अगर आप शहर में रहते हैं तो किसी कोने में जमा कूड़े के ढेर, सड़कों पर इधर से उधर उड़ती प्लास्टिक थैलियों और सार्वजनिक नलों से टपकते पानी से जरूर रूबरू हुए होंगे। शहर की आपा-धापी की जिंदगी में हम यह सोच कर इनकी अनदेखी कर जाते हैं कि किसी न किसी का ध्यान तो इस पर जाएगा ही।
अर्थशास्त्री एडम स्मिथ के अनुसार मुक्त बाजार व्यवस्था अदृश्य ताकतों से संचालित होती है मगर शहरों के मामले में यह बात लागू नहीं होती है। शहरों के रंग-रूप एवं वहां रहने वाले लोगों की जीवन शैली और उनकी गतिविधियों पर निर्भर करते हैं। हाल में ही जापान की पर्यटक अकी दोई का एक वीडियो सामने आया है जिसमें उन्हें ओडिशा के शहर पुरी में गलियों को साफ करते देखा गया है। उन्हें किसी ने ऐसा करने के लिए नहीं कहा था बल्कि वह स्वत: ही रोज सार्वजनिक स्थलों एवं जगन्नाथ मंदिर को जाने वाली गलियों को झाड़ू से साफ कर रही थीं। यह स्व-प्रेरित अभियान सार्वजनिक स्थानों खासकर शहरों में नागरिक उत्तरदायित्वों की याद दिलाने वाला शक्तिशाली औजार है। नागरिकों की भागीदारी के बिना भारत के शहरों को नया रूप देने का अभियान अधूरा रह जाएगा। शहर केवल कंक्रीट और इस्पात का ढांचा नहीं होते हैं बल्कि वे इनके सभी नागरिकों की आदतों एवं रहन-सहन के तौर-तरीकों को भी प्रतिबिंबित करते हैं।
अनुमानों के अनुसार वर्ष 2036 तक भारतीय शहरों में लगभग 60 करोड़ लोग रहने लगेंगे, जो देश की आबादी का 60 फीसदी हिस्सा होगा। भारत में आने वाले वर्षों में शहरों में आबादी बढ़ने के अनुमान के साथ अब नजरें बुनियादी ढांचे, तकनीक विकास एवं निवेश पर टिक गई हैं। शहरों के विस्तार की इस चकाचौंध और शोरगुल के बीच नागरिकों के उत्तरदायित्व एवं उनकी सक्रिय भागीदारी बदलाव को बढ़ावा देने वाले अहम कारक हैं। राज्य स्मार्ट शहरों का निर्माण जारी रख सकते हैं और निजी उद्यम भी नई मेट्रो लाइन और स्काईलाइन के लिए रकम मुहैया कराना जारी रख सकते हैं मगर अंत में नागरिकों का व्यवहार ही यह तय करेगा कि कौन सा शहर आगे बढ़ेगा या और कौन पिछड़ जाएगा। नागरिक उत्तरदायित्व का अभाव एक अदृश्य संकट है जिससे सार्वजनिक स्थलों एवं पर्यावरण को नुकसान पहुंच रहा है और सामाजिक बिखराव का कारण बन रहा है। नागरिक उत्तरदायित्व भारत के शहरी जीवन को दोबारा जीवंत बनाने का एक प्रमुख जरिया है। भारत का ग्रामीण क्षेत्र भले ही कई खामियों से जूझ रहा है मगर यह संयुक्त भागीदारी की एक मूल्यवान नजीर पेश कर रहा है। ग्रामीण क्षेत्रों में जल प्रबंधन सामुदायिक कुओं के माध्यम से होता है, त्योहारों में लोग जमकर एक दूसरे का सहयोग करते हैं और स्थानीय स्तर पर पंचायती राज सामुदायिक स्तर पर लोगों के बीच परस्पर सहयोग सुनिश्चित करता है। जो भी निर्णय लिए जाते हैं उनके समाज के लिए सकारात्मक परिणाम तुरंत दिखने लगते हैं और इससे कुछ हद तक सभी को अपनी जिम्मेदारी का भी एहसास होता है।
मगर इसके उलट शहरी क्षेत्र में यह सामुदायिक ताना-बाना बिखरा नजर आता है। शहरों में लोगों का एक दूसरे से अनजान होकर रहना अलगाव को बढ़ावा देता है। एकजुट होकर रहने के बजाय शहरों को केवल विभिन्न आधुनिक सेवाएं हासिल करने की जगह मानने की सोच नागरिकों को सार्वजनिक स्थलों की जिम्मेदारी उठाने से रोक देती है। जलवायु परिवर्तन के खतरों और सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट के कारण नागरिकों की जवाबदेही सुनिश्चित करने की आवश्यकता और अधिक बढ़ जाती है। मुंबई और चेन्नई जैसे शहरों में आई बाढ़ केवल भारी वर्षा का ही नतीजा नहीं थी बल्कि बंद नालों और जल निकायों के अतिक्रमण भी इसका कारण थे। कोविड-19 महामारी के दौरान मास्क पहनने और सामाजिक दूरी बरतने की अनिवार्यता ने साबित कर दिया कि किस तरह नागरिकों का व्यवहार सार्वजनिक स्वास्थ्य नतीजों को सकारात्मक ढंग से प्रभावित कर सकता है। इस बात के साक्ष्यों की कमी नहीं है कि सक्रिय प्रबंधन से शहरों की सूरत बदली जा सकती है।
