अगर भारत में गरीबी का स्तर तेजी से कम हुआ है तो देश की आधी से अधिक आबादी को नि:शुल्क खाद्यान्न क्यों मुहैया कराया जा रहा है? विश्लेषण कर रहे हैं ए के भट्टाचार्य
पांच राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनावों के लिए कुछ राज्यों में पहले दौर का मतदान मंगलवार 7 नवंबर को संपन्न हो गया। आगामी 17, 23 और 30 नवंबर को तीन और चरणों में मतदान होंगे और उसके बाद छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, मिजोरम, राजस्थान और तेलंगाना की कुल 679 विधानसभा सीटों के लिए विजेताओं का निर्णय होगा।
यह बात समझी जा सकती है कि विभिन्न राजनीतिक दलों ने प्रचार अभियान के दौरान तमाम वादे किए हैं। परंतु प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गत सप्ताह एक ऐसा वादा किया जो अपनी अपील और असर में अन्य सभी वादों पर भारी है।
सबसे बड़ा चुनावी लाभ
मोदी ने 4 नवंबर को छत्तीसगढ़ के दुर्ग में चुनावी रैली को संबोधित करते हुए घोषणा की कि केंद्र सरकार प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना (पीएमजीकेवाई) के तहत करीब 81 करोड़ लोगों को नि:शुल्क खाद्यान्न वितरण की योजना पांच और वर्षों तक जारी रखेगी। यह शायद हाल के वर्षों किसी पार्टी द्वारा घोषित सबसे बड़ा चुनावी लाभ है।
देश की 57 फीसदी आबादी इस नि:शुल्क खाद्यान्न योजना के अधीन आती है। इसे एक-दो नहीं बल्कि पांच साल के लिए आगे बढ़ाया गया है। योजना की मौजूदा सालाना लागत करीब दो लाख करोड़ रुपये है और अगले पांच सालों में इसमें इजाफा होना चाहिए। याद कीजिए इससे पहले कब इतनी लागत वाली नि:शुल्क योजना की घोषणा की गई थी और वह भी पांच सालों के लिए?
परंतु सरकारी वित्त तथा अर्थव्यवस्था पर इसके असर का आकलन करने के पहले बेहतर होगा कि हम उस संदर्भ को देखें जिसमें इस योजना की घोषणा की गई थी। सरकार ने 23 दिसंबर, 2022 को दो अहम निर्णय लिए: पीएमजीकेएवाई के अधीन नि:शुल्क खाद्यान्न वितरण को बंद करना और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (NFSA) के तहत सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) के तहत खाद्यान्न का नि:शुल्क वितरण करना। दोनों योजनाओं के तहत करीब 81 करोड़ लाभार्थी थे।
पीएमजीकेएवाई के अधीन अप्रैल 2020 में कोविड महामारी के दौर में खाद्यान्न वितरण शुरू किया गया था। इसके तहत हर लाभार्थी को पांच किलो नि:शुल्क राशन दिया जा रहा है। इसके अलावा सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत इनमें से प्रत्येक को एक से तीन रुपये प्रति किलो की भारी सब्सिडी पर गेहूं, चावल तथा अन्य अनाज दिए जा रहे हैं।
पीएमजीकेएवाई का पीडीएस में विलय
सरकार ने पीएमजीकेएवाई का पीडीएस में विलय कर दिया। जहां तक 81 करोड़ लाभार्थियों की बात है तो उन्हें पीएमजीकेएवाई के तहत मुफ्त खाद्यान्न मिलना बंद हो गया लेकिन पीडीएस के तहत वे नि:शुल्क खाद्यान्न पाने लगे। इस प्रक्रिया में ऐसा लगा मानो सरकार ने एक तीर से दो निशाने लगाए।
सरकार ने खुद को पीएमजीकेएआई के तहत नि:शुल्क खाद्यान्न वितरण की जिम्मेदारी से दूर कर लिया। परंतु पीडीएस के तहत नि:शुल्क खाद्यान्न वितरण के कारण खाद्य सब्सिडी पर सालाना 15,000 करोड़ रुपये का अतिरिक्त बोझ पड़ा और कुल सब्सिडी बढ़कर दो लाख करोड़ रुपये के पार चली गई।
चूंकि नि:शुल्क पीडीएस अनाज योजना केवल 31 दिसंबर, 2023 तक के लिए घोषित की गई थी इसलिए वित्त मंत्रालय ने भी राहत की सांस ली होगी कि ऐसी नि:शुल्क योजनाओं की अवधि सुनिश्चित हो रही है। उसे यह भी लगा होगा कि 2023-24 के आखिरी तीन महीनों में लाभार्थियों से केंद्रीय निर्गम मूल्य की वसूली आरंभ हो जाएगी। अब ये उम्मीदें टूट चुकी हैं और उन आशंकाओं की पुष्टि हुई है कि एक बार घोषित होने के बाद ये योजनाएं बंद नहीं होतीं।
