स्वीडन की वाहन निर्माता कंपनी वोल्वो के इंजीनियर निल्स बोलिन ने सन 1959 में आधुनिक तीन प्वाइंट वाली सीटबेल्ट विकसित की थी। उन्होंने इसे पेटेंट कराया था लेकिन वोल्वो ने आम जन की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए जनहित में सभी वाहनों के लिए इसका डिजाइन सुलभ करा दिया। परंतु शायद बोलिन ने खुद को नुकसान पहुंचाने की इंसानी प्रवृत्ति को कम करके आंका था। जब भी वाहन चलाने की बात आती है तो हम इस बात को आसानी से महसूस कर पाते हैं।
पिछले दिनों सड़क परिवहन एवं राजमार्ग विभाग के केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने भारत की अपनी क्रैश टेस्ट सेफ्टी रेटिंग व्यवस्था की शुरुआत की। बीएनकैप (बीएनसीएपी यानी भारत न्यू कार असेसमेंट प्रोग्राम) की व्यवस्था कार निर्माताओं को यह सुविधा देगी वे पांच स्टार के मानक पर अपने वाहन की सुरक्षा व्यवस्था को आंक सकें।
उद्योग जगत के विशेषज्ञों का मानना है कि बीएनकैप पहली ऐसी व्यवस्था होगी जिसे सरकार चलाएगी। ग्लोबल एनकैप तथा अन्य निजी उपक्रमों को कार कंपनियां और कलपुर्जा निर्माता, चैरिटी आदि के द्वारा धन दिया जाता है। इन सबके बीच बीएनकैप एक ऐसी संस्था होगी जिसके साथ किसी के हित नहीं जुड़े और उसके साथ वे समस्याएं उत्पन्न नहीं होंगी जो निजी कंपनियों द्वारा ऐसे ही उपक्रमों का संचालन करने पर उत्पन्न होती हैं। इस व्यवस्था में कारों की सुरक्षा के परीक्षण की लागत भी करीब 60 लाख रुपये रहेगी जो वैश्विक स्तर पर होने वाले व्यय का एक चौथाई है।
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गडकरी ने कहा कि पहले ही क्रैश टेस्ट के 30 अनुरोध प्राप्त हो चुके हैं। देश की सबसे बड़ी कार निर्माता कंपनी मारुति सुजूकी शुरू से इस बात की पक्षधर रही है कि देश के अपने परीक्षण मानक होने चाहिए। इस कंपनी ने बहुत उत्साहित होकर प्रतिक्रिया दी है और वह शीघ्र ही बीएनकैप परीक्षण के लिए कम से कम तीन कार मॉडल पेश करेगी।
इसकी बहुत आवश्यकता थी। विश्व बैंक के मार्च 2021 के एक ब्लॉग के मुताबिक भारत में दुनिया के एक फीसदी वाहन हैं लेकिन सड़क दुर्घटनाओं में होने वाली मौतों में 11 फीसदी भारत में होती हैं। रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि भारत में होने वाली सड़क दुर्घटनाएं उसके जीडीपी के तीन से पांच फीसदी तक का बोझ डालती हैं।
हमें उम्मीद है कि बीएनकैप भले ही वाहन निर्माताओं के लिए स्वैच्छिक है लेकिन यह आगे चलकर एक मानक बन जाएगा क्योंकि यह वाहन खरीद के निर्णय को सुरक्षित वाहनों के पक्ष में प्रभावित करता है। हमें यह भी उम्मीद है कि सुरक्षा उपायों से लैस कारें खरीदने वाले उनका इस्तेमाल भी करेंगे।
मौजूदा प्रमाण तो बताते हैं कि ऐसा नहीं हो रहा है। बोलिन के बेहतरीन इरादे 64 वर्ष बाद भी पूरे नहीं हो रहे हैं। गडकरी के मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि कार दुर्घटनाओं में मरने वाले 87 प्रतिशत लोगों ने सीटबेल्ट नहीं पहनी थी। ज्यादातर आंकड़ों की तरह इन आंकड़ों के बारे में भी कोई स्पष्ट ब्योरा नहीं है। परंतु ऐसे मामलों में मरने वालों के तो नाम भी थे और चेहरे भी।
