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राष्ट्र की बात: विपक्षी गठबंधन ‘I.N.D.I.A’ की नाराजगी

विपक्ष के ‘इंडिया’ गठबंधन को अपनी इच्छा के मुताबिक किसी के भी बहिष्कार का अधिकार है।

Last Updated- September 17, 2023 | 11:15 PM IST
'INDIA' alliance decides to boycott programs of 14 anchors, BJP compares it with emergency

विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ (I.N.D.I.A) ने 14 प्रमुख समाचार प्रस्तोताओं पर ‘पक्षपाती और नफरती’ होने का आरोप लगाते हुए उनके बहिष्कार का जो निर्णय लिया है क्या यह एक शानदार और चुनौतीपूर्ण कदम है? या फिर यह एक ऐसा गलत कदम है जिसका बचाव नहीं किया जा सकता, नाराजगी में बेवजह उठाया गया एक कदम? लंबी अवधि में यह कदम विपक्ष के काम आएगा या भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के?

इन तमाम सवालों तथा ऐसे ही अन्य सवालों का पहला जवाब एक और प्रश्न के रूप में होगा: पत्रकार कौन है? आज पत्रकार की परिभाषा क्या है और यह कौन निर्धारित करता है कि सही अर्थों में कौन पत्रकार है और कौन नहीं?

यहां इनमें से किसी भी टेलीविजन प्रस्तोता के अब तक के काम के बारे में बात नहीं हो रही है। जहां तक मेरी बात है, मैं उन भारतीयों में शामिल हूं जो अब प्राइमटाइम की टेलीविजन बहसों को समाचार मानकर नहीं देखते। कई लोग इन्हें देखते हैं। कुछ लोग इन्हें इसलिए देखते हैं ताकि अपने पसंदीदा समाचार प्रस्तोता को ‘दूसरे’ पक्ष के प्रवक्ताओं आदि की धुलाई करते देख सकें तो वहीं कुछ अन्य लोग इनके आदी हो चुके हैं। इनके अलावा ज्यादातर लोग इन्हें केवल मनोरंजन के उद्देश्य से देखते हैं।

ऐसी टेलीविजन बहसों ने किसी भी राजनेता या राजनीतिक दल की तुलना में पत्रकारिता का कहीं अधिक नुकसान किया है। हम एक ऐसी स्थिति में हैं जहां सबसे अमीर मीडिया समूह अब अपने संवाददाताओं को शोधपरक जमीनी खबरों के लिए नहीं भेजते, जहां टीवी शो में कोई संपादक नहीं होता, सितारा हैसियत वाले समाचार प्रस्तोता खुद अपने संपादक हैं और अपने स्टूडियो में सबसे ताकतवर भी।

भला कौन उनसे यह कहने की हिम्मत करेगा, ‘बॉस, यह सही नहीं है।’ या फिर ‘यह गलत है।’ यह भूल ही जाइए कि कोई उन्हें सही या गलत बता पाएगा। पारंपरिक समाचार कक्ष में संपादक का यही दायित्व है। बीते दो दशक में संपादक नामक यह संस्था विलुप्तप्राय हो गई है।

एक समाचार कक्ष के लिए सबसे खतरनाक बात यही हो सकती है कि उसका प्राइमटाइम तैयार करने वाले खुद अपना संपादन करें। टीवी समाचारों में ऐसा ही हो रहा है। यही वजह है कि हर शो प्रस्तोताओं का बनकर रह गया है, चैनलों का नहीं। शायद यही वजह है कि इंडिया गठबंधन समाचार प्रस्तोताओं का बहिष्कार कर रहा है उनके मालिकों या चैनलों का नहीं।

उदाहरण के लिए किसी भी चैनल पर वे एक खास प्रस्तोता का बहिष्कार करेंगे लेकिन उसी चैनल पर वे दूसरे प्रस्तोताओं के शो में जाएंगे। यह पत्रकारिता के अति-व्यक्तिकरण का खतरनाक स्तर है जिसकी जिम्मेदारी उन मालिकों पर है जो संपादक रहित समाचार कक्ष चलाते हैं और जहां प्राइमटाइम के प्रस्तोता खुद सितारा हैसियत रखते हैं। उन्हें सुर्खियां और ताकत पसंद है, ऐसे में उन्हें निशाना भी व्यक्तिगत रूप से बनाया जाता है।