इनकी लागत क्या होगी? पहला, सरकार का खाद्य सब्सिडी बिल वर्तमान आकलन के मुताबिक दो लाख करोड़ रुपये हो सकता है लेकिन यह लागत आगे चलकर बढ़ेगी। फिलहाल भारतीय खाद्य निगम को गेहूं और चावल पर क्रमश: 27 रुपये प्रति किलोग्राम और 39 रुपये प्रति किलोग्राम का आर्थिक बोझ वहन करना पड़ रहा है।
आर्थिक लागत में किसानों को चुकता की जाने वाली न्यूनतम समर्थन कीमत और भंडारण तथा परिवहन सहित अन्य व्यय शामिल हैं। 81 करोड़ लाभार्थियों के लिए केंद्रीय निर्गम मूल्य की बात करें तो गेहूं के लिए वह दो रुपये प्रति किलोग्राम, चावल के लिए तीन रुपये प्रति किलोग्राम तथा मोटे अनाज के लिए मात्र एक रुपये प्रति किलोग्राम है।
इसमें आखिरी संशोधन 2013 में हुआ था और अभी हाल तक माना जा रहा था कि न्यूनतम समर्थन मूल्य में इजाफे के साथ इसे भी बढ़ाया जाएगा। परंतु इजाफा तो दूर इन्हें तो समाप्त ही कर दिया गया।
दूसरी ओर न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाने का दबाव भी कम नहीं होगा और सालाना औसतन 7.8 से 8 करोड़ टन गेहूं और चावल खरीदने में भारतीय खाद्य निगम की आर्थिक लागत बढ़ती जाएगी।
पीडीएस के तहत वितरण के लिए सालाना जहां 5 से 6 करोड़ टन खाद्यान्न की जरूरत है, वहीं एफसीआई अधिक खरीद करता है ताकि आपूर्ति में कमी न आए। आने वाले वर्षों में यह दबाव कम होता नहीं नजर आ रहा है। ऐसे में खाद्य सब्सिडी बिल में इजाफा ही होगा।
यकीनन गरीब अथवा आर्थिक मुश्किलों से जूझ रहे लोगों को यह सुविधा देने में कुछ भी गलत नहीं है लेकिन विस्तारित नि:शुल्क खाद्यान्न योजना 81 करोड़ लोगों से संबंधित है यानी आबादी का 57 फीसदी।
विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में गरीबी का स्तर मापने की सीमा 2.15 डॉलर प्रति दिन है और इसके आधार पर भारत में गरीबी का स्तर 2011 के 22.5 फीसदी की तुलना में 2019 में 10 फीसदी घटा।
कोविड के बाद इसमें कुछ इजाफा हुआ होगा परंतु वह ऐसे स्तर तक नहीं बढ़ा जहां नि:शुल्क खाद्यान्न योजना को देश की आधी आबादी के लिए लागू करना पड़े। इसी तरह भारत के बहुआयामी गरीबी सूचकांक अनुमानों के मुताबिक देश की आबादी का 16 फीसदी हिस्सा 2021 में बहुआयामी गरीबी का शिकार था और 18.7 फीसदी अतिरिक्त आबादी इसके खतरे में थी।
ऐसे में सरकार को देश की आधी से अधिक आबादी के लिए नि:शुल्क खाद्यान्न योजना की अवधि बढ़ाने की क्या आवश्यकता पड़ी? क्या यह कल्याण योजना को गलत तरीके से लक्षित करने का उदाहरण है या फिर यह सरकार की चुनावी लाभ सुनिश्चित करने की कोशिश की वजह से है? चाहे जो भी हो तात्कालिक आवश्यकता यह है कि लाभार्थियों की संख्या को नए सिरे से परिभाषित किया जाए और पता लगाया जाए कि वास्तव में किन लोगों को नि:शुल्क खाद्यान्न की आवश्यकता है।
यह संभव है कि आबादी के कुछ हिस्से को अभी भी रियायती दर पर खाद्यान्न की आवश्यकता हो लेकिन तब सरकार खाद्यान्न के केंद्रीय निर्गम मूल्य में समुचित संशोधन कर सकती है क्योंकि ये कीमतें एक दशक पहले निर्धारित की गई थीं। ऐसा करने से सरकार का खाद्य सब्सिडी बिल भी उतना बड़ा बोझ नहीं रह जाएगा।
यहां एक और गंभीर मसला है जिस पर नीति निर्माताओं को ध्यान देने की आवश्यकता है। हालांकि इस विषय पर आंकड़े नहीं हैं लेकिन प्रमाण यही बताते हैं कि लाभार्थियों को दी जाने वाली सहायता का बड़ा हिस्सा लीक हो जाता है। कई लाभार्थियों को पूरी मात्रा में अनाज नहीं मिलता क्योंकि बिचौलिये उसे अपने लाभ के लिए इस्तेमाल कर लेते हैं।
आर्थिक संकट से जूझ रहे लोगों को खाद्य सुरक्षा मुहैया कराना सराहनीय लक्ष्य है लेकिन इन्हें जरूरतमंदों तक पहुंचना चाहिए। ऐसे में जरूरतमंदों तक प्रत्यक्ष नकद सहायता पहुंचना अधिक बेहतर विकल्प साबित हो सकता है। यह राशि सरकार द्वारा खरीद पर व्यय की जाने वाली लागत के बराबर हो सकती है। इससे एफसीआई का खरीद संबंधी आवंटन भी कम होगा जो एक और किफायत साबित होगा।