मेटा के संस्थापक मार्क जकरबर्ग ने हाल ही में कहा कि वह आर्टिफिशल इंटेलिजेंस (एआई) की दौड़ में पिछड़ने के बजाय ‘कुछ सौ अरब डॉलर फिजूलखर्ची’ का जोखिम उठाना पसंद करेंगे। जरा इस पर गौर करें कि उन्होंने कुछ सौ अरब डॉलर की बात कही है। जकरबर्ग जिस सरलता से यह स्वीकार करने के लिए तैयार हैं कि सुपरइंटेलिजेंस की खोज में इतनी रकम जाया भी हो सकती है वह इस बात की याद दिला रहा है कि मौजूदा समय में इस क्षेत्र (एआई) में किस स्तर पर निवेश हो रहा है। यह हमारा ध्यान उन लोगों की तरफ भी खींच रहा है जो यह कह रहे हैं कि एआई महज एक बुलबुला है जो कभी न कभी फूट जाएगा।
मेटा और इसके संस्थापक पहले भी कई ऐसे दांव लगा चुके हैं जिनके उन्हें अपेक्षित परिणाम नहीं मिले हैं। ‘मेटावर्स’ वर्चुअल रियलिटी परियोजना की अवधारणा अक्टूबर 2023 में जकरबर्ग द्वारा अपने नुकसान में कमी लाने से पहले फेसबुक की लगभग 46.5 अरब डॉलर नकदी लील चुकी थी। इतनी रकम अपने आप में फॉर्च्यून 500 में शामिल एक कंपनी की हैसियत के बराबर है। जकरबर्ग जिस रकम की बात कर रहे हैं वह भारी भरकम है यानी एक बड़ी दिग्गज कंपनी की हैसियत के बराबर हो सकती है। मसलन मार्च में जनरल इलेक्ट्रिक का बाजार पूंजीकरण 213 अरब डॉलर था। यहां उठने वाले मूलभूत प्रश्न के दो पहलू हैं।
पहली बात, बड़ी कंपनियां जैसे मेटा, गूगल (जिसका अपना मॉडल, जेमिनाई है और वह एंथ्रोपिक का भी समर्थन करती है), एमेजॉन (जिसने एंथ्रोपिक को अरबों डॉलर दिए हैं) और माइक्रोसॉफ्ट (जो ओपनएआई के लाभ कमाने के उद्देश्य से गठित इकाई में सबसे बड़ी शेयरधारक है और उसने चिप निर्माता एनवीडिया के साथ एंथ्रोपिक में भी निवेश किया है) एआई में इतनी भारी भरकम रकम क्यों झोंक रही हैं? दूसरी बात, क्या एआई वास्तव में ऐसी तकनीक है जिसका बड़ी विकसित अर्थव्यवस्थाओं में निवेश निधियों पर इतना अधिक दबदबा होना चाहिए?
