संसद के दोनों सदनों में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर हुई चर्चा का जवाब देते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हमें सात दशक पीछे ले गए और उन्होंने नेहरू-गांधी परिवार की उन गलतियों को याद किया जो उसने आजाद भारत के इतिहास में की थीं।
इससे एक और प्रश्न उत्पन्न होता है: आजाद भारत में किसी भी राजनीतिक दल या नेता की सबसे बड़ी और असरदार राजनीतिक भूल क्या थी? केवल एक गलती का चयन करना मुश्किल है इसलिए हम तीन गलतियां चुनेंगे। हम इसके लिए बीते 50 वर्षों की अवधि को ही खंगालेंगे।
आगे बढ़ते हुए मैं उन्हें अपनी समझ से महत्त्व या असर के मुताबिक सूचीबद्ध करूंगा। पहले हमें यह स्पष्ट करना जरूरी है कि हम इन भूलों को किस तरह परिभाषित करते हैं।
पहली बात, इन्हें पूरी तरह हमारी राजनीति से संबंधित होना चाहिए। किसी भी तरह की आर्थिक, विदेश नीति संबंधी और सामाजिक नीतियों से संबंधित गलतियों को इससे बाहर रखा जा रहा है।
दूसरा, कौन सी गलती बुरी या सबसे बुरी थी इसे आंकने के लिए नैतिकता या सही गलत की कसौटी नही रखी गई है।
और तीसरी बात, भूल के बुरा होने और तीन बड़ी गलतियों में शामिल होने तथा इनकी सूची में अव्वल होने के लिए भूल ऐसी होनी चाहिए जो इतनी असरदार हो कि उसने दशकों के लिए देश की राजनीति की दिशा बदल दी हो। असर जितना लंबा हो भूल उतनी ही बड़ी।
अब मैं अपनी समझ से सबसे बड़ी तीन भूलों को क्रमबद्ध तरीके से प्रस्तुत करता हूं:
सबसे पहले आप मुझसे यह पूछ सकते हैं कि हम आपातकाल लागू करने को सबसे बड़ी राजनीतिक भूलों में शामिल क्यों नहीं कर रहे हैं? केवल आरएसएस कार्यकर्ताओं को निशाना बनाने और जेल में बंद करने को ही इसमें शामिल क्यों किया? इसका जवाब एकदम सीधा है। इंदिरा गांधी पर आपातकाल लगाने का इल्जाम लंबे समय तक नहीं टिका, 1977 के चुनाव में हार के रूप में उनकी गलतियों की सजा मिल चुकी थी। तीन साल के भीतर वह दोबारा सत्ता में आ गईं।
अगर आपातकाल के बाद के 46 वर्षों की बात करें तो उनकी पार्टी 25 वर्षों तक सत्ता में रही। इसका अर्थ यही हो सकता है कि लोगों ने उन्हें आपातकाल के लिए माफ कर दिया था। परंतु उनके द्वारा आरएसएस को निशाना बनाए जाने का असर लंबे समय तक नजर आया। पहली बात, इससे आरएसएस को एक राजनीतिक शक्ति के रूप में वैधता मिल गई और वह कांग्रेस के प्रमुख वैचारिक शत्रु के रूप में स्थापित हो गया। इसके पहले कांग्रेस की सबसे बड़ी ताकत यह थी कि उसे किसी एक विचारधारा से लड़ने की जरूरत नहीं पड़ी थी।
इससे पहले कभी मामला कांग्रेस बनाम अन्य विचारधारा का नहीं था। प्राय: अनजाने और सामान्य आरएसएस कार्यकर्ताओं को बड़े पैमाने पर गिरफ्तार किए जाने से उसके प्रति लोगों के मन में सम्मान पैदा हो गया। समय बीता और जन संघ का भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के रूप में पुनर्जन्म हुआ। बाद के दशकों में कांग्रेस कमजोर हुई और भाजपा उसकी इकलौती वैचारिक शत्रु के रूप में उभरी।
अगर उन्होंने आरएसएस को निशाना नहीं बनाया होता तो नरेंद्र मोदी दूसरी बार बहुमत से सरकार बनाकर तीसरी बार सत्ता हासिल करने की ओर नहीं बढ़ रहे होते। सन 1989 के आम चुनाव में राजीव गांधी की कांग्रेस को 197 सीट पर जीत मिली जबकि 1984-85 में पार्टी को 414 सीट पर जीत मिली थी।
1989 में दूसरा सबसे बड़ा दल जनता दल था जिसके नेता विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री पद के स्वाभाविक दावेदार थे। जनता दल को केवल 143 सीट पर जीत मिली थी। कांग्रेस के सरकार बनाने का दावा नहीं करने से सबसे बड़े वैचारिक शत्रु भाजपा और वाम दलों को साथ आने का मौका मिला और बाहरी समर्थन से विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व वाली सरकार बनी। राजीव गांधी ने सोचा होगा कि ऐसा विरोधाभासी गठजोड़ टिकाऊ साबित नहीं होगा और नए चुनाव में वह दोबारा जीतकर आ जाएंगे। परंतु उनके आकलन में कई गलतियां थीं।
