अमेरिका में राजनीतिक अर्थव्यवस्था पर अभूतपूर्व प्रयोग हुआ है, जिसका परिणाम जल्द ही हमारे सामने होगा। वहां उप राष्ट्रपति कमला हैरिस अब डेमोक्रेटिक पार्टी की ओर से राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार हैं और राष्ट्रपति चुनाव में वह पूर्व राष्ट्रपति तथा रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार डॉनल्ड ट्रंप को कड़ी टक्कर दे रही हैं। कई लोग इस चुनाव को इस बात की परीक्षा बताएंगे कि हैरिस और राष्ट्रपति जो बाइडन की डेमोक्रेटिक पार्टी द्वारा की जा रही उदार मध्यमार्गी राजनीति क्या ट्रंप के लोकलुभावनवादी आंदोलनों के खतरे को विफल कर पाएंगी या नहीं।
परंतु इन चुनावों को एक और तरह से देखा जा सकता है। बाइडन और हैरिस ने बीते साढ़े तीन साल में जिस तरह प्रशासन चलाया है, उसने भी लोकलुभावनवाद को ही अंगीकार किया है – पुनर्वितरण की आर्थिक और अलग-थलग करने की विदेश नीति। ऐसे प्रशासन की 2016 में बराक ओबामा का कार्यकाल खत्म होते समय कल्पना भी नहीं की जा सकती थी।
बाइडन का आर्थिक लोकलुभावनवादी में बदलना असंभव प्रतीत हो सकता है। आखिर उन्होंने राजनीति में ही अपना करियर बनाया और उनका अधिकांश समय अमेरिकी सीनेट में गुजरा। वह विदेश नीति में अमेरिका को असाधारण मानने के शीत युद्ध कालीन विचार के अंतिम प्रतिपादक थे मगर अपने गृह राज्य डेलावेयर को अमेरिका में बेहद कम कर दर वाला एवं विनियामकों से बचाने वाला ठिकाना बनाने के प्रयासों का बचाव भी करते रहे। जिस सरकार में वह उपराष्ट्रपति रहे, वह अपने संयम और द्विदलीय व्यवस्था के लिए निरंतर प्रयासों के नाम पर ही याद की जाती है।
इसके बावजूद पद पर रहते उनके पृथकतावादी प्रदर्शन की तुलना विश्व युद्ध के बाद के अमेरिकी इतिहास में केवल ट्रंप से हो सकती है। उनके कदम इसकी गवाही भी देते हैं: तमाम सलाहों के उलट अफगानिस्तान को बिना किसी तैयारी के तालिबान के हाथों में छोड़ देना, ट्रंप के दौर की शुल्क दरों को बरकरार रखना और पिछले राष्ट्रपतियों द्वारा विश्व व्यापार संगठन को पहुंचाए गए नुकसान की भरपाई के लिए पहल करने से इनकार करना।
हालांकि उन्होंने रूस के आक्रमण के बाद यूक्रेन को अकेला नहीं छोड़ा लेकिन यूक्रेन की हर उस मांग (बेहतर हथियारों से लेकर लड़ाकू विमानों तक) को व्हाइट हाउस ने नकार दिया, जिससे उसे युद्ध में रूस को जवाब देने में मदद मिलती। बाइडन ने ऐसी मांगें तब मानीं, जब देर हो चुकी थी और उनका कोई फायदा नहीं होने वाला था। यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदीमिर जेलेंस्की और विभिन्न यूरोपीय नेताओं के साथ इस हफ्ते खिंचवाई गई तस्वीरें इस बात पर पर्दा नहीं डाल सकतीं कि यूक्रेन के लिए बाइडन उपयुक्त साझेदार नहीं साबित हुए और यूरोप के लिए भी वह सही कारोबारी साझेदार नहीं हो पाए।
बाइडन ने व्यापारिक समझौतों पर ट्रंप जैसा ही सख्त रुख अपनाया। अमेरिकी राजनयिकों ने ‘मध्य वर्ग की विदेश नीति’ वाला बाइडन का एजेंडा कहकर अक्सर इसे सही ठहराया। उनके राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने कहा है कि वैश्विक संबंधों और वित्तीय बाजारों के प्रति अविश्वास खत्म करने के इरादे से ‘नई वॉशिंगटन सहमति’ बनी है। असाधारण स्तर का व्यय, लक्षित औद्योगिक नीति, शुल्क और प्रतिबंध, कठोर नियमन तथा एकाधिकार के इस डर को अमेरिकी प्रशासन ने ‘बाइडनॉमिक्स’ का नाम दिया है।
