन किया गया था। वर्गीज कुरियन और दाकुन्हा दोनों ने फैसला किया था कि एक छोटी बच्ची इस मकसद के लिए सबसे अच्छा काम करेगी। इसके अलावा इसके विज्ञापन की प्रमुख लाइन ‘अटर्ली बटर्ली डेलिशियस’ भी बेहद संक्षिप्त, लोगों की जुबान पर चढ़ने वाला और काफी आकर्षक था।
इस लाइन में दाकुन्हा की पत्नी निशा का योगदान है। अगर इस विज्ञापन की कला शैली की बात करें तो इसमें कोई जटिलता नहीं थी। इसके मुख्य पात्र को बेहद सामान्य रंग की पृष्ठभूमि पर खींचा गया था और यह कार्टून विंडो अखबार के पन्ने पर नजर आने लगा।