राजनीति सही मायनों में जनता के बीच ही होती है और कांग्रेस नेता राहुल गांधी (Rahul Gandhi) भी संसद के मॉनसून सत्र के एक दिन बाद वहीं थे यानी वायनाड में अपने मतदाताओं के बीच।
सर्वोच्च न्यायालय के आदेश की बदौलत उनकी लोकसभा सदस्यता बहाल होने के बाद वह पहली बार अपने संसदीय क्षेत्र में पहुंचे थे। हालांकि मॉनसून सत्र के दौरान संसद में राहुल गांधी और विपक्षी दलों का आचरण भ्रमित करने वाला था।
उन्होंने ज्यादातर समय इस सत्र का बहिष्कार किया और सरकार ने बिना किसी खास बहस के 20 से अधिक विधेयकों को पारित कर दिया।
इंडियन नैशनल डेवलपमेंट इन्क्लूसिव अलायंस यानी ‘इंडिया’ नामक विपक्षी गठजोड़ ने जो अविश्वास प्रस्ताव पेश किया था उसके बारे में सभी जानते थे कि उसका आंकड़ों से कोई लेनादेना था ही नहीं। बल्कि कोशिश यह थी कि इसके माध्यम से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को मणिपुर के मसले पर बोलने पर विवश किया जाए।
जाहिर है अविश्वास प्रस्ताव का इरादा सही प्रतीत होता है। परंतु मोदी के 133 मिनट लंबे भाषण के 90वें मिनट में गांधी और शेष विपक्षी सदस्य उत्तर देने के अपने अधिकार को समर्पित करके लोकसभा से बाहर निकल गए। निश्चित रूप से प्रधानमंत्री मणिपुर पर कुछ और लंबी अवधि तक बोल सकते थे, विपक्ष के बाहर जाने के बाद उन्होंने बोला भी।
परंतु उन्होंने अपना ज्यादातर समय भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की सरकार के बचाव में लगा दिया और इस बारे में ज्यादा कुछ नहीं बताया कि उनकी सरकार पूर्वोत्तर के राज्य में शांति स्थापना के लिए क्या करने जा रही है।
मणिपुर के भाजपा सांसद राजकुमार रंजन सिंह जो केंद्रीय मंत्री भी हैं और जैसा कि कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने बताया भी कि उनके निजी आवास को आग के हवाले कर दिया, वह संसद में बोले ही नहीं। बाहरी मणिपुर लोकसभा से भाजपा के सहयोगी नगा पीपुल्स फ्रंट के सांसद लोर्हो एस फोजे भी कुछ नहीं बोले।
इस प्रक्रिया में विपक्ष ने अपने उस दायित्व को त्याग दिया जिसमें वह प्रधानमंत्री से यह पूछ सकता था कि उन्होंने गोलपोस्ट क्यों बदला और मणिपुर के मौजूदा हालात की बात करते हुए मिजोरम में 1966 में घटी घटनाओं का उल्लेख क्यों किया।
समाजवादी नेता जेबी कृपलानी द्वारा अगस्त 1963 में पहला अविश्वास प्रस्ताव पेश किए जाने के बाद अब तक 28 अविश्वास प्रस्ताव पेश किए जा चुके हैं और इतने अवसरों के बीच यह एक दुर्लभ अवसर था जब विपक्ष ने बहस का जवाब देने के अपने अधिकार का इस्तेमाल नहीं किया। क्या गांधी इसलिए सदन से चले गए क्योंकि मोदी ने नेहरू-गांधी परिवार पर हमला किया?
परंतु सन 1962 में भारत की सैन्य पराजय के संदर्भ में 60 वर्ष पुरानी उस घटना का जिक्र भी कम व्यक्तिगत और कड़वाहट भरा नहीं था। समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया ने जवाहरलाल नेहरू पर भाई-भतीजावाद का आरोप लगाते हुए कहा था कि उन्होंने कश्मीर के लोगों को सरकार में ऊंचे पदों पर बिठाया।
उन्होंने यह आरोप भी लगाया कि सरकार उनकी सुरक्षा और उनके कुत्ते की देखरेख पर 25,000 रुपये खर्च करती है। तब कांग्रेस ने भी जवाबी हमला किया था।
अपवादों को छोड़ दिया जाए तो विपक्षी सदस्य बेहतर तैयारी के साथ आ सकते थे। राहुल गांधी ने बहुत जुनून के साथ अपनी बात कही लेकिन उनके भाषण में शोध की कमी थी और वे उसे बेहतर तरीके से प्रस्तुत कर सकते थे। हालांकि विपक्ष के कुछ सदस्य मसलन कांग्रेस के गौरव गोगोई ने सटीक सवाल और मुद्दे उठाए परंतु कुल मिलाकर विपक्ष के प्रदर्शन में कमी रह गई।
एक तरह से उसने उन चुनौतियों को भी रेखांकित किया जो इंडिया गठबंधन के सामने 2024 के लोकसभा चुनाव में आएंगी। केंद्रीय गृह मंत्री ने मणिपुर में घटी घटनाओं का विस्तृत ब्योरा दिया। फिर भी 20 घंटे तक चली बहस में समय-समय पर विद्वेष से भरी हुई, थकी बयानबाजी और लंबे समय तक चले निराशाजनक भाषणों से यह संकेत भी निकला कि अविश्वास प्रस्ताव में ऐसे अहम मुद्दों पर अधिक सौहार्दपूर्ण चर्चा भी की जा सकती है।
सदन की आसंदी से 40 बार निष्कासन का आदेश दिया गया और विपक्ष ने शिकायत की कि जब उनके वक्ताओं ने सरकार की आलोचना की तो संसद टीवी के कैमरों का रुख दूसरी ओर कर दिया गया। ये बातें बताती हैं कि सरकार ने ध्यान को वास्तविक मुद्दों से दूर कर दिया।