दिवंगत रतन टाटा के साथ हमारा पहला संपर्क सुखद नहीं था। दिल्ली में प्रदूषण बढ़ने के कारण दम घुटने जैसी स्थिति बन गई थी और हमने स्वच्छ हवा के अधिकार का अभियान शुरू कर दिया था। डीजल को हवा में घुलने वाले सूक्ष्म कण पीएम 2.5 के उत्सर्जन का जिम्मेदार बताया जा रहा था।
1990 के दशक के मध्य में यह सब कुछ नया था क्योंकि विज्ञान पता लगा रहा था कि ईंधन और वाहन की गुणवत्ता सुधरने से प्रदूषण फैलाने वाले उन सूक्ष्म कणों का प्रसार अप्रत्याशित रूप से कैसे बढ़ेगा, जो हमारे फेफड़ों की गहराई में जमा हो सकते हैं। इसी वजह से मैंने और मेरे दिवंगत सहयोगी अनिल अग्रवाल ने डीजल के खतरों के बारे में लिखा था। तुरंत ही हमें टाटा मोटर्स की तरफ से मानहानि का नोटिस मिल गया, जिसमें बतौर मुआवजा कुछ रकम भी मांगी गई थी।
यह तब की बात है जब रतन टाटा ने कार बनाने का अपना कारोबार शुरू ही किया था। उनकी कंपनी ईंधन के नए विकल्प डीजल पर दांव लगा रही थी, जिससे उसे पेट्रोल से चलने वाली कार बना रही मारुति सुजूकी और दूसरी कंपनियों पर बढ़त हासिल हो सकती थी।
बहरहाल न तो हम पीछे हटने वाले थे और न ही वह। यह मामला उच्चतम न्यायालय में गया और मुकदमा लंबा चला। मुकदमा खिंचा तो मुझे महसूस हुआ कि रतन टाटा वास्तव में यह मानकर मुकदमा लड़ रहे थे कि उनका मुकाबला कर रही पेट्रोल कार कंपनियों के कहने पर ही हम यह मुद्दा उठा रहे हैं। लेकिन जब साबित हो गया कि हमारा अभियान पीएम 2.5 के बारे में नई वैज्ञानिक खोजों और बतौर वाहन ईंधन डीजल के सेहत पर होने वाले असर के कारण था तब माहौल बदल गया।
ऐसा नहीं है कि टाटा मोटर्स डीजल कार की अपनी महत्त्वाकांक्षी परियोजना से पीछे हट गई। ऐसा भी नहीं है कि हमने डीजल वाहनों के खिलाफ अपनी लड़ाई छोड़ दी। असल में हमने विपरीत विचारों को स्वीकार करने की पुरानी और भली लोकतांत्रिक परंपरा निभाई। दिल्ली में ऑटो एक्सपो के दौरान जब रतन टाटा ने नैनो कार की अपनी दुलारी परियोजना शुरू की तो उन्होंने मेरा नाम लेते हुए कहा कि उन्हें उम्मीद है कि इस किफायती कार पर मुझे कोई एतराज नहीं होगा। कितनी अद्भुत और विनम्रता भरी बात थी।
मेरा दूसरा अनुभव और भी व्यक्तिगत मगर उतना ही भावुक करने वाला है। जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे तब मैं एक भोज में शरीक हुई, जहां धनी और ताकतवर लोगों का जमावड़ा था। वहां रतन टाटा लोगों को समझा रहे थे कि कैसे उनकी वाहन कंपनी देश की आबादी के हरेक तबके के लिए कार बना रही है। उन्हीं दिनों उन्होंने ब्रिटेन का मशहूर जगुआर ब्रांड खरीदा था, जो संपन्न तबके के लिए कार बनाता था और उसी समय उन्होंने पहली बार कार खरीदने जा रहे लोगों के लिए नैनो भी पेश की थी।
मैंने उन्हें बीच में रोककर कहा कि वह कुछ भूल रहे हैं। मैंने उनकी आंखों में चिंता नजर आई क्योंकि उन्हें लगा कि मेरे भीतर बैठी एक्टिविस्ट असहज करने वाली बात ही कहेगी। लेकिन मैंने कहा कि वह भूल रहे हैं कि टाटा मोटर्स बसें भी बनाती है और उनमें कारों के मुकाबले हजारों ज्यादा लोग आते-जाते हैं। मैंने यह भी कहा कि उनकी बसें आधुनिक (लो-फ्लोर बसें शुरू ही हुई थीं) हैं और स्वच्छ ईंधन (सीएनजी) से चलती हैं। सबने इस बात की तारीफ की और फिर दूसरे आम मुद्दों पर बात होने लगी। मुझे भी लगा कि बात खत्म हो गई।