सबसे बड़ी गलती थी इस बात को नहीं समझा कि लाल कृष्ण आडवाणी को भाजपा को कांग्रेस का राष्ट्रीय विकल्प बनने का अवसर देना कितना बड़ा जोखिम है। भाजपा की सीटें जल्दी ही तीन अंकों में पहुंच गईं और सन 1998 में उसने क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन करके सरकार बना ली। पार्टी ने अन्य दलो के बीच अपनी अस्पृश्य छवि को समाप्त कर दिया था क्योंकि उसे मंडलवादी दलों और वाम दलों के साथ गठबंधन करने में कामयाबी मिली थी जो 1989 में राजीव गांधी की ओर से उसके लिए तोहफा था।
बाद में 15 वर्षों तक उनकी पार्टी सत्ता में बनी रही लेकिन वह लगातार कमजोर होती गई। इस गलत आकलन ने भारतीय राजनीति में कांग्रेस के प्रभुत्व का अंत किया और 2014 में भाजपा का समय शुरू हुआ।
इस बारे में सोचिए। कांग्रेस ने 197 सांसद होने के बावजूद सत्ता को ठुकरा दिया था जबकि अगले 20 सालों तक यानी 1996, 1998, 1999 और 2004 में सरकार बनाने वाली पार्टी के पास इससे कम सीट थीं। कांग्रेस ने 2009 में एक बार फिर 206 सीट पाकर अपने पुराने प्रदर्शन को सुधारा। हम केवल गठबंधन सरकारों की बात कर रहे हैं और नरसिंह राव के नेतृत्व वाली कांग्रेस की अल्पमत सरकार (1991-1996) को इसमें शामिल नहीं कर रहे हैं।
राजीव गांधी भविष्य में गठबंधन की अपरिहार्यता को समझ नहीं पाए और उन्होंने आसानी से अपने प्रतिपक्षियों को सत्ता सौंप दी और इस बात ने देश की राजनीति की दिशा ही बदल दी।
जनवरी 2004 तक भाजपा नेतृत्व जोश में आ चुका था क्योंकि तीन हिंदी भाषी राज्यों मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में उसे जीत मिली थी। उन्होंने मान लिया कि बाकी हिंदी भाषी प्रदेशों में भी ऐसा ही होगा। प्रमोद महाजन समेत उनके थिंक टैंक और आडवाणी के करीबी लोगों को लगा कि इस लहर का लाभ लेने के लिए समय से पहले चुनाव कराना उचित होगा। अटल बिहारी वाजपेयी इस पर संदेह कर रहे थे किंतु उनकी अनदेखी कर दी गई।
आडवाणी के समर्थकों का एक और उद्देश्य था जो शायद ही किसी से छिपा था: वह यह कि वाजपेयी की सेहत पांच वर्षों तक साथ नहीं देगी और आडवाणी आसानी से उनके उत्तराधिकारी बन जाएंगे। तीन तिमाहियों तक भारत की औसत वृद्धि दर आठ फीसदी रही। इसके चलते इंडिया शाइनिंग अभियान शुरू किया गया।
इस बीच भाजपा वह करना भूल गई जिसके चलते वह सत्ता में आई थी यानी अपने गठबंधन साझेदारों को साथ रखना। नतीजतन उसे सत्ता गंवानी पड़ी। भाजपा 138 सीट पर सिमट गई। कांग्रेस को उससे सात सीट अधिक मिलीं। गुजरात दंगों के बाद पुराने सहयोगियों में से कुछ दोबारा भाजपा को अस्पृश्य मानने लगे थे।
कांग्रेस न केवल एक दशक के लिए दोबारा सत्ता में आई बल्कि इस दौरान आडवाणी तथा उनके साथ के तमाम नेताओं का करियर भी समाप्त हो गया। बीच की अवधि ने मोदी को तैयारी का पर्याप्त समय दिया और उनका उदय हुआ।
अब रैंकिंग की बात करते हैं। मैं राजीव गांधी को शीर्ष पर रखूंगा क्योंकि उन्होंने जो किया उसका देश की राजनीति के भविष्य पर सबसे गहरा असर हुआ। उनकी मां ने आरएसएस को जो वैधता दी उसकी तुलना में राजीव की भूल इसलिए बड़ी थी क्योंकि वह 1984 तक आरएसएस को हाशिये पर रखने में कामयाब रहीं। उनकी मौत के बाद भी दिसंबर 1984 में हुए चुनाव में राजीव ने भाजपा को दो सीट पर समेट दिया था।
अगर उन्होंने 1989 में इतनी आसानी से सत्ता न सौंपी होती तो उसके बाद के दशक की राजनीति बहुत अलग होती। उस लिहाज से देखें तो उन्होंने अपनी मां की गलती में इजाफा किया। उन्होंने आरएसएस को राष्ट्रीय कद और सम्मान दिलवाया। आडवाणी की गलती इस तथ्य में निहित है कि इसने उनकी ही आकांक्षाओं को नष्ट कर दिया। यकीनन इससे मोदी की राह आसान हुई जिन्होंने उन्हें भारत रत्न देकर धन्यवाद ज्ञापित किया।