पिछले एक वर्ष के दौरान दूध के दाम कई बार बढ़ाए गए हैं। इससे पहले दूध के दाम यदा-कदा ही इतने बढ़े थे। मदर डेयरी, अमूल एवं अन्य सहकारी और निजी क्षेत्र की दुग्ध उत्पादक इकाइयां 2022 की शुरुआत से विभिन्न चरणों में दूध के खुदरा दाम में 10 रुपये प्रति लीटर से अधिक का इजाफा कर चुकी हैं।
दुग्ध उद्योग क्षेत्र के विशेषज्ञ इस वर्ष गर्मी में दूध की कीमतों में और वृद्धि से इनकार नहीं कर रहे हैं। इसका कारण यह है कि गर्मी के दिनों में मवेशियों की दूध देने की क्षमता कम हो जाती है और हरी घास एवं चारे की उपलब्धता भी कम हो जाती है।
दूसरी तरफ, दही, लस्सी और आइसक्रीम जैसे दुग्ध उत्पादों की मांग बढ़ जाती है। भारत दुनिया में दूध का सबसे बड़ा उत्पादक देश है मगर गर्मी के दिनों में मांग पूरी करने के लिए इसे दुग्ध उत्पादों का आयात करना पड़े तो इसमें किसी को कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
दूध के दाम में वृद्धि की सबसे बड़ी वजह मवेशियों के लिए चारा और घास की कमी है। चारे की कमी के कारण इनकी कीमतों में बेतहाशा वृद्धि हुई है। दुग्ध उत्पादन पर जितनी लागत आती है, उसका 65 प्रतिशत हिस्सा चारे पर खर्च होता है। आधिकारिक थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यूपीआई) के अनुसार चारे की कीमतें बढ़ने की दर जनवरी 2022 में 7.14 फीसदी थी, जो जनवरी 2023 में बढ़कर 29.30 फीसदी हो गई। उद्योग सूत्रों के अनुसार चारे और पशु आहार की औसत कीमत पिछले 1 साल में 2 गुनी से भी ज्यादा हो गई है। पशु आहार में अनाज, तिलहन खली, गुड़ एवं अन्य सामग्री (संकेंद्रित चारा) शामिल है।
कोविड महामारी के बाद आपूर्ति तंत्र में व्यवधान और मवेशियों में चमड़ी पर गांठ (लंपी स्किन) की बीमारी फैलने से भी दूध उत्पादन में कमी आई है। इसका नतीजा दूध के दामों में बेतहाशा वृद्धि के रूप में देखने को मिला है। एक अनुमान के अनुसार लंपी बीमारी से 75,000 मवेशियों की मौत हो चुकी है। देश के करीब 10 राज्यों में इस बीमारी से संक्रमित मवेशियों में दूध देने की क्षमता काफी घट गई है। दाम बढ़ने की एक और वजह है।
कोविड महामारी के दौरान कृत्रिम गर्भाधान जैसी पशु चिकित्सा सेवाओं में व्यवधान पहुंचने से पशुओं का प्रजनन चक्र बिगड़ गया है। इस वजह से किसान उनको पूरा चारा नहीं दे पा रहे हैं। इसका सीधा असर उनके स्वास्थ्य और दूध उत्पादन क्षमता पर हो रहा है। महामारी के जन्म लेने वाले बछड़े (गाय एवं भैंस के) जो अब गाय और भैंस बन चुके हैं, वे अधिक दूध नहीं दे पा रहे हैं।
हालांकि ये सब अस्थायी समस्याएं हैं और समय के साथ दूर भी हो जाएंगी मगर चारे की कमी गंभीर समस्या है। यह लगातार बनी हुई है। दुग्ध उत्पादन में स्थिरता के लिए इस समस्या का दीर्घकालिक समाधान जरूरी है। दुनिया के किसी भी देश की तुलना में भारत में पशुओं की आबादी विश्व में सर्वाधिक है। यहां दूध मात्रा एवं मूल्य दोनों दृष्टिकोण से सबसे बड़ा कृषि जिंस हो गया है।