लेकिन ऐसा नहीं था। कुछ दिन बाद टाटा मोटर्स के एक शीर्ष अधिकारी मुझसे मिलने आए। मुझे लगा कि वह हमारे डीजल विरोधी अभियान के सिलसिले में आए होंगे। उन्होंने कहा कि वह टाटा के कार कारोबार नहीं बल्कि बस कारोबार से जुड़े हैं। उन्होंने मुझसे पूछा कि मैंने रतन टाटा से क्या कहा था। मैंने भी सवाल किया कि वह ऐसा क्यों पूछ रहे हैं तब उन्होंने मुझे पूरी बात समझाई। असल में भोजन के समय मैंने उनके बॉस से जो कहा था, उसके बाद उनके पास एक फोन आया। फोन पर पूछा गया कि वह कौन सा शानदार काम कर रहे हैं, जिसकी तारीफ सुनीता नारायण ने भी की। मुझे बताया गया कि उसकी वजह से उनके बॉस यानी रतन टाटा को परिवहन में हो रहे बदलाव और लोगों को लाने-ले जाने में आधुनिक बसों की भूमिका में ज्यादा दिलचस्पी हो गई।
आज इतना सब कुछ मैं यह दिखाने के लिए नहीं लिख रही हूं कि है कि ऐसी महान शख्सियत के साथ मेरी बातचीत थी। मैं बताना चाहती हूं कि उनकी महानता का कारण था दूसरों को सुनने की क्षमता और असहज होने पर भी दूसरों के विचारों को स्वीकार करने की क्षमता। मैं यह सब इसलिए भी बता रही हूं क्योंकि मैंने उद्योग की दूसरी बड़ी हस्तियों को भी देखा है। मुझे याद आता है कि हमारे काम पर सबसे आक्रामक और आपत्तिजनक प्रतिक्रिया दो बहुराष्ट्रीय कंपनियों से आई थी।
यह प्रतिक्रिया तब आई थी, जब हमने अपने अध्ययन में खुलासा किया था कि उनके उत्पादों में कीटनाशक मिले हैं। उन्होंने अपनी प्रतिक्रिया में यह कहते हुए हमें सिरे से खारिज कर दिया कि वे गलत नहीं हो सकते हैं क्योंकि वे अमेरिका की कंपनियां हैं। यह हद से ज्यादा अहंकार था। हमें दूसरी सबसे खराब प्रतिक्रिया कीटनाशक बनाने वाली कंपनियों से मिली है। हमें अब भी खाद्य पदार्थ में विषैले तत्वों के खिलाफ अपने काम पर धमकी मिलती रहती है, डराया-धमकाया जाता है और मुकदमे भी होते हैं। कोई यह समझता ही नहीं कि हमारा काम निजी नहीं है बल्कि कारोबार के स्याह पक्ष से जुड़ा है और हम उसमें संतुलन चाहते हैं।
इसलिए जब हम रतन टाटा के निधन पर शोक मान रहे हैं तो हमें उस गुजरे वक्त के लिए भी शोक मनाना चाहिए, जब उनके जैसी कारोबारी हस्ती ने दुनिया पर राज किया, जब व्यक्तिगत जीवन में संयम और सादगी के मूल्यों को तवज्जो दी जाती थी और जब कारोबार का मतलब केवल मुनाफा या निजी फायदा नहीं बल्कि जनहित की रक्षा करना था।
उम्मीद है कि जब हम रतन टाटा को श्रद्धांजलि दें तो अपनी दौलत का बेशर्मी के साथ प्रदर्शन करने की आज के रसूखदार लोगों के स्वभाव की भी अस्वीकार करें। साथ ही हम यह विचार भी वापस लाने की शपथ लें कि असहमति वास्तव में मतभेद नहीं होता। हमें पता ही नहीं कि यह विचार भी हुआ करता था।
(लेखिका सेंटर फॉर साइंस ऐंड एनवॉयरनमेंट से जुड़ी हैं)