दुबई में आयोजित कॉप28 वैश्विक शिखर सम्मेलन में 100 से अधिक देशों ने वैश्विक नवीकरणीय और ऊर्जा क्षमता संकल्प पर हस्ताक्षर किए हैं। इसका मकसद वर्ष 2030 तक नवीकरणीय ऊर्जा की वैश्विक क्षमता को तीन गुना बढ़ाकर 11,000 गीगावॉट तक करना एवं ऊर्जा दक्षता में सुधार करते हुए इसकी वैश्विक औसत वार्षिक दर दोगुना करना है।
वैश्विक स्तर पर नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता बढ़ाने का सबसे महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य निर्धारित करने वाले भारत ने इस संकल्प पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं। कोयले को चरणबद्ध तरीके से उपयोग से बाहर करने और उस क्षेत्र में नए निवेश पर रोक लगाने के संदर्भ में मिल रहे संकेतों की रिपोर्ट को देखते हुए चीन ने भी इस संकल्प को लेकर आगे बढ़ने पर एतराज जताया।
कई यूरोपीय देशों द्वारा जलवायु परिवर्तन में सबसे बड़ा कारक और सबसे गंदा ईंधन समझा जाने वाला कोयला पूर्व के सम्मेलनों में भी विवाद का मुद्दा रहा है। इसने यूरोपीय संघ के जलवायु वार्ताकारों को भारत, चीन और कई अन्य विकासशील देशों के अपने समकक्षों के खिलाफ कर दिया है। यूरोपीय संघ के कुछ देश इसे चीन और भारत से जोड़कर देखते हैं, जो वैश्विक स्तर पर कुछ सबसे बड़े कोयला भंडारों पर काबिज रहे हैं। लेकिन, इस मुद्दे को लेकर यह बहुत ही सतही दृष्टिकोण है।
वे यह नहीं समझ रहे हैं कि कोयले के उपयोग को चरणबद्ध तरीके से खत्म करने का असर न केवल विकासशील देशों पर पड़ेगा, बल्कि कई कारणों से यूरोपीय देशों की अर्थव्यवस्थाओं यहां तक कि नवीकरणीय ऊर्जा यात्रा को भी प्रभावित करेगा। भारत जैसे विकासशील देश की आर्थिक वृद्धि में कोयला ऊर्जा उत्पादन के साथ-साथ स्टील और सीमेंट जैसे उद्योगों में काफी कम लागत वाला व्यावहारिक ईंधन बना हुआ है।
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चीन और भारत द्वारा पहले से ही विशाल नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता बढ़ाने के बावजूद नए कोयला संयंत्र स्थापित करना बंद कर देना सामान्य तौर पर वित्तीय दृष्टि से संभव या व्यवहार्य नहीं है। विशेष तौर पर यह सही है कि चीन और भारत दोनों ही प्राकृतिक गैसों एवं पेट्रोलियम के लिए अन्य देशों पर निर्भर हैं और भू-राजनीतिक संकट के दौरान इसकी आपूर्ति में न केवल बाधा उत्पन्न होती है, बल्कि परिवहन लागत भी बढ़ जाती है। जब रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध छिड़ा तो पश्चिमी देश भी अपनी अर्थव्यवस्थाओं को गति देने के लिए अचानक कोयले पर निर्भर हो गए।
जर्मनी जैसा देश, जो ऊर्जा क्षेत्र में प्राकृतिक गैस का ही इस्तेमाल करता है, भी उस दौरान अपने कोयला आधारित ऊर्जा उत्पादन संयंत्रों को दोबारा चालू करने पर मजबूर हो गया। रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण पूरे विश्व में कोयले की मांग में वृद्धि हो गई थी। विशेष बात यह कि इस युद्ध के कारण उत्पन्न हुई गैस की कमी और उससे उपजे हालात को यूरोपीय संघ के नेता नवीकरणीय ऊर्जा संयंत्रों के माध्यम से आसानी से नहीं संभाल सके। सौर एवं पवन ऊर्जा जैसे नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन संयंत्रों में तेज वृद्धि के बावजूद लंबे समय तक ऊर्जा भंडारण (एलडीईएस) का मुद्दा संतुष्टिप्रद समाधान तक नहीं पहुंच पाया है।
