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सरकार के हाथों में वृद्धि का पांसा

मजबूत और टिकाऊ वृद्धि में यकीन के लिए हमें पहले अपने वृद्धि मॉडल को समझना होगा और उस पर यकीन करना होगा।

Last Updated- September 18, 2023 | 10:19 PM IST
Indian economic growth

वर्ष 2022 में मुद्रास्फीति, उच्च ब्याज दरों और आर्थिक मंदी आदि के कारण विश्व स्तर पर जो निराशाजनक परिदृश्य बना वह 2023 में भी जारी रहा लेकिन मार्च तिमाही में परिदृश्य बदलता नजर आया। अमेरिका में मुद्रास्फीति की दर गत वर्ष जून के 9.1 फीसदी से कम होकर अब 3.2 फीसदी रह गई। यूरो क्षेत्र में यह 10.6 फीसदी से कम होकर 6.9 फीसदी रह गई है। स्पेन में यह केवल 3 फीसदी है।

2022 के संकट की तमाम लहरों के बीच भारतीय बाजार ने अपनी स्थिति बरकरार रखी। अगर कोई आपसे वर्ष 2022 में निफ्टी के प्रतिफल के बारे में पूछे तो संभवत: आप कहेंगे 10 फीसदी से कम। कुल मिलाकर बीता वर्ष शेयरों के लिए अच्छा नहीं रहा। वहीं निफ्टी 2022 में 4.33 फीसदी ऊपर था। मुद्रास्फीति की दर में गिरावट आने के साथ ही भारत ने ब्याज दरों में इजाफा रोक दिया और अब इस बात को लेकर भी आशावाद है कि हमने शायद मंदी का चक्रीय दौर पार कर लिया है और हमें मजबूत वृद्धि का आनंद लेना चाहिए।

सरकार समर्थित वृद्धि

मजबूत और टिकाऊ वृद्धि में यकीन के लिए हमें पहले अपने वृद्धि मॉडल को समझना होगा और उस पर यकीन करना होगा। मैं अभी इस बारे में स्पष्ट नहीं हूं कि भारत का वृद्धि मॉडल क्या होगा क्योंकि सरकार अपनी विचार प्रक्रिया के बारे में ज्यादा कुछ स्पष्ट नहीं करती है। वह केवल अपनी कामयाबियों के दावों के बारे में अथक रूप से जानकारियों का प्रसार करती है। हम विकास मॉडल को कर और व्यय के रूप में देख सकते हैं।

शायद 2014 के बाद मोदी सरकार यह यकीन करने लगी है कि भारी-भरकम सरकारी व्यय हमें समृद्धि की ओर ले जाएगा। यही वजह है कि रक्षा, रेलवे और बुनियादी ढांचे पर बहुत अधिक ध्यान दिया गया है। ये सभी भारी व्यय वाले क्षेत्र हैं जो सीधे केंद्र सरकार की निगरानी में रहते हैं। 2023-24 के बजट में 10 लाख करोड़ रुपये का पूंजीगत आवंटन करने की घोषणा की गई थी जिसमें रेल मंत्रालय के लिए 2.40 लाख करोड़ रुपये का आवंटन होना था जो पिछले वर्ष से 75 फीसदी अधिक था।

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रक्षा उत्पादन एवं निर्यात संवर्द्धन नीति 2020 (डीपीईपीपी) ने वित्त वर्ष 2025 तक 1.75 लाख करोड़ रुपये का महत्त्वाकांक्षी राजस्व लक्ष्य तय किया है। यानी 2019 से 2025 के बीच सालाना समेकित 15 फीसदी की वृद्धि। घरेलू उद्योग से खरीद वित्त वर्ष 2025 तक दोगुनी होकर 1.40 लाख करोड़ रुपये तक की हो जाएगी।

यह स्पष्ट नहीं है कि सरकारी व्यय पर आधारित यह वृद्धि मॉडल डिफॉल्ट मॉडल है या फिर निजी क्षेत्र को जकड़े रखने का अनियोजित नतीजा है। वर्ष 2014 से 2022 के बीच की समूची वृद्धि सरकारी उधारी और व्यय से उत्पन्न हुई है। हमारे परिवार और कारोबार दोनों ने इसमें कुछ खास योगदान नहीं किया है। अगर यह चकित करने वाला लगता है तो केवल इसलिए क्योंकि हमें ताजा बातें भी भूलने की आदत है।

