करीब 27 वर्षों तक आगे-पीछे करने के बाद महिला आरक्षण विधेयक मंगलवार को एक बार फिर संसद में पेश किया गया। यह विधेयक 128वें संविधान संशोधन द्वारा आहूत एक विशेष सत्र में प्रस्तुत किया गया। विधायक के मुताबिक महिलाओं को लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं में 33 फीसदी आरक्षण की गारंटी देने का प्रावधान है। मगर अभी इसमें वक्त है और यह पारित हो गया तो भी परिसीमन की कवायद पूरी होने के बाद ही लागू हो सकेगा।
खुद परिसीमन का काम इस पर निर्भर करेगा कि जनगणना कब तक पूरी होती है। हालांकि यह समय भी व्यर्थ नहीं जाएगा क्योंकि इसमें सरकार को सावधानी के साथ नियम तैयार करने का मौका मिलेगा। हम हाल के वर्षों में देख ही चुके हैं कि अफरमेटिव एक्शन ( ऐतिहासिक रूप से पिछड़ों को आगे लाने के लिए उपाय) के दायरे का विस्तार राजनीतिक हितों को ध्यान में रखते हुए किया गया है। ऐसे में महिला आरक्षण को लागू करने में अगर महिलाओं के अहम सामाजिक-आर्थिक लक्ष्यों को ध्यान में रखते हुए कार्यक्रम तैयार नहीं किया गया तो उसके भी ऐसे ही अनचाहे परिणाम आ सकते हैं।
उदाहरण के लिए इसे 15 वर्षों की अवधि के लिए लाया जाना चाहिए। गौरतलब है कि अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों के लिए शिक्षा और रोजगार के वास्ते मूल रूप से 10 वर्षों के आरक्षण की व्यवस्था की गई थी लेकिन यह अब तक चल रहा है। इसी प्रकार लोक सभा और राज्यों की विधानसभाओं में इन वर्गों के लिए 70 वर्ष का कोटा 2020 में समाप्त होना था लेकिन इसे 10 वर्षों के लिए बढ़ा दिया गया।
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यह पहल स्वागतयोग्य है परंतु यह भी अहम है कि यह कानून सांकेतिक न रह जाए और इसका उद्देश्य केवल चुनावों के दौरान वोट बटोरना या वैश्विक सूचकांकों में भारत की रैंकिंग बढ़ाना भर न रह जाए। इस कानून की असली परीक्षा इस बात में निहित है कि यह देश की आधी आबादी को शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण और स्वच्छता तथा रोजगार बेहतर तरीके से उपलब्धा कराने में किस हद तक मददगार साबित होता है। हालिया प्रमाणों को देखें तो यह अपेक्षा बेतुकी भी नहीं है।
2013 में यह विविध दलों वाली एक पहल थी, जिसे महिला सांसदों ने अंजाम दिया था और जिसकी बदौलत बलात्कार और कार्यस्थल पर यौन शोषण के खिलाफ अधिक कठोर कानून पारित हो सके। लोकसभा में इसके लक्ष्य को हासिल करना अपेक्षाकृत आसान होना चाहिए क्योंकि समय के साथ महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ा है।
परंतु राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में चुनौती बढ़ सकती है। कोई भी राज्य राष्ट्रीय औसत की बराबरी नहीं कर सका है और पारंपरिक रूप से मातृसत्तात्मक समाज वाले पूर्वोत्तर राज्यों और केरल में भी इसका प्रतिशत शून्य से नौ के बीच है।
इस लिहाज से देखा जाए तो हालिया इतिहास बताता है कि स्त्री-पुरुष भेद के पहलुओं को हल करने में संवैधानिक प्रावधानों की अपनी सीमा है। हालांकि भारत उन चुनिंदा देशों में शुमार है, जिन्होंने कई विकसित देशों से भी पहले महिलाओं को मतदान का अधिकार प्रदान किया था। महिलाओं के राजनीतिक और आर्थिक सशक्तीकरण को सुनिश्चित करने की राह में तमाम चुनौतियां रही हैं।
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पंचायतों में महिलाओं की कम भागीदारी और श्रम शक्ति में उनका कम नजर आना भी यही दर्शाता है। यह ध्यान रखना भी महत्त्वपूर्ण है कि अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देश जहां कोई संसदीय कोटा नहीं है या ऑस्ट्रेलिया, यूरोप के कुछ हिस्से जहां स्वैच्छिक पार्टी कोटा या विधायी प्रत्याशी कोटा है, वहां स्त्री-पुरुष समानता पहले से ही बेहतर स्थिति में है।
दूसरी ओर नेपाल, पाकिस्तान, किर्गिजस्तान, उज्बेकिस्तान, युगांडा, रवांडा, सूडान, नाइजर, बांग्लादेश, फिलिपींस और इंडोनेशिया जैसे देशों में विधायिका में महिलाओं के लिए आरक्षण मौजूद है और इनमें से कुछ को ही स्त्री-पुरुष समानता में बेहतर माना जा सकता है। यहां इंडोनेशिया, फिलिपींस और बांग्लादेश अपवादस्वरूप हैं जो बताते हैं कि जीवंत आर्थिक उदारकीरण महिला सशक्तीकरण में कितनी अहम भूमिका निभा सकता है। ऐसे में आर्थिक वृद्धि हमेशा स्त्री-पुरुष समानता कानूनों का सबसे अहम कारक रहेगी।