इंदौर इसका एक उदाहरण है जो वर्ष 2017 से लगातार स्वच्छ भारत सर्वेक्षण में सबसे स्वच्छ शहरों में पहले स्थान पर रहा है। इंदौर की सफलता शहरों के कायाकल्प में नागरिकों की जिम्मेदारी की ताकत का एक उम्दा प्रमाण है। जब यह महसूस किया गया कि नगर निकायों की व्यापक असफलता से अविश्वास का वातावरण तैयार हुआ है तो इसके समाधान के लिए इंदौर शहर में 311 मोबाइल ऐप्लिकेशन शुरू किए गए जिसके जरिये नागरिकों को स्वच्छता से जुड़े मुद्दे तत्काल उठाने एवं इसकी जवाबदेही तय करने के लिए एक सीधी एजेंसी तक पहुंच आसान हो गई। इस तकनीक के अलावा इंदौर में 800 से अधिक महिला स्वयं-सहायता समूह भी काम कर रहे हैं जो स्थानीय स्तर पर खास प्रभाव रखने वाले लोगों के साथ मिलकर स्वच्छता में सभी की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए व्यापक स्तर पर जागरूकता अभियान चला रहे हैं। नागरिकों को केवल लाभार्थी बनाने के बजाय शहरों में समस्याओं के समाधान में सहायक मानते हुए इंदौर ने लोगों की निष्क्रियता को सक्रिय भागीदारी में तब्दील कर दिया है। इससे यह साबित हो गया है कि अगर नागरिक उत्तरदायित्व को बढ़ावा दिया जाए तो शहरों में व्यापक बदलाव हो सकते हैं।
मुंबई और बेंगलूरु जैसे भारतीय शहरों में भी ऐसे कई उदाहरण है। हालांकि, उनमें ज्यादातर प्रयास स्थानीय स्तर तक ही सीमित हैं। बड़े महानगरों में ऐसी पहल को आगे बढ़ाना एवं उन्हें बरकरार रखना वास्तव में चुनौतीपूर्ण होगा मगर यह शहरों को सफल एवं टिकाऊ बनाने के लिए जरूरी है। अब समय गया है कि हम स्कूलों में शुरू से ही नागरिक शिक्षा एवं सामुदायिक कार्यक्रमों को शामिल करें ताकि एक ऐसी पीढ़ी तैयार हो सके जो शहरों को रहने की महज एक जगह के रूप में न देखें बल्कि उन्हें एक सामूहिक वातावरण के तौर पर देखें। शहरों का खाका तैयार करते वक्त भी इस बात का पूरा ख्याल रखा जाए कि ऐसी जगहों की व्यवस्था की जाए जहां आपसी विषयों एवं सामूहिक दायित्व (सार्वजनिक पार्क, सामुदायिक केंद्र, शहरी साझा क्षेत्र जहां नागरिक एक दूसरे के साथ बातचीत कर सकें और अपने एवं अपने इर्द-गिर्द के अनुभव साझा कर सकें) पर चर्चा हो सके। सहभागी संचालन को बढ़ावा देना भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है जिससे वार्ड समितियां एवं निवासी कल्याण संघ सामुदायिक स्तर पर जरूरी अर्थपूर्ण कदम उठा सकें। तकनीक का लाभ लेना भी काफी फायदेमंद हो सकता है। निकाय सहभागी प्लेटफॉर्म, मोबाइल ऐप, ई-गवर्नेंस तकनीक और डिजिटल टाउन हॉल नागरिकों एवं प्राधिकरणों के बीच दूरी को कम कर सकते हैं जिससे सबकी भागीदारी सुनिश्चित एवं पारदर्शी हो पाएगी।
शहरी कायाकल्प का मार्ग केवल नीतिगत उपायों या तकनीकी हस्तक्षेप पर नहीं बल्कि यह मूल रूप से इसके नागरिकों की सक्रिय भागीदारी एवं सक्रियता पर निर्भर करता है। स्वच्छता, जल प्रबंधन, टिकाऊ आवास और समावेशी सार्वजनिक स्थानों में सुधार तभी नजर आएंगे जब शहरी संचालन के मुख्य स्तंभ के रूप में नागरिकों को उनकी जवाबदेही के प्रति जागरूक बनाया जाएगा। टिकाऊ एवं सक्षम शहरों और तंत्रगत विफलताओं के कारण परेशान शहरों के बीच अंतर इस बात से तय होगा कि किस सीमा तक नागरिकों की सक्रिय भागीदारी को प्राथमिकता दी जाती है और भारत के शहरी बदलाव के ताने-बाने में इसे कैसे शामिल किया जाता है।
(लेखक इंस्टीट्यूट फॉर कंपेटटिवनेस के अध्यक्ष हैं। इस आलेख में मीनाक्षी अजित ने भी योगदान दिया है।)