हमने हाल ही में आजादी की 76वीं वर्षगांठ मनाई और इसी दौरान सामने आए 2019-21 के बहुआयामी गरीबी सूचकांक (एमडीपीआई) के आंकड़ों ने मुझे दो वजहों से प्रसन्न भी किया। पहली वजह यह कि आंकड़ों ने दिखाया कि 2005-06 और 2019-20 के बीच गरीबों की तादाद में 41.5 करोड़ की कमी आई है।
दूसरी वजह यह कि जब मैं 2013 से 2018 तक संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम के एशिया-प्रशांत क्षेत्र में कामकाज का जिम्मेदार था तब मैंने इस क्षेत्र के देशों पर काफी जोर दिया था कि वे एमडीपीआई को आय या खपत व्यय आधारित गरीबी के अनुमानों के आकलन के लिए अपनाएं। एशिया प्रशांत के कई देश राजी हो गए थे लेकिन भारत उस समय बाहर रहा था।
बाद में यूएनडीपी-इंडिया के लगातार प्रयासों के बाद नीति आयोग ने एमडीपीआई को अपना लिया जिसके राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) आधारित परिणाम अब 2005-06, 2015-16 और 2019-20 के लिए उपलब्ध हैं। उस समय तक मैं यूएनडीपी से अलग हो चुका था इसलिए किसी तरह का श्रेय नहीं ले सकता हूं लेकिन मैं इस बात से प्रसन्न हूं कि उन्होंने ऐसा किया।
गरीबी की प्रकृति की बेहतर समझ के लिए हमें एमडीपीआई की जरूरत थी, खासकर भारत जैसे विविधता वाले देश के लिए। अकेले आय गरीबी के उपायों का इस्तेमाल गलत हो सकता है। कई परिवार ऐसे हो सकते हैं जो शायद दैनिक मेहनताने के आधार पर आय आधारित गरीबी की सीमा पर हों, वे किसी नाली के मुहाने पर स्वच्छता और पेय जल के बिना रहते हों। देश के झुग्गी वाले इलाकों में कई लोग इन हालात में रहते हैं।
एमडीपीआई में स्वास्थ्य, शिक्षा और जीवन मानक शामिल होते हैं जिनका आकलन अल्कायर-फॉस्टर प्रविधि से किया जाता है। जीवनस्तर के आकलन के लिए यह आवास, घरेलू गैस, स्वच्छता, पेयजल और परिसंपत्तियों का आकलन करता है लेकिन आय और खपत को ध्यान में नहीं रखता। ऐसे में यह राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के आंकड़ों पर यकीन नहीं करता।
भारत के मामले में मातृत्व स्वास्थ्य और बैंकिंग तक पहुंच को एमडीपीआई के अतिरिक्त संकेतक के रूप में शामिल किया गया है। शायद भविष्य में इंटरनेट पहुंच को भी इसमें शामिल किया जाए। यह अच्छी बात है कि हमारे पास यह उपाय है क्योंकि 2011-12 से ही खपत व्यय के मामले में एनएसएस सर्वे की अनुपस्थिति आय संबंधी गरीबी को लेकर विश्वसनीय आंकड़े अनुपस्थित रहते।
एमडीपीआई के परिणाम यह दिखाते हैं कि गरीबी में उल्लेखनीय कमी आई है। खासतौर पर ग्रामीण इलाकों में। 2005-06 से 2015-16 के बीच जहां 28 करोड़ लोग गरीबी रेखा से बाहर निकले, वहीं 2015-16 से 2019-21 के बीच 13.5 करोड़ अन्य लोग गरीबी से बाहर निकले। इस प्रकार एमडीपीआई के आंकड़े गरीबी में निरंतर गिरावट का परिदृश्य पेश करते हैं।
ये आंकड़े गरीब राज्यों में भी गरीबी में तेज गिरावट की तस्वीर पेश करते हैं। उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान यानी कथित हिंदी प्रदेश में। जम्मू कश्मीर तथा लद्दाख में भी गरीबी में तेजी से कमी आई है।
नीति आयोग ने 2023 में एमडीपीआई को लेकर जो रिपोर्ट पेश की उसमें कहा गया है कि स्कूली शिक्षा, पोषण, घरेलू ईंधन और सफाई आदि प्राथमिक कारक थे लेकिन करीबी से देखा जाए तो पोषण और घरेलू ईंधन के आंकड़े बहुत स्पष्ट तस्वीर पेश नहीं करते। पूरे देश में हालात अलग-अलग नजर आते हैं। उदाहरण के लिए स्कूलिंग और स्कूल में उपस्थिति के मामले में राजस्थान अच्छी स्थिति में रहा लेकिन आंध्र और तेलंगाना इसमें पिछड़ गए।
