कई सप्ताह पहले ऐसी खबर आई थी कि ट्रंप प्रशासन एक राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति (एनएसएस) दस्तावेज पर काम कर रहा है जो राष्ट्रपति के रूप में उनके शेष कार्यकाल के दौरान विदेश नीति और रक्षा नीति को लेकर उनके इरादे दर्शाएगा। इसे जारी करने में कुछ देरी ही हुई क्योंकि दस्तावेज के प्रस्तावों पर विभिन्न समूहों ने आपत्ति जताई थी, जिनमें ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ (मागा) समर्थक आधार, रिपब्लिकन पार्टी का पारंपरिक अभिजात वर्ग और विदेश नीति तथा सुरक्षा प्रतिष्ठान शामिल थे। ये अब भी प्रभावशाली हैं, यद्यपि इस प्रशासन के तहत उनका प्रभाव कम हो गया है।
मागा समर्थक वर्ग की वैचारिक छाप स्पष्ट नजर आती है। उदाहरण के लिए यूरोपीय सहयोगियों पर खुले हमलों में, जहां वर्तमान सरकारों को वैचारिक विरोधी के रूप में निशाना बनाया गया। यह लगभग उसी तरह है जैसे इस वर्ष फरवरी में म्यूनिख सुरक्षा सम्मेलन में अमेरिका के उपराष्ट्रपति जेडी वेंस ने यूरोप की मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों की सरकारों की तीखी आलोचना की थी। उन्होंने उन पर आरोप लगाया कि वे जर्मनी की एएफडी जैसी दक्षिणपंथी राजनीतिक पार्टियों को दबाकर लोकतांत्रिक सिद्धांतों को कमजोर कर रही हैं। कहा गया कि यूरोप की पूरी सभ्यता खतरे में है। खासतौर पर इसलिए कि उसने ट्रंप प्रशासन की आप्रवासन विरोधी नीतियों का पालन नहीं किया और इस कारण अपनी यूरोपीय पहचान खो सकता है।
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अमेरिका के यूरोपीय साझेदारों पर भी यूक्रेन में शांति स्थापित करने के प्रयासों में बाधा डालने का आरोप लगाया गया है, जबकि कहा जाता है कि यूरोप की जनता युद्ध समाप्त करने का समर्थन करती है। एनएसएस अपने एक प्रमुख उद्देश्य के रूप में यूरोप और रूस के बीच ‘रणनीतिक स्थिरता की पुनर्स्थापना’ की आवश्यकता को रेखांकित करती है। आश्चर्य नहीं कि रूस ने एनएसएस का स्वागत किया है क्योंकि यह उसके हितों के अनुरूप नजर आती है।
एनएसएस को व्यापक अर्थों के अलावा अमेरिकी विदेशी नीति और सुरक्षा नीति के निर्देशक के रूप में नहीं देखा जा सकता है। फिर भी यह यूरोप के साथ जुड़ाव में एक बदली हुई मानसिकता को दर्शाती है। एक ‘संगठित पश्चिम’ की धारणा अब अस्तित्व में नहीं रही है, जिससे यूरोप अस्तित्व के संकट का सामना कर रहा है।
एनएसएस पश्चिमी गोलार्ध पर रणनीतिक रूप से ध्यान केंद्रित करने की पुष्टि करती है। आर्कटिक से अंटार्कटिका तक पश्चिमी गोलार्ध पर निर्विवाद प्रभुत्व को, जिसे मोनरो सिद्धांत का ‘ट्रंप परिशिष्ट’ कहा गया है, अमेरिका के अग्रणी शक्ति बने रहने की कुंजी के रूप में प्रस्तुत किया गया है। यह सिद्धांत अमेरिकी राष्ट्रपति जेम्स मोनरो ने 1823 में स्थापित किया था ताकि किसी भी यूरोपीय या बाहरी शक्ति को अमेरिका महाद्वीप में प्रभाव डालने से रोका जा सके। ट्रंप इस नीति को पुनर्जीवित करने का दावा कर रहे हैं।
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वेनेजुएला के खिलाफ विशाल सैन्य शक्ति का मौजूदा प्रदर्शन इसी इरादे का प्रमाण है। इस क्षेत्रीय बदलाव के साथ-साथ वैश्विक प्रभुत्व बनाए रखने के उद्देश्य को स्पष्ट रूप से अस्वीकार किया गया है; इसके बजाय अन्य भू-राजनीतिक क्षेत्रों में शक्ति संतुलन को अपनाया गया है और इसमें हिंद-प्रशांत क्षेत्र भी शामिल है।
अमेरिका जब अपने लिए वैश्विक प्रभुत्व की दुर्भाग्यपूर्ण अवधारणा को अस्वीकार कर रहा है, हमें दूसरों के वैश्विक और कुछ मामलों में क्षेत्रीय प्रभुत्व को रोकना होगा (नोट: पश्चिमी गोलार्ध में अपने लिए एक अपवाद बनाते हुए) । इसके बाद एक असाधारण वक्तव्य आता है, जो विश्व मामलों के प्रबंधन में अन्य प्रमुख शक्तियों को साथ लेने की आशा को दर्शाता है।