पूर्व में तकनीक को लेकर दिखी होड़ से कुछ अंदाजा लगाया जा सकता है। उदाहरण के लिए 19वीं शताब्दी में रेल को एआई की तरह ही बड़े बदलाव लाने का माध्यम समझा गया। यह तर्क जरूर दिया जा सकता है कि रेल के विकास से लोगों के एक स्थान से जाकर दूसरे स्थान पर बसने और नए क्षेत्रों के लिए संसाधन निष्कर्षण करने में मदद मिली। 19वीं शताब्दी में रेलवे निर्माण की गति और इसके महत्त्व को तभी समझा जा सकता है जब हम इस बात पर गौर करें कि आज भी मध्य अफ्रीका के विशाल संसाधन के मूल्य काफी कम हैं जबकि उनका वैश्विक महत्त्व खाड़ी देशों के जीवाश्म-ईंधन भंडार के बराबर ही माना जा सकता है। इसका कारण यह है कि समुद्र के लिए कोई विश्वसनीय रेल संपर्क नहीं है।
विक्टोरिया के शासन के दौर के मध्य एक बड़ी आर्थिक ताकत रहे ब्रिटेन में निवेश के प्रतिशत के रूप में रेलवे का हिस्सा शायद आधा था। 1840 के दशक में रेल संपर्क को लेकर वहां उन्माद चरम पर था। बाद में वर्ष 1830 में जॉर्ज चतुर्थ की मृत्यु के बाद चार दशकों में रेल में निवेश कुल निवेश का लगभग पांचवां हिस्सा था। शताब्दी के अंत के करीब ब्रिटेन में रेलवे के बॉन्ड और शेयरों का हिस्सा घरेलू वित्तीय पोर्टफोलियो में एक चौथाई और एक तिहाई के बीच था। अमेरिका में रेलवे के विकास में तेजी के विभिन्न चरणों में (1840 के दशक, 1870 के दशक) के दौरान इसमें निवेश की हिस्सेदारी अर्थव्यवस्था में कुल निवेश में 40 फीसदी थी। कुछ मौकों पर यह सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के लगभग 10 फीसदी तक पहुंच गई थी।
क्या इसकी तुलना मौजूदा समय में एआई को लेकर बढ़ी दिलचस्पी से की जा सकती है? यह एक तरफ यह दिखाता है कि एआई में कुछ वर्षों के दौरान हुए भारी भरकम निवेश ऐतिहासिक तथ्यों से पूरी तरह से अलग नहीं है। इस वर्ष की पहली छमाही में अमेरिका की जीडीपी में हुई वृद्धि में पूरा योगदान एआई निवेश का ही रहा होगा लेकिन यह तब भी उसके कुल जीडीपी का केवल कुछ प्रतिशत अंक हिस्सा ही है। इसके उलट रेल तंत्र में हुआ निवेश नियमित रूप से जीडीपी के 6 से 10 फीसदी तक पहुंच जाता था।
दूसरी ओर जब रेल में निवेश की पहली बयार चली थी तो उस क्षेत्र में राजस्व में कुछ समय के लिए साल-दर-साल 10 फीसदी की वृद्धि देखी गई थी और उस क्षेत्र और अधिकांश अन्य क्षेत्रों में राजस्व वृद्धि में एक बड़ा अंतर देखा गया। जोखिम रहित परिसंपत्तियों पर लाभ की तुलना में आय ने प्रतिस्पर्द्धियों के बीच खाई बढ़ा दी। एआई के साथ भी ऐसा ही होगा यह कहना फिलहाल मुश्किल है और इस आंधी की अधिक व्याख्या नहीं की जा सकती।
शायद यही कारण है कि रेल तंत्र में बेतहाशा निवेश की प्रवृत्ति के विपरीत एआई में मुख्य रूप से तकनीकी क्षेत्र की दिग्गज कंपनियां निवेश कर रही हैं न कि छोटे निवेशक या परिवार जिन्होंने रेल पर जमकर दांव लगाया था। ये कंपनियां अगले कुछ वर्षों में राजस्व या कमाई का पीछा करने में दिलचस्पी नहीं दिखा रही हैं बल्कि आने वाले दशकों तक इस क्षेत्र में अपना रसूख बनाए रखने की तमन्ना के साथ आगे बढ़ रही हैं।
यह एक तरह से प्रतिस्पर्द्धियों को नुकसान पहुंचाने और अस्तित्व का युद्ध है जिसमें बड़े गठबंधन एक दूसरे के खिलाफ चालें चल रहे हैं। वे प्रथम विश्व युद्ध के शुरुआती महीनों में यूरोप की प्रमुख शक्तियों की तरह हैं जिन्हें यह ठीक से मालूम नहीं था कि वे क्यों लड़ रही हैं बल्कि इतना पता था कि उन्हें लड़ना है और वे मानते थे कि युद्ध जीतने के लिए उनके पास पर्याप्त संसाधन भी हैं।