उपस्थिति से यह तय नहीं होता कि कितना सीखा गया। असर के सर्वे के अनुसार राजस्थान में कक्षा 5 के केवल 36 फीसदी छात्र कक्षा दो के स्तर की चीजें पढ़ पा रहे थे। बहरहाल बच्चों को स्कूल भेजा जाना पहला कदम है। स्कूली उपस्थिति के विपरीत राजस्थान घरेलू गैस तक पहुंच के मामले में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर सका।
मध्य प्रदेश, बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड, पश्चिम बंगाल, असम, ओडिशा और हरियाणा की हालत भी ऐसी ही रही। इस क्षेत्र में केवल आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक और म्यांमार का प्रदर्शन ही बेहतर रहा। इससे संकेत मिलता है कि पीएम उज्ज्वला योजना की पड़ताल करने और इसमें सुधार करने की आवश्यकता है।
बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, झारखंड और छत्तीसगढ़ जैसे गरीब राज्यों तथा मणिपुर और नगालैंड में भी स्वच्छता में सुधार गरीबी में कमी का एक प्रमुख कारक रहा। यह अच्छी खबर है लेकिन आश्चर्यजनक रूप से सकारात्मक नजर आ रही है। रिसर्च इंस्टीट्यूट फॉर कंपनसेट इकनॉमिक्स के 2018 के एक सर्वेक्षण में पाया गया कि उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और कर्नाटक की 71 फीसदी ग्रामीण आबादी के पास ही एक शौचालय था लेकिन केवल 50 फीसदी लोग उसका इस्तेमाल करते थे।
उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और असम का प्रदर्शन बिजली कनेक्शन के क्षेत्र में बेहतर था लेकिन मेघालय पीछे रह गया। परंतु बिजली कनेक्शन की तादाद अबाध बिजली आपूर्ति की गारंटी नहीं देती। समुचित आवास तक पहुंच बताती है कि देश के अधिकांश राज्यों में छोटे सुधार हुए हैं यानी पीएम आवास योजना की समीक्षा आवश्यक है। पोषण भी देश में एक बड़ा मसला है।
इस क्षेत्र में जम्मू कश्मीर, लद्दाख, उत्तराखंड और मध्य प्रदेश ने ही कुछ सुधार दिखाया है। गरीबी को समाप्त करने में विभिन्न जिलों में भारी अंतर है। सबसे अधिक गरीब राज्य बिहार में चंपारण, दरभंगा और बेगूसराय जिलों में भारी सुधार हुआ परंतु अररिया, पूर्णिया और सुपौल अभी भी मुश्किलों से दो-चार हैं।
कर्नाटक जैसे अपेक्षाकृत समृद्ध राज्य में कलबुर्गा, कोप्पल और गडग पीछे छूटे हुए हैं जबकि यादगीर, रायचूर और बगलकोट में गरीबी तेजी से कम हुई है। 2015-16 से 2019-20 के बीच जिन जिलों में सबसे अधिक गरीबी कम हुई है वे हैं ओडिशा का कालाहांडी, मध्य प्रदेश के अलीराजपुर और बड़वानी, राजस्थान के उदयपुर और बाड़मेर, उत्तर प्रदेश के महाराजगंज और गोंड तथा गुजरात का डांग।
छत्तीसगढ़ का बीजापुर जिला ही एक ऐसा जिला रहा जहां गरीबी बढ़ी। इससे पता चलता है कि राष्ट्रीय कार्यक्रम मायने रखते हैं लेकिन जिला और नगरीय निकाय स्तर पर उनका क्रियान्वयन बहुत मायने रखता है। भारत ने गरीबी में काफी कमी की है लेकिन अभी भी हमारे यहां बड़ी तादाद में गरीब हैं। 2019-21 में यहां करीब 23 करोड़ गरीब थे जिनमें नौ करोड़ बच्चे हैं।
आंगनबाड़ी और मध्याह्न भोजन के जरिये उनके पोषण में सुधार करने से काफी असर हो सकता है। चूंकि एनएफएचएस-2019-21 का 70 फीसदी हिस्सा महामारी के पहले पूरा हुआ था इसलिए संभव है कि बड़ी तादाद में लोग वापस गरीबी के चक्र में उलझ गए हों। मौजूदा गति से यह नहीं लगता है कि हम 2030 तक गरीबी का पूरी तरह उन्मूलन कर सकेंगे। ऐसे में गरीबी उन्मूलन के प्रयास तेज करने होंगे।
एमडीपीआई संकेतक बताते हैं कि हमें इस लड़ाई को कहां मजबूत बनाना है। इसके लिए न केवल देश में बल्कि हर प्रदेश और केंद्र शासित प्रदेश में तथा हर जिले में प्रयास होना चाहिए। गरीबी के खिलाफ लड़ाई के लिए आमूलचूल प्रयास करने होंगे। (लेखक जॉर्ज वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी के इंस्टीट्यूट फॉर इंटरनैशनल इकनॉमिक पॉलिसी के प्रतिष्ठित विजिटिंग स्कॉलर हैं)