पहली बात तो यह कि ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है और इंडिया गठबंधन ऐसा बहिष्कार करने वाला पहला नहीं है। भाजपा ने चतुराईपूर्वक और खामोशी से हमेशा ऐसा किया है। पार्टी के बड़े नेता अक्सर ट्विटर (अब एक्स) पर किसी न किसी चैनल के बहिष्कार की घोषणा करते रहे हैं।

यह भी ज्ञात ही है कि पार्टी के प्रवक्ता और मुख्य पदाधिकारी कहां नजर आएंगे और कहां नहीं। उदाहरण के लिए अदाणी के पहले और बाद में एनडीटीवी को स्मरण कीजिए। इस समय जब मैं यह आलेख लिख रहा हूं, मैं अपनी टीवी स्क्रीन पर वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण को देख सकता हूं। यह दृश्य पांच वर्ष पहले की तुलना में अलग है। अदाणी के अधिग्रहण के पहले चैनल का पूरा बहिष्कार किया जाता था।

बात बस यह है कि भाजपा ने यह काम अधिक चतुराई से किया। एक अपवाद के अलावा उसने औपचारिक घोषणा नहीं की। उसने यह भी नहीं कहा कि उसके नेता अमुक चैनल या अमुक प्रस्तोता के शो पर नहीं जाएंगे। लेकिन सबको पता था कि हकीकत क्या है। सुर्खियों में रहने वाले अक्सर ऐसा करते हैं इसमें राजनेता, फिल्म और खेल जगत के सितारे, कारोबारी आदि सभी शामिल हैं।

पत्रकार के रूप में हम कभी इसका समर्थन नहीं करेंगे। एक आदर्श दुनिया में सभी पत्रकारों की पहुंच उन लोगों तक होनी चाहिए जो खबर पैदा करते हैं। इसमें सत्ता पक्ष और विपक्ष के नेता शामिल हैं। परंतु हमारे चाहने से सबकुछ नहीं होता है।

यही वजह है कि हमें स्वीकार करना चाहिए कि विपक्षी गठबंधन को अपनी इच्छा के मुताबिक किसी को भी बहिष्कृत करने का अधिकार है। वे अपने नेताओं को निर्देश दे सकते हैं, अपने सदस्यों और प्रवक्ताओं को कह सकते हैं कि वे कुछ खास शो पर न जाएं।

जो बात इसे जटिल और बहसतलब बनाती है वह यह है कि उन्होंने कुछ समाचार प्रस्तोताओं का नाम ले लिया और उनकी एक सूची जारी कर दी। अक्सर ऐसी बातों का अंत अच्छा नहीं होता है। ऐसे में तो कई अन्य पक्ष भी ऐसा ही कर सकते हैं? तब क्या होगा?

अगर वे अपने-अपने राज्यों में ऐसे नामों की होर्डिंग लगानी शुरू कर दें तो क्या होगा? क्या होगा अगर कुछ अन्य समूह कहने लगें कि वे इन लोगों को प्रतिबंधित कर रहे हैं क्योंकि ये चोर, ठग, राष्ट्रविरोधी हैं? एक बार मूर्खता की शुरुआत के बाद उसकी कोई सीमा नहीं है।

हम अक्सर एक बात दोहराते हैं उसे याद रखने की जरूरत है: कभी भी जानबूझकर गलत नजीर न पेश करें क्योंकि एक बार आप ऐसा कर देंगे तो दूसरे भी प्रतिक्रिया देंगे। इतना ही नहीं दूसरे लोग उससे भी बुरा कदम उठा सकते हैं। ऐसे में दलील यह नहीं हो सकती है कि क्या ये समाचार प्रस्तोता अच्छे पत्रकार हैं या बुरे या फिर वे नफरत फैलाते हैं या सच्चे राष्ट्रवादी हैं या फिर बस बाजार के साथ कदमताल करने वाले।

