संयुक्त राष्ट्र की संस्था विश्व मौसम विज्ञान संगठन (डब्ल्यूएमओ) ने अपनी उस सालाना चेतावनी पर बल दिया है जिसकी अक्सर भारत में बिजली से चलने वाले वाहनों, सौर ऊर्जा और हरित हाइड्रोजन जैसे उत्सर्जन में कमी करने वाले उपायों की चर्चा के बीच अनदेखी कर दी जाती है।
भारत वैश्विक तापवृद्धि से निपटने के लिए इन उपायों पर जोर दे रहा है। इस सप्ताह प्रकाशित एक रिपोर्ट में डब्ल्यूएमओ ने कहा है कि 2013 से 2022 के बीच समुद्री जल स्तर में सालाना औसतन 4.5 मिलीमीटर का इजाफा हुआ जो सन 1901 से 1971 के बीच हुए इजाफे की तुलना में तीन गुना से अधिक है। डब्ल्यूएमओ कोई नई बात नहीं कह रहा था। वह लगभग हर वर्ष समुद्र के बढ़ते जल स्तर को लेकर चेतावनी देता है।
इस वर्ष रिपोर्ट ने इस बात को रेखांकित किया कि भारत की वाणिज्यिक राजधानी मुंबई, उन शहरों में शामिल है जिन्हें बढ़ते समुद्री जल स्तर से सबसे अधिक खतरा है। देश के कुछ सबसे बड़े बंदरगाह भी इसी इलाके में हैं। समुद्र के जल स्तर में इजाफा आर्कटिक और अंटार्कटिका क्षेत्रों में बर्फ पिघलने की दर में तेजी की वजह से हो रहा है। यह बर्फ वैश्विक तापवृद्धि के कारण पिघल रही है। इस लिहाज से हिंद महासागर काफी जोखिम वाली जगह है।
समुद्री जल स्तर में इजाफे का प्रभाव कई स्तरों पर प्रभावित करता है। इसकी वजह से जमीन धसकती है, पानी और मिट्टी में खारापन आता है और आजीविका को नुकसान पहुंचता है। तटवर्ती इलाकों के खेती करने वाले समुदायों को उत्पादकता में कमी का सामना करना पड़ेगा क्योंकि मिट्टी की गुणवत्ता खराब होने लगती है।
दुनिया भर में मछुआरा समुदाय पहले ही संकट में है क्योंकि समुद्रों में गर्मी बढ़ने के कारण मछलियों को प्राकृतिक भोजन नहीं मिल पा रहा है। ये दीर्घकालिक समस्याएं हैं जो समय के साथ सामने आती हैं। परंतु इसका तात्कालिक असर चक्रवात के समय आने वाले तूफानों में इजाफे के रूप में देखा जा सकता है। ऐसा इसलिए होता है कि बढ़ता समुद्री जल स्तर समुद्री लहरों की तीव्रता और ऊंचाई दोनों में इजाफा करता है।
उदाहरण के लिए अंफन तूफान जो 2020 में देश के पूर्वी तट से टकराया था, उसके चलते समुद्र का पानी जमीन में 25 किलोमीटर भीतर तक आया था जिससे सुंदरबन डेल्टा में बाढ़ आ गई थी। सुंदरबन समुद्र के बढ़ते जल स्तर को लेकर दुनिया के सबसे जोखिम वाले स्थानों में से एक है।
समुद्री जल स्तर में हो रहे इजाफे को नियंत्रित करना इस बात पर निर्भर करता है कि उत्सर्जन को सीमित करने के लिए कौन सी नीति अपनाई जा रही है और वैश्विक तापवृद्धि को औद्योगीकरण के पूर्व के स्तर के 1.5 डिग्री सेल्सियस के दायरे में रोकने के लिए कौन से प्रयास किए जा रहे हैं।
भारत की उत्सर्जन नीति में निजी क्षेत्र की लॉबी मुखर
हर वर्ष जलवायु परिवर्तन को लेकर होने वाली वार्ताएं बताती हैं कि इस दिशा में समुचित प्रगति नहीं हो रही है और विकसित देश समुचित भरपाई करने को तैयार नहीं हैं जबकि व्यापक तौर पर यह समस्या उनके ही उत्सर्जन के कारण उत्पन्न हुई है। भारत की उत्सर्जन नीति में निजी क्षेत्र की लॉबी मुखर है जो इससे लाभान्वित होती रही है। परंतु सार्वजनिक बहस से इसका गायब होना भी एक अहम मुद्दा है।
उदाहरण के लिए मछुआरा समुदाय को वैकल्पिक आजीविका की ओर उन्मुख करना या ऐसी अधोसंरचना विकसित करना जहां सबसे बुरी तरह प्रभावित इलाकों में पेयजल का बुनियादी ढांचा तैयार हो। संकट के नियंत्रण से बाहर होने से पहले ऐसे प्रयास शुरू कर दिए जाने चाहिए। शहरों में बाढ़ और जल प्रबंधन एक और ऐसा क्षेत्र है जिस पर ज्यादा ध्यान देने की आवश्यकता है।
निचले इलाके वाला पड़ोसी देश बांग्लादेश उदाहरण है कि कैसे आर्थिक बेहतरी के लिए बढ़ता समुद्री जल स्तर खतरा बन सकता है। बांग्लादेश ऐसे देशों में शामिल है जहां सबसे अधिक संख्या में जलवायु शरणार्थी (ऐसे लोग जो समुद्र के बढ़ते जल स्तर के कारण अपने घर और आजीविका गंवा चुके हैं) रहते हैं। तेज आर्थिक विकास की चाह रखने वाला हमारा देश ऐसी स्थिति नहीं झेल सकता।