जब हम यह विचार करते हैं कि 7,500 किलोमीटर लंबी तटरेखा और 200 से अधिक बंदरगाहों वाला देश भारत, दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के लिए तैयार है तब यह बात विरोधाभासी लगती है कि उसके पास अपना सार्थक अंतरराष्ट्रीय ट्रांसशिपमेंट बंदरगाह (ऐसा बंदरगाह जहां एक जहाज से माल उतारकर दूसरे में लादा जाता है ताकि वह अंतिम गंतव्य तक पहुंच सके) नहीं है।
मात्रा के हिसाब से देश का लगभग 95 प्रतिशत व्यापार और मूल्य के हिसाब से 68 प्रतिशत व्यापार, समुद्री परिवहन के माध्यम से होता है। हालांकि हमारे समुद्री बुनियादी ढांचे में यह कमी लंबे समय से है।
लेकिनअब अंडमान के ग्रेट निकोबार द्वीप में गैलाथिया खाड़ी में एक मेगा-परियोजना के हिस्से के रूप में एक अंतरराष्ट्रीय कंटेनर ट्रांसशिपमेंट पोर्ट (आईसीटीपी) बनाने का प्रस्ताव दिया गया है। यह स्थान प्राकृतिक रूप से कम से कम 20 मीटर गहरा है और पूर्व-पश्चिम अंतरराष्ट्रीय नौवहन मार्ग से केवल आठ समुद्री मील दूर है, जिसका उपयोग दुनिया के 40 प्रतिशत व्यापारिक माल की ढुलाई करने वाले जहाज करते हैं।
यह मेगा-परियोजना 1.6 करोड़ टीईयू (बीस फुट बराबर यूनिट) क्षमता वाले एक आईसीटीपी के आसपास केंद्रित है जिसे एक अंतरराष्ट्रीय हवाईअड्डे, एक टाउनशिप और एक गैस तथा सौर बिजली संयंत्रों का समर्थन है। इस सब पर 72,000 करोड़ रुपये की लागत का अनुमान है, जिसमें से लगभग 41,000 करोड़ रुपये आईसीटीपी के लिए विभिन्न चरणों में दिए जाएंगे और इसका संचालन 2028 तक शुरू हो जाएगा।
परियोजना के लिए 131 वर्ग किलोमीटर पुरानी वन भूमि सहित लगभग 244 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र खाली करना होगा। हालांकि संरक्षणवादियों ने पारिस्थितिकी खतरे को लेकर आगाह किया है जिनमें लुप्तप्राय जीवों, 800,000 पेड़ों की कटाई और स्थानीय जनजातियों (शोम्पेन और निकोबारी) पर पड़ने वाले प्रभाव भी शामिल हैं। राष्ट्रीय हरित अधिकरण द्वारा नियुक्त एक उच्चाधिकार प्राप्त समिति जल्द ही प्रस्तावित परियोजना को कुछ शर्तों के साथ पर्यावरण मंजूरी दे सकती है।
सवाल है कि भारत का अपना आईसीटीपी क्यों होना चाहिए? ट्रांसशिपमेंट एक जहाज का माल या कंटेनर दूसरे जहाज में भेजने का पड़ाव होता है। यह तब होता है जब दो बंदरगाहों के बीच कोई सीधा नौवहन मार्ग नहीं होता है। ट्रांसशिपमेंट के दौरान, कंटेनरों को बीच के बंदरगाह पर उतारा जाता है और फिर अलग जहाज पर लादा जाता है जो अंतिम गंतव्य के लिए रवाना होता है। ट्रांसशिपमेंट आमतौर पर कम कागजी कार्रवाई वाली व्यवस्था है और इसमें अफसरशाही का हस्तक्षेप भी कम होता है।
भारत के 75 प्रतिशत ट्रांसशिपमेंट माल का प्रबंधन भारत के बाहर के बंदरगाहों पर किया जाता है। इससे न केवल विदेशी बंदरगाहों को भारत के व्यापार से लाभ होता है बल्कि भारत में विदेशी व्यापार की स्थिति भी मूल्य वृद्धि, ट्रैफिक और कई तरह की अक्षमताओं के कारण बेहद संवेदनशील बनी रहती है।
राष्ट्रीय लॉजिस्टिक्स नीति का मकसद लॉजिस्टिक्स लागत को मौजूदा 14 प्रतिशत से घटाकर लगभग 9 प्रतिशत करना है। भारत आने वाले और यहां से जाने वाले कंटेनरों की कुल मात्रा (निर्यात के साथ-साथ आयात ) एक वर्ष में लगभग 2 करोड़ टीईयू है।
इसमें से लगभग 30 लाख टीईयू ट्रांसशिपमेंट प्रक्रिया के लिए क्षेत्रीय ट्रांसशिपमेंट केंद्रों जैसे कि कोलंबो, सिंगापुर, केलांग (मलेशिया में) और दुबई में से किसी एक से गुजरते हैं। इन 30 लाख टीईयू में से, लगभग 10 लाख टीईयू, भारत के पश्चिमी समुद्री तट के बंदरगाहों के यातायात से संबंधित है और करीब 20 लाख टीईयू पूर्वी बंदरगाहों से संबंधित हैं। इसके अलावा म्यांमार और बांग्लादेश से 10 लाख टीईयू आता है।