इस बढ़ती आलोचना को याद रखिए कि कैसे सरकार में लालफीताशाही कम नहीं हुई है और वह निजी क्षेत्र को दबाव में लाने का प्रयास कर रही है। इस सरकार के हर कदम का जमकर समर्थन करने वाले टी वी मोहनदास पई कुछ वर्ष पहले बहुत जोरशोर से यह कहते हुए सामने आए थे कि ‘‘कर आतंक जोरों पर है।

अनुपालन का बोझ बहुत अधिक बढ़ गया है। मनोविकार का भय उत्पन्न हो गया है। सरकारी अधिकारियों के बीच ऐसी भावना है कि सभी कारोबारी धोखेबाज हैं और हमें उन पर कदम उठाने ही चाहिए। मैंने मुंबई में कभी लोगों का मिजाज और नैतिक बल इतना नीचे नहीं देखा। कारोबारियों ने उम्मीद खो दी है।’’

स्वर्गीय राहुल बजाज ने कहा था, ‘न तो कोई मांग है और न ही निजी निवेश हो रहा है। तो वृद्धि कहां से आएगी? वह आसमान से तो नहीं टपकेगी।’ लार्सन ऐंड टुब्रो के ए एम नाइक ने कहा था, ‘अगर सकल घरेलू उत्पाद वृद्धि 6.5 फीसदी भी रहती है तो हमें खुद को खुशकिस्मत समझना चाहिए।’ उन्होंने यह भी कहा कि उनको सरकारी आंकड़ों पर विश्वास नहीं है इसलिए वास्तविक वृद्धि का अनुमान लगाने के लिए हमें अपनी समझ का इस्तेमाल करना होगा।

2019 के आखिर तक हर आर्थिक संकेतक नकारात्मक था। बढ़ती बेरोजगारी, कमजोर निर्यात वृद्धि, दंडात्मक कर, कर आतंक, बढ़ता सरकारी क्षेत्र, जीडीपी वृद्धि दर का पहली तिमाही में 5 फीसदी तक गिरना, वाहन बिक्री का 20 वर्ष के निचले स्तर तक जाना, विनिर्माण वृद्धि का पततन और वित्तीय सेवा और बैंकिंग क्षेत्र में संकट।

मनमोहन सिंह जो हमेशा नरेंद्र मोदी के चुटकुलों के केंद्र में रहते, उनके लिए यह आसान था कि वे आसानी से यह कह सकते थे कि नॉमिनल जीडीपी वृद्धि 15 वर्ष के निचले स्तर पर थी, परिवार खपत चार दशक के निचले स्तर पर, बेरोजगारी 45 वर्ष के उच्चतम स्तर पर, बैंकों का फंसा हुआ कर्ज अपने अब तक के उच्चतम स्तर पर, बिजली उत्पादन वृद्धि 15 वर्ष के निचले स्तर पर वगैरह …वगैरह।

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मोदी सरकार आर्थिक माहौल बदल सकती थी अगर राज्य सरकार रेफरी की भूमिका निभाती और शांति स्थापित करने, शीघ्र न्याय देने की कोशिश करती और निजी संस्थानों को उद्यमिता बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित करती। बिजली, टोल, ईंधन और करों के क्षेत्र में अधोसंरचना लागत कम करने की कोशिश की जा सकती थी। इन ढांचागत बदलावों के बजाय सितंबर 2019 में सरकार ने कॉर्पोरेट क्षेत्र के करों में भारी कटौती की घोषणा कर दी ताकि वृद्धि को गति दी जा सके।

इस बारे में ठोस तरीके से कुछ कहा नहीं जा सकता है कि इस कदम से क्या लाभ हुए। शायद नहीं हुआ क्योंकि सरकार को कर और व्यय मॉडल के जरिये वृद्धि तैयार करने का बोझ अपने ऊपर लेना पड़ा। ढांचागत दृष्टि से कमजोर अर्थव्यवस्था में इस मॉडल की अपनी समस्याएं हैं।

कमजोर रुपया, लालफीताशाही के कारण गैर प्रतिस्पर्धी हो चुका निजी क्षेत्र और अधोसंरचना की भारी भरकम लागत भी मुश्किल पैदा करती है। विधायी और प्रशासनिक संस्थान भी राज्य क्षमता में इजाफा मुश्किल करते हैं, भले ही इरादा कुछ भी हो। विकास का पांसा राज्य के भारी भरकम हाथों में है। उम्मीद की जानी चाहिए कि पांसा हमारे हक में गिरे।

(लेखक मनीलाइफडॉटइन के संपादक हैं)

First Published - September 18, 2023 | 10:19 PM IST

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