देश में दुग्ध उत्पादन अब दो प्रमुख खाद्यान्न चावल एवं गेहूं के संयुक्त उत्पादन के बराबर हो गया है। पशुपालन आर्थिक रूप से पिछड़े परिवारों की आय में एक बड़ा योगदान देता है, खासकर छोटे एवं सीमांत किसानों और भूमिहीन ग्रामीण लोगों के लिए यह आय का प्रमुख माध्यम है। यही कारण है कि चारे की कमी और इसके दाम में वृद्धि से गांव में दुग्ध उत्पादकों और शहर में इसके उपभोक्ताओं दोनों पर असर हो रहा है।
चारे की कमी देश में कोई नई या अनजान समस्या नहीं है। बावजूद इस पर कभी ध्यान नहीं दिया गया। लेकिन यह समस्या अब विकराल रूप ले चुकी है। हालत यहां तक पहुंच चुकी है कि पशुओं के लिए हरित एवं सूखे चारे की कमी और प्रोटीन युक्त भोजन का अनुमान भी उपलब्ध नहीं है। इस संबंध में विभिन्न संगठनों के आंकड़ों में काफी भिन्नता पाई जाती है और वे अलग-अलग मानदंडों पर तैयार किए जाते हैं।
कुछ एजेंसियों के अनुसार देश में हरित चारे की कमी 35 फीसदी और सूखे चारे की कमी 11 प्रतिशत तक पहुंच चुकी है। संकेंद्रित आहार की कमी 44 फीसदी तक हो गई है। भारतीय कृषि शोध एवं अनुसंधान परिषद के अनुसार देश में हरे चारे की कमी 11 प्रतिशत और सूखे चारे एवं आहार की कमी 23 प्रतिशत है।
परिषद दुधारू पशुओं और उम्र और लिंग के आधार पर भविष्य में आवश्यक आहार की जरूरत को ध्यान में रखकर आंकड़े तैयार करती है। वर्ष 2012 और 2019 में मवेशी जनगणना के अनुसार वर्णसंकर गाय एवं भैंसों की संख्या क्रमशः 43.6 प्रतिशत और 12.71 प्रतिशत बढ़ी है। ये मवेशी देसी गाय की तुलना में अधिक चारा एवं आहार लेते हैं।
देश में जितना दुग्ध उत्पादन होता है उसका 80 प्रतिशत हिस्सा असंगठित क्षेत्र से आता है। इन क्षेत्रों में दुग्ध किसान चारे के लिए सार्वजनिक चारागाह और गांव में उपलब्ध घास के मैदान एवं पौधों पर निर्भर रहते हैं। इनमें ज्यादातर घास के मैदान खराब स्थिति में है क्योंकि उनकी देखभाल करने का जिम्मा कोई नहीं लेता है और ना ही इस ओर किसी का ध्यान जाता है।
लिहाजा, गांवों में चारे के स्रोत के उपयुक्त रखरखाव एवं प्रबंधन के लिए योजनाएं शुरू करने की जरूरत है। इन क्षेत्रों में अधिक तेजी से बढ़ने वाली प्राकृतिक घास एवं अन्य पौधे लगाकर चारे की समस्या को हल किया जा सकता है। घास एवं पौधों के रखरखाव के लिए स्थानीय समुदायों को शामिल किया जा सकता है।
गांव में साझा जमीन के प्रबंधन के लिए संयुक्त वन प्रबंधन जैसे संकल्पनाएं अमल में लाई जा सकती हैं। इस कार्य में वन अधिकारी और स्थानीय समुदायों के प्रतिनिधि शामिल हो सकते हैं। देश में जब तक उचित कीमतों पर चारा एवं भोजन उपलब्ध नहीं होंगे तब तक देश में श्वेत क्रांति की धारा बनाए रखना और दूध के दाम में बेतहाशा वृद्धि को रोक पाना मुश्किल होगा।