पहली दलील तो ऐसी सूचियों के प्रकाशन पर ही दी जा सकती है। क्योंकि आप जानते हैं कि यह सूची पहली हो सकती है लेकिन अंतिम नहीं। पत्रकार कौन है और पत्रकारिता क्या है, अच्छा या बुरा क्या है, यह सब अंतहीन बहस का हिस्सा है। यह अच्छी बात है कि हम अभी भी इसके बारे में इतने जुनून से बातें कर रहे हैं। परंतु एक बात है जो निर्विवाद है: ऐसी कोई सरकार नहीं है जो पत्रकारों के खिलाफ सत्ता का दुरुपयोग न करती हो।

कुछ सरकारें ऐसे तरीके अपनाती हैं जो कम नजर आते हैं। उदाहरण के लिए उन मीडिया संस्थानों को विज्ञापन न देना जो उन्हें मित्रवत नहीं लगते। हम और आप जानते हैं कि इसका अर्थ क्या है। हर पार्टी ऐसा करती है। इसके अलावा पहुंच भी रोकी जाती है।

तीसरा और सबसे खतरनाक तरीका है कानून, पुलिस और एजेंसियों का दुरुपयोग। हम जहां भाजपा सरकार की अतियों की सूची बना रहे हैं वहीं अन्य दलों की सरकारें भी पवित्रता का दावा नहीं कर सकतीं। ममता बनर्जी की सरकार ने एबीपी न्यूज के पत्रकार देवमाल्य बागची को गिरफ्तार किया था। अन्य राज्यों में भी ऐसे ही कदम उठाए गए।

सरकारों द्वारा पत्रकारों के खिलाफ मामूली मामलों में पुलिस केस दर्ज करना आम हो गया है। ऐसे माहौल में इंडिया गठबंधन यह यकीन दिलाने का प्रयास कर रहा है कि वह भाजपा से अलग है। भाजपा को वह सांप्रदायिक करार देता है। भाजपा की संकीर्णता के खिलाफ इंडिया गठबंधन खुद को उदार बता रहा है। परंतु समाचार प्रस्तोताओं की सूची इस दावे को मजबूत नहीं बनाती।

एक बार फिर यह दलील उनकी ‘पत्रकारिता’ को लेकर नहीं है। यह सच है कि कई चैनल नफरत परोस रहे हैं। नफरत बिकती है और उससे टीआरपी आती है। इस प्रवृत्ति से लड़ने की जरूरत है। यह लड़ाई सार्वजनिक रूप से विचारों और विचारधारा के क्षेत्र में लड़ी जानी चाहिए।

भारत जोड़ो यात्रा के बाद से ही राहुल गांधी अपनी पार्टी और इंडिया गठबंधन को ‘मोहब्बत की दुकान’ के रूप में प्रचारित करते रहे हैं। 2014 के चुनाव के पहले उन्होंने अर्णव गोस्वामी को अपना पहला लंबा साक्षात्कार दिया था। उन्होंने कहा कि वह सबसे पहले अपने सबसे प्रखर आलोचक के सवालों का जवाब देना चाहते थे। अब उनकी पार्टी इसका ठीक उलटा कह रही है।

वह तब सही थे या अब उनकी पार्टी और उसके साझेदार समझदार हैं इस पर आंतरिक स्तर पर बहस होनी चाहिए। हम यही कह सकते हैं कि यह बात मोहब्बत की दुकान वाली भावना के अनुरूप नहीं है।

इससे भी अहम बात यह है कि ये कदम राजनीतिक दृष्टि से भी सही नहीं है क्योंकि उन्हें अपने लोगों को आंतरिक स्तर पर यह कहना था कि वे इन चैनलों पर न जाएं। उन्होंने एक सार्वजनिक कदम उठाया है। अफसोस की बात है कि इससे इन 14 लोगों की ‘पत्रकारिता’ में कोई फर्क नहीं आएगा।

First Published - September 17, 2023 | 11:15 PM IST

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