सरकार द्वारा नवंबर 2016 में उच्च मूल्य वाले नोट बंद करने के फैसले पर हो रही प्रक्रियागत बहस अब समाप्त हो गई है। सर्वोच्च न्यायालय के एक संवैधानिक पीठ ने सोमवार को 4:1 के बहुमत से प्रक्रिया का समर्थन किया और कहा कि नोटबंदी की पूरी कवयद वैध तथा समानता के परीक्षण को संतुष्ट करने वाली थी। पीठ में न्यायमूर्ति एस अब्दुल नजीर, बी आर गवई, वी रामासुब्रमण्यन, एएस बोपन्ना और बीवी नागरत्ना शामिल थे। इस निर्णय को पढ़ते हुए न्यायमूर्ति गवई ने कहा कि केंद्र सरकार और भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के बीच इस बारे में छह महीने तक चर्चाओं का दौर चला तथा ऐसे उपाय को लागू करने के लिए समुचित संपर्क था। उन्होंने कहा कि निर्णय लेने की प्रक्रिया को केवल इसलिए गलत नहीं ठहराया जा सकता कि प्रस्ताव केंद्र सरकार की ओर से आया था।
सर्वोच्च न्यायालय के सामने बुनियादी दलील यह थी कि नोटबंदी का प्रस्ताव रिजर्व बैंक के केंद्रीय बोर्ड की ओर से सामने नहीं आया जबकि आरबीआई ऐक्ट की धारा 26(2) के मुताबिक ऐसा ही होना चाहिए। इस दलील को बहुत वैध नहीं माना जा सकता है क्योंकि रिजर्व बैंक और सरकार के बीच इस विषय पर लंबी चर्चा हुई थी। सवाल तो यह है कि क्या इस प्रश्न को इस स्तर तक उठना चाहिए था क्योंकि निर्णय को बदला नहीं जा सकता है। न्यायमूर्ति नागरत्ना ने बहुमत से अलग मत दिया और कहा कि अगर प्रस्ताव केंद्र सरकार की ओर से उत्पन्न हुआ तो वह धारा 26 (2) के अंतर्गत नहीं आता। यह काम विधायी ढंग से किया जा सकता था और अगर गोपनीयता आवश्यक थी तो इसे अध्यादेश के जरिये अंजाम दिया जा सकता था। यहां यह दोहराना आवश्यक है कि उक्त मामला केवल प्रक्रिया से संबंधित था, न कि लक्ष्यों से।
ऐसे में नोटबंदी को लेकर नीतिगत बहस जारी रहनी चाहिए। सरकार ने एक झटके में 85 फीसदी मूल्य की प्रचलित मुद्रा को चलन से बाहर करने को लेकर कई तर्क दिए थे। सबसे बड़ा लक्ष्य था काले धन को सामने लाना। अन्य लक्ष्यों में नकली मुद्रा के इस्तेमाल को समाप्त करना, आतंकवादियों को वित्तीय मदद बंद करना और अर्थव्यवस्था को औपचारिक बनाकर कर आधार को बढ़ाना शामिल था। उम्मीद यह भी थी कि यह निर्णय डिजिटल अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देगा। नतीजों की बात करें तो जहां बहुत बड़ी तादाद में ऐसे बैंक खाते सामने आए जिनमें बहुत बड़ी तादाद में नकदी जमा थी। बंद की गई नकदी में से 99 फीसदी रिजर्व बैंक के पास वापस आ गई। कर संग्रह के संदर्भ में देखें तो यह निर्णय कोई खास प्रभाव नहीं डाल सका। उदाहरण के लिए चालू वर्ष में केंद्र सरकार की सकल कर प्राप्तियों के सकल घरेलू उत्पाद के 10.7 फीसदी रहने का अनुमान है जबकि 2015-16 में यह 10.6 फीसदी थी।
हालांकि भारतीय अर्थव्यवस्था का डिजिटलीकरण जोर पकड़ रहा था लेकिन नोटबंदी ने इसे गति प्रदान की। कोविड-19 महामारी ने इसे और तेज किया। नोटबंदी के बाद से जीडीपी के प्रतिशत के रूप में प्रचलित नकदी भी बढ़ी है। इसके अलावा हाल के वर्षों में कारोबारी क्षेत्र का प्रदर्शन भी बताता है कि आर्थिक गतिविधियां संगठित क्षेत्र की ओर केंद्रित हुई हैं। बहरहाल, ऐसा असंगठित क्षेत्र की कमजोर स्थिति के कारण भी हुआ होगा, खासकर महामारी के बाद। आलोचकों का यह भी कहना है कि नोटबंदी और वस्तु एवं सेवा कर के क्रियान्वयन ने भी असंगठित क्षेत्र को प्रभावित किया। अर्थव्यवस्था में डिजिटलीकरण के इजाफे और उसके औपचारिक होने से समय के साथ उत्पादकता और कर संग्रह में सुधार होगा। हालांकि प्रगति के लिए एकबारगी प्रचलित मुद्रा बंद करने से अधिक तकनीकी तरक्की और उसे अपनाने की आवश्यकता है।