सूरज की तेज धूप में संयत्र सौर ऊर्जा का अधिक उत्पादन कर सकते हैं, लेकिन इसके उलट यदि उत्पादित ऊर्जा के भंडारण की उचित व्यवस्था नहीं है, तो सूरज न निकलने की स्थिति या रात में ऊर्जा की कमी की समस्या लगातार बनी रहेगी। यही समस्या पवन ऊर्जा संयंत्रों के साथ भी है, जो ऊर्जा उत्पादन के लिए हवा की गति पर निर्भर हैं।
लंबे समय तक ऊर्जा भंडारण (एलडीईएस) के कई विकल्प मौजूद हैं, लेकिन वे बहुत महंगे हैं अथवा जरूरत के हिसाब से उपयुक्त नहीं हैं। कई मामलों में तो ये बड़े स्तर पर ऊर्जा भंडारण के लिहाज से व्यावहारिक भी नहीं हैं। उपभोक्ता इलेक्ट्रॉनिक्स और इलेक्ट्रिक वाहन (ईवी) में इस्तेमाल होने वाली लीथियम आयन बैटरी कई कारणों से एलडीईएस विकल्प के तौर पर उपयुक्त नहीं है। इसका एक कारण यह भी है कि यदि इसे इस्तेमाल न किया जाए तब भी यह डिस्चार्ज हो जाती है।
भंडारण रसायन की सफलताएं नियमित रूप से सुर्खियां बटोरती रही हैं, लेकिन उनमें से कोई भी उस स्तर तक नहीं पहुंची है, जहां उन्हें नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन संयंत्रों की जरूरत के हिसाब से आसानी और लागत प्रभावी ढंग से बढ़ाया जा सके। हरित हाइड्रोजन पर भी काफी उम्मीदें टिकी हैं। स्टील और सीमेंट उद्योगों के साथ-साथ परिवहन एवं भंडारण में यह कोयला और हाइड्रोकार्बन का अच्छा विकल्प बन सकती है।
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यद्यपि हरित हाइड्रोजन को मुख्यधारा का ईंधन बनने के लिए तकनीक और आर्थिक स्तर पर अभी लंबा रास्ता तय करना है। हरित हाइड्रोजन का उत्पादन सस्ता और सरलतापूर्वक होने भी लगे तब भी उसके भंडारण और परिवहन के लिए बुनियादी ढांचा विकसित करने में वक्त लगेगा। अंत में, यूरोप के विकसित देशों को यह अहसास तो करना ही होगा कि उनकी स्वच्छ ऊर्जा यात्रा और उपलब्धियां अभी भी खासकर विकासशील और अविकसित देशों में अधिकांश कोयले जैसे गंदे ईंधन से संचालित हो रही हैं। सौर पैनल और पवन टर्बाइनों की कीमतें सिर्फ इसलिए तेजी से गिरी हैं कि वे चीन में बनाई जा रही हैं और जहां इनकी निर्माण इकाइयों को कोयला संचालित संयंत्रों से बिजली आपूर्ति की जाती है।
यही बात लीथियम प्रसंस्करण और ईवी बैटरी के मामले में लागू होती है। दोनों के उत्पादन में चीन का प्रभुत्व कायम है। एक कदम और पीछे चलते हैं। दक्षिणी अमेरिका की लीथियम खदानों और कॉन्गो गणराज्य की कोबाल्ट खदानों में उत्पादन के लिए अभी भी नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों का इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है। यदि कोयले का इस्तेमाल कड़ाई से रोक दिया जाए तो कई विकसित देशों में सोलर पैनल और ईवी बैटरी की कीमतें एकदम बहुत अधिक बढ़ जाएंगी। यह कहना उचित नहीं होगा कि कोयले को क्लीन चिट दे देनी चाहिए।
खुदाई से लेकर ऊर्जा उत्पादन के स्तर तक कोयला गंदा ईंधन ही है। इसके बारे में कुछ भी पर्यावरणीय-अनुकूल नहीं है। जब तक इसका इस्तेमाल रोकने के लिए व्यावहारिक विकल्प और पर्याप्त धन की व्यवस्था नहीं हो जाती तब तक कोयले को एक बुराई के तौर पर ही देखा जाना चाहिए और तब तक इसके इस्तेमाल का व्यावहारिक तरीका यही है कि कार्बन कैप्चर, उपयोग एवं भंडारण जैसी तकनीक एवं प्रसंस्करण के उपाय अपनाकर लगातार इस बात पर जोर दिया जाए कि कैसे इसका उत्सर्जन कम से कम किया जाए। इसके अलावा, प्राकृतिक और कृत्रिम दोनों तरह से कार्बन सिंक में वृद्धि को तेज करके भी उत्सर्जन कम किया जा सकता है।
(लेखक बिज़नेस टुडे एवं बिज़नेस वर्ल्ड के पूर्व संपादक और संपादकीय सलाहकार संस्था प्रोजैक व्यू के संस्थापक हैं)