इस रास्ते को डेमोक्रेटिक पार्टी ने तब चुना, जब 2016 में ट्रंप ने मामूली अंतर से जीत हासिल कर उन्हें स्तब्ध कर दिया। कभी औद्योगिक इलाके रह चुके मध्य-पश्चिम (मिडवेस्ट) अमेरिका में डेमोक्रेटिक पार्टी का पुराना गढ़ था और पार्टी के कुछ लोगों को विस्कॉन्सिन तथा मिशिगन जैसे राज्यों में समर्थन के बिना जीत का कोई रास्ता नहीं दिखा। उन्होंने नतीजा निकाला कि इन राज्यों को वापस जीतने का एक ही तरीका है- क्षेत्र के लोगों और उद्योगों को भारी सब्सिडी। विनिर्माण को वापस गति देने की अमेरिकी कोशिश को इसी राजनीतिक अनिवार्यता के चश्मे से देखना चाहिए। 2016 में ट्रंप को तीन राज्यों में एक लाख मतों से जीत मिली थी और यह प्रशासन इन्हें वापस हासिल करने के लिए लाखों करोड़ डॉलर खर्च कर चुका है।
बहरहाल इस विकल्प ने एक अन्य बदलाव को वैचारिक गहराई प्रदान की। पिछले डेमोक्रेटिक शासन के नए प्रशिक्षित टेक्नोक्रेट्स को बाइडन की टीम में जगह नहीं मिली। इसके बजाय बाइडन ने अपने चारों ओर युवा और गहन वैचारिक कार्यकर्ताओं को रखा, जिनमें से कई अर्थशास्त्री नहीं बल्कि अधिवक्ता या राजनयिक थे।
उदाहरण के लिए मिडवेस्ट को वापस जीतने के लिए यह धारणा शायद ही जरूरी है कि अमेरिका के प्रतिस्पर्धा नियामक को कंपनियां केवल इसीलिए भंग कर देनी चाहिए क्योंकि वे बड़ी हैं, जबकि इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि उनका आकार उपभोक्ताओं को लिए खराब साबित हो रहा है।
इसके पीछे यह मान्यता काम कर रही है कि आर्थिक सिद्धांत से प्रेरित नीति ने ही ‘हमारा यह हाल किया’ यानी यही मुख्यधारा के दलों की अलोकप्रियता का कारण बनी और ट्रंप को जिता दिया। ऐसे में कंपनियों को तोड़ा जा सकता है या उन पर प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं चाहे उपभोक्ता मूल्यों पर उसका कोई भी असर पड़े।
कर्ज या घाटा बढ़ने की परवाह किए बगैर धन को इस उम्मीद में बुनियादी ढांचे पर खर्च किया जाएगा कि इससे विनिर्माण या निर्माण क्षेत्र में रोजगार उत्पन्न होंगे। यूनियन वाली कंपनियों को खरीद और सब्सिडी जैसे मामलों में प्राथमिकता मिलेगी चाहे उससे महंगाई क्यों न बढ़ जाए। सबसे महत्त्वपूर्ण बात थी ‘मूल अमेरिकियों’ को अपने साथ वापस लाना और विदेश जा चुकी वास्तविक अमेरिकी नौकरियों को लौटा लाना। ऐसे में बीते चार सालों में किए गए खर्च और सब्सिडी के अनेक उपाय तथा अमेरिकी कंपनी जगत की बढ़ती छानबीन इस बात का बड़ा और महंगाई प्रयोग है कि आर्थिक लोकलुभावनवाद राजनीतिक तौर पर कितना कारगर रहता है।
सवाल यह है कि क्या इससे कामयाबी मिलेगी? मैं कहूंगा कि यह पहले ही साबित हो चुका है कि इतने बड़े पैमाने पर आर्थिक लोकलुभावनवाद मत दिलाने में कामयाब नहीं है। लोगों को लोकलुभावनवाद देखने में अच्छा लगता है मगर इसके नतीजों से वे नाखुश होते हैं। ऐसे व्यय पैकेज से महंगाई बढ़ती है और महंगाई किसी नेता के दोबारा चुनाव जीतने की संभावनाओं को सबसे अधिक नुकसान पहुंचाती है।
राष्ट्रपति चुनाव के लिए बहस में घटिया प्रदर्शन करने के बाद बाइडन चुनावी दौड़ से बाहर हुए हैं मगर वास्तव में उनकी लोकप्रियता पहले ही कम हो गई थी। महंगाई विशेष चिंता का विषय रही है। ट्रंप के उपराष्ट्रपति पद के उम्मीदवार महंगाई पर शिकायत कर सकते हैं किंतु ट्रंप अपनी आदत के मुताबिक नस्ली और लैंगिक शिकायतों पर ही बोलते हैं। उनके अभियान को इसी बात ने जीवित भी रखा है। आर्थिक लोकलुभावनवाद शायद कारगर नहीं रहे-उदारवादियों की हार की असली वजह सामाजिक लोकलुभावनवाद और बहुसंख्यकवाद ही हैं।