वह यह कि ‘बड़े, अधिक संपन्न और अधिक शक्तिशाली राष्ट्रों का अत्यधिक प्रभाव अंतरराष्ट्रीय संबंधों का एक शाश्वत सत्य है। यह वास्तविकता कभी-कभी उन साझेदारों के साथ काम करने की मांग करती है, जिनके साथ मिलकर हम उन महत्त्वाकांक्षाओं को विफल कर सकें जो हमारे साझा हितों को खतरे में डालती हैं।’
यही वह पृष्ठभूमि है जिसके आधार पर ट्रंप बार-बार रूस को जी-7 में पुनः शामिल करने और चीन को इस समूह में आमंत्रित करने की बात करते रहे हैं।
एनएसएस में हिंद-प्रशांत को लेकर कोई अलग हिस्सा नहीं है, जबकि 2017 में ट्रंप प्रशासन द्वारा अपनाई गई एनएसएस में इस क्षेत्र को लेकर रणनीति प्रस्तुत की गई थी, जिसमें क्वाड्रिलैटरल (अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, जापान और भारत) के पुनर्जीवन ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इसके स्थान पर अब एक भाग है जिसका शीर्षक है : ‘एशिया: आर्थिक भविष्य बनाएं, सैन्य टकराव रोकें।’ इसमें यह स्वीकार किया गया है कि हिंद-प्रशांत ‘पहले से ही है और आने वाले शताब्दी में भी प्रमुख आर्थिक और भू-राजनीतिक संघर्ष क्षेत्रों में से एक रहेगा।’
अमेरिका को हिंद-प्रशांत में सफलतापूर्वक प्रतिस्पर्धा करनी होगी और इस उद्देश्य के लिए राष्ट्रपति ट्रंप को ‘हिंद-प्रशांत में गठबंधनों के निर्माण और साझेदारियों को मजबूत करने’ का श्रेय दिया गया है, जो भविष्य में लंबे समय तक सुरक्षा और समृद्धि की नींव बनेगा।
इस संदर्भ में चीन का उल्लेख नहीं किया गया है लेकिन स्पष्ट रूप से वही निशाने पर है। बहरहाल, इसे चीन के साथ प्रस्तावित प्रतिस्पर्धा के मूलतः आर्थिक और तकनीकी आयाम से संतुलित करना होगा, जिसमें सफलता अधिक प्रभावी निरोध को संभव बनाएगी। सैन्य श्रेष्ठता बनाए रखने को प्राथमिकता के रूप में संदर्भित किया गया है। इस श्रेष्ठता को इस रूप में स्पष्ट किया गया है कि अमेरिका और उसके सहयोगी ऐसे किसी भी प्रयास को विफल कर सकें जो ताइवान पर कब्जा करने या ऐसी शक्ति-संतुलन की स्थिति बनाने की कोशिश करे जो हमारे लिए इतना प्रतिकूल हो जाए कि ताइवान की रक्षा करना असंभव हो जाए।
यह तकरीबन वैसा ही है जैसे कि चीन द्वारा ताइवान पर हमले के विरुद्ध उसकी रक्षा की प्रतिबद्धता। उत्तर कोरिया के मुद्दे को सुरक्षा चिंता के रूप में नजरअंदाज किया गया है। सामान्य रूप से देखें तो आतंकवाद, परमाणु हथियारों का प्रसार और महामारी जैसी वैश्विक चुनौतियों का कोई उल्लेख नहीं मिलता। बहुपक्षीय संस्थाओं और दृष्टिकोणों को राष्ट्रीय संप्रभुता के इस्तेमाल से ध्यान भटकाने वाला माना गया है।
एक: अमेरिका का वैश्विक भूमिका से स्पष्ट रूप से पीछे हटना, लेकिन पश्चिमी गोलार्ध (अमेरिकी महाद्वीप और उसके निकटवर्ती क्षेत्र) पर निर्विवाद प्रभुत्व का दावा।
दो: ‘पश्चिम’ की अवधारणा को नए सिरे से परिभाषित करना। केवल कल्पना ही नहीं, बल्कि सक्रिय रूप से एक ऐसे यूरोप के लिए कार्य करना जो वैचारिक और रणनीतिक रूप से अमेरिका के साथ जुड़ा हो। इसमें किसी भी यूरोपीय सुरक्षा ढांचे में रूस की भूमिका को स्वीकार किया गया है।
तीन: महाशक्तियों से यह अपेक्षा कि भले ही उनके अमेरिका से संबंध सहज न हों, वैश्विक मामलों के प्रबंधन में साझेदार बनें। यह चीन और रूस जैसी विशाल शक्तियों तक पहुंच को उचित ठहराता है।
चार: हिंद-प्रशांत के प्रति दृष्टिकोण में अधिक निरंतरता और इस भू-राजनीतिक क्षेत्र में सुरक्षा बनाए रखने में भारत की भूमिका की दोबारा पुष्टि।
(लेखक पूर्व विदेश सचिव हैं। ये उनके निजी विचार हैं)