नए सिरे से ट्रांसशिपमेंट पोर्ट बनाने की कठिनाई यह है कि स्टैंडअलोन ट्रांसशिपमेंट गतिविधि विशेष तौर पर लाभकारी नहीं है क्योंकि इसे मूल या अंतिम गंतव्य पर एक कंटेनर को लादने और निकालने के सामान्य शुल्क का केवल 30 प्रतिशत ही मिलता है। इसके अलावा इसमें दिक्कत यह है कि सुदूर इलाकों के माल का अभाव भी यहां है।
ऐसे में भले ही आईसीटीपी अपने संचालन के पहले दशक में प्रति वर्ष 30 लाख टीईयू की मौजूदा उपलब्ध मात्रा का उचित हिस्सा हासिल करने के बाद वृद्धि कर सकता है लेकिन इसके बाद भी यह लंबे समय तक नकदी के स्तर पर नफा न नुकसान की स्थिति में नहीं होगा।
समझा जाता है कि सरकार को उम्मीद है कि बोली लगाने वाले विजेता चरणबद्ध तरीके से करीब 20,000 करोड़ रुपये का निवेश करेंगे। हालांकि इसमें एक गंभीर वित्तीय चुनौती है। लेकिन इस मॉडल को वाणिज्यिक रिटर्न देने के साथ-साथ भू-राजनीतिक रूप से संवेदनशील स्थान में विकास एजेंडे को बढ़ावा देने में भी सक्षम होना चाहिए।
एक तीन-भाग वाले ‘विकास-सह-वित्त मुहैया कराने वाला’ मॉडल खुद ही इसका सुझाव देता है। यह वास्तव में व्यवहार्यता अंतर (वीजी) फंडिंग, क्षेत्र विकास अधिकार और सार्वजनिक खर्च का संयोजन होगा। 20,000 करोड़ रुपये के चरणबद्ध निवेश अनुमान पर 40 प्रतिशत की वीजी पात्रता से पूंजीगत व्यय का बोझ 8,000 करोड़ रुपये कम हो जाएगा।
भविष्य के लिहाज से ग्रेट निकोबार द्वीप (बंदरगाह का केंद्र, गैलाथिया खाड़ी) को बंगाल की खाड़ी में एक चहल-पहल वाले बंदरगाह-शहर के रूप में तैयार करना उचित होगा। यह न केवल एक व्यस्त समुद्री केंद्र हो सकता है, बल्कि रिजॉर्ट्स, कसीनो, क्रूज टर्मिनल के साथ-साथ और भी एक लोकप्रिय पर्यटन स्थल के रूप में विकसित हो सकता है।
इसके अलावा यहां नौसेना-रक्षा क्षेत्र की उपस्थिति भी हो सकती है। इस प्रकार, विजेता बोलीदाता को बिजली संयंत्रों (बेस-लोड और अक्षय ऊर्जा), हवाईअड्डे, टाउनशिप, आवासीय और संबंधित सामाजिक एवं मनोरंजक बुनियादी ढांचे के निर्माण और संचालन के लिए ‘विकास अधिकार’ भी दिए जा सकते हैं।
इसके अलावा ब्रेकवाटर, तलकर्षण, जल निकासी, सड़कों और आवश्यक सार्वजनिक उपयोगिताओं जैसे क्षेत्रों में गैर-राजस्व अर्जित पूंजीगत खर्च, सार्वजनिक फंडिंग के साथ की जा सकती है।
जहाजरानी मंत्रालय द्वारा आयोजित अभिरुचि पत्र की प्रक्रिया प्रबंधन का दौर हाल ही में खत्म हुआ है और इसमे एस्सार पोर्ट्स, जेएम बख्शी समूह, जेएसडब्ल्यू इन्फ्रास्ट्रक्चर, रेल विकास निगम, कंटेनर कॉर्पोरेशन और अदाणी पोर्ट्स जैसे भारत के समुद्री डेवलपरों और लॉजिस्टिक्स परिचालकों ने हिस्सा लिया। ऐसा कहा जा रहा है कि हॉलैंड की तलकर्षण क्षेत्र की प्रमुख कंपनी रॉयल बोस्कलिस वेस्टमिंस्टर की इसमें दिलचस्पी है। कुछ अन्य घरेलू और अंतरराष्ट्रीय निवेशक भी इस अवसर की पड़ताल में जुटे हैं।
प्रस्तावित गैलाथिया यह पूर्व-पश्चिम व्यापार के महत्त्वपूर्ण मोड़ पर है और इस क्षेत्र में मौजूदा भू-राजनीतिक वास्तविकताओं का प्रबंधन चतुराई से करने की आवश्यकता है। भारतीयों के लिए यह उम्मीद करना काफी स्वाभाविक होगा कि इसका स्वामित्व, विकास और संचालन एक भारतीय इकाई ही करे। उस लिहाज से बोली लगाने के मापदंडों की उपयुक्त संरचना में केवल वाणिज्यिक विचारों से अधिक इसका राष्ट्रीय महत्त्व है। गैलाथिया खाड़ी में पड़ाव इस क्षेत्र में भारत के बढ़ते प्रभाव को दर्शाता है।
(लेखक बुनियादी ढांचा क्षेत्र के विशेषज्ञ हैं। वह इन्फ्राविजन फाउंडेशन के संस्थापक और प्रबंध न्यासी भी हैं।)