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सन 2014 में तत्कालीन केंद्रीय मंत्री गोपीनाथ मुंडे की उस समय मृत्यु हो गई थी जब नई दिल्ली के बीचोबीच पृथ्वीराज रोड-तुगलक रोड के गोलचक्कर पर उनकी कार एक अन्य कार से टकरा गई थी। दुर्घटना के बाद उनका शरीर आगे की ओर झटके से गया और उनकी रीढ़ की हड्डी टूट गई। अगर उन्होंने सीट बेल्ट पहनी होती तो वह नाक पर एक मामूली खरोंच के साथ बच जाते।
गत वर्ष सितंबर में टाटा संस के पूर्व चेयरमैन साइरस मिस्त्री की उस समय मौत हो गई जब पालघर में वाहन चालक का कार पर से नियंत्रण हट गया। यह दुर्घटना मुंबई से 100 किलोमीटर पहले हुई थी। मिस्त्री पिछली सीट पर बैठे थे और उन्होंने सीट बेल्ट नहीं पहनी थी। अगली सीट पर बैठे दोनों लोगों ने सीट बेल्ट पहनी थी और वे सुरक्षित बच गए। दिल्ली में एक मल्टी यूटिलिटी व्हीकल की दुर्घटना में तीन डॉक्टरों की मौत हो गई और दो को गंभीर चोट लगी। जिन दो लोगों ने सीटबेल्ट लगा रखी थी उन्हें मामूली चोट आई।
मौजूदा बहस में कार की सुरक्षा और एयरबैग एक दूसरे के पर्याय बन गए हैं। परंतु पहले से चली आ रही सीटबेल्ट शायद सबसे प्रभावी सुरक्षा उपाय है। अगर सीटबेल्ट नहीं लगी हो और एयरबैग खुल जाए तो उस स्थिति में वह जान बचाने के बजाय जान ले भी सकता है। इस बीच एयरबैग की संख्या बढ़ती जा रही है। सर्वे बताते हैं कि भारत में कार में चलने वाले लोगों में आगे बैठने वाले 70 फीसदी लोग सीटबेल्ट नहीं लगाते जबकि पीछे बैठने वाले 96 फीसदी लोग ऐसा नहीं करते।
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वे इसके लिए तमाम दलीलें देते हैं। कुछ लोग कहते हैं कि सीटबेल्ट लगाने से उनकी पोशाक खराब हो जाती है। कुछ अन्य को लगता है कि सीटबेल्ट शायद उतनी सुरक्षित नहीं है। सीटबेल्ट लगाने वाले ज्यादातर लोगों का कहना है कि वे चालान के डर से ऐसा करते हैं।
यही वजह है कि बीएनकैप की बहुत जरूरत होने के बावजूद भारत में सड़क सुरक्षा को लेकर एक समग्र रुख की आवश्यकता है। कारों में सुरक्षा संबंधी उपायों के साथ-साथ आम जनता में भी जागरूकता बढ़ाने की उतनी ही आवश्यकता है। इसके साथ ही सड़क इंजीनियरिंग और डिजाइन, संकेत चिह्नों तथा अंधे मोड़ों की समस्याओं को हल करने पर भी काम किया जाना चाहिए। यह इसलिए क्योंकि दुर्घटना में केवल कार सवार ही घायल नहीं होते।
हकीकत में कार सवारों की मौत के मामले 2016 के 18 फीसदी से कम होकर 2020 में 13.6 फीसदी हो गए हैं। इसके विपरीत सड़क पर पैदल चलने वाले, साइकिल सवारों और दोपहिया वाहन सवारों की मौत के मामले 2016 के 47 फीसदी से बढ़कर 2020 में 64 फीसदी हो गए।
आश्चर्य नहीं कि विश्व बैंक के ब्लॉग में कहा गया है, ‘भारत जैसे विविधता वाले और विकासशील देश में सड़क दुर्घटनाएं अक्सर पीड़ित के वर्ग, लिंग, आय और भौगोलिक स्थिति से जुड़ी होती हैं।’
उस लिहाज से देखा जाए तो सड़क दुर्घटनाओं में जान गंवाने वाले 70 फीसदी दोपहिया चालकों ने हेलमेट नहीं लगाया होता है। दुर्घटना के कारण होने वाली हर प्रकार की मौत में 69 प्रतिशत तेज गति से वाहन चलाने के कारण होती हैं। खुद को नुकसान पहुंचाने प्रवृत्ति की कोई सीमा नहीं है।