इस साल भारत में चुनावों का दौर जारी रहने वाला है। ऐसे में सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में उच्च कोटे की मांगों में और तेजी आने की उम्मीद है क्योंकि कई समुदायों में अचानक ही अपने पिछड़ेपन का भान होने लगा है। कुछ साल पहले, ऐसी मांग करने वालों में पटेल, मराठा और जाट समुदाय के लोग थे। इस बार कर्नाटक चुनाव नजदीक आने के साथ ही राज्य की दो प्रमुख जातियों वोक्कालिगा और लिंगायत को राज्य मंत्रिमंडल में अधिक हिस्सेदारी दी गई थी। हाल ही में पश्चिम बंगाल में कुर्मी समुदाय के लोगों ने अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिए जाने की अपनी मांग के साथ ताकत का प्रदर्शन करते हुए रेलवे लाइनों को बाधित करने की कोशिश की थी।
इस वक्त रोजगार बाजार में वृद्धि न के बराबर है और कई समुदाय खुद को सामाजिक दायरे से बहिष्कृत महसूस करते हैं या कभी समृद्ध रहे समुदाय भारत की अर्थव्यवस्था में आए संरचनात्मक बदलावों के अनुरूप खुद को समायोजित करने के लिए संघर्ष कर रहे है, ऐसे में उनकी यह मांग समझ में आती है। हालांकि, राजनीतिक दलों द्वारा इस तरह की मांग को इतनी आसानी से स्वीकार कर लेना हास्यास्पद लगता है।
सरकार का दायरा कम होने के साथ ही किसी भी भारतीय के लिए नौकरियों के मौके भी कम हो रहे हैं, ऐसे में कई विशेष श्रेणियों से ताल्लुक रखने वाले लोगों की नौकरियों की बात तो छोड़ ही दें। यही बात शैक्षणिक संस्थानों की सीटों पर भी लागू होती है जहां सरकार ने निजी क्षेत्र के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से लगातार पल्ला झाड़ा है। वास्तव में जो चीजें आप कर नहीं सकते हैं उसके लिए वादा करना आसान है।
इस वास्तविकता का एक अप्रत्याशित लेकिन लगभग अपरिहार्य परिणाम यह होना है कि कभी न कभी निजी क्षेत्र में भी आरक्षण की मांग की जाने की संभावना बनेगी। यह रुझान कई राज्यों में दिखाई भी दे रहा है जहां निजी कंपनियों को जाति के आधार पर नहीं बल्कि राज्य के निवासी होने के आधार पर नौकरियों में आरक्षण देने की आवश्यकता होती है जिसमें हरियाणा, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और मध्य प्रदेश जैसे राज्य हैं।
इनमें से कुछ राज्यों में घोषणाएं अभी होनी हैं और कई अन्य को विभिन्न अदालतों में चुनौती दी गई है, लेकिन भविष्य में निजी क्षेत्र को इस मुद्दे का सामना करना पड़ सकता है, चाहे कोई भी पार्टी या राजनेता सत्ता में हो।
राहुल गांधी ने हाल ही में 2014 के चुनावी घोषणापत्र को हटा लिया जिसमें एक निश्चित निवेश मानदंड के आधार पर निजी कंपनियों में अनुसूचित जातियों (एससी) और अनुसूचित जनजातियों (एसटी) के लिए नौकरियों में आरक्षण के लिए कानून पारित करने का वादा करने के साथ ही निजी स्कूलों और शैक्षणिक संस्थानों में भी इन समुदाय के लोगों को आरक्षण देने की बात की गई थी।
वर्ष 2016 में राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग ने सिफारिश की थी कि 27 प्रतिशत अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) आरक्षण का दायरा निजी क्षेत्र तक भी बढ़ाया जाना चाहिए। कई प्रमुख गैर-सत्तारूढ़ पार्टी के नेताओं ने इस वास्तविकता को समझ लिया है कि सरकारी नौकरियां कम हो रही हैं, ऐसे में निजी क्षेत्र की समृद्धि में ओबीसी की हिस्सेदारी बढ़ाने की अनुमति देने पर जोर दिया जाना जरूरी होगा।
जब सरकार के विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए निजी क्षेत्र को भागीदार बनाने की बात आती है तब कांग्रेस ने अन्य दलों पर बढ़त हासिल की है। वर्ष 2013 में इसने कॉरपोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व (सीएसआर) के नियमों की पेशकश की जिसमें कहा गया था कि किसी निश्चित स्तर पर कारोबार करने और शुद्ध लाभ कमाने वाली कंपनियों को पिछले तीन वर्षों के अपने औसत शुद्ध लाभ का 2 प्रतिशत उन क्षेत्रों में जरूर खर्च करना होगा जिन्हें सरकार ने तय किया है। इन मुद्दों में वही मुद्दे शामिल हैं जो पारंपरिक रूप से सरकार के दायरे में आते हैं जैसे कि गरीबी, भूख, कुपोषण, पीने का पानी, शिक्षा, पर्यावरण और राष्ट्रीय विरासत का संरक्षण आदि।
मनमोहन सिंह सरकार के तहत सीएसआर के खर्चों पर कुछ हद तक निगरानी भी जारी रही। नरेंद्र मोदी सरकार की कारोबार समर्थक छवि बनाने के बावजूद इस नियम को खत्म नहीं किया।
इसके बजाय इसका स्तर अब दोगुना करते हुए सीएसआर नियमों का पालन नहीं करने वाली कंपनियों और उनके अधिकारियों पर भारी जुर्माना लगाने की बात की गई। एक तरह से यह मूल योजना से अलग है जब सीएसआर उल्लंघनों को आपराधिक जुर्म माने जाने की बात की गई थी। हालांकि इससे कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ता है क्योंकि सीएसआर पर इतना ध्यान देने के बावजूद भारत के मानव विकास संकेतक आगे नहीं बढ़े हैं।
सीएसआर से जुड़ा आदेश बड़ी जिम्मेदारी पर आधारित है, हालांकि इससे कोई नुकसान नहीं होता है। जाति और वर्ग आधारित आरक्षण, भारतीय उद्योग जगत की बातचीत के लिए कहीं अधिक पेचीदा मुद्दा होगा।
भारतीय उद्योग जगत के पारिवारिक कारोबार घरानों से जुड़े लोगों का कहना है कि भारतीय कंपनियों को कारोबार में योग्यता-आधारित प्रणालियों के पक्ष में तर्क देने को लेकर कोई विरोधाभास नहीं दिखता है। उनकी अधिकांश आपत्तियां इस तथ्य पर केंद्रित हैं कि नौकरी में आरक्षण की मांग करने वाले कम शिक्षित होते हैं। निश्चित रूप से इसके जरिये प्राथमिक स्कूल के स्तर पर ही आरक्षण शुरू करने के लिए एक अच्छा तर्क मिलता है लेकिन जब तक सरकार, सार्वभौमिक शिक्षा की अपनी नीति में संशोधन नहीं करती है तब तक इस दिशा में आगे बढ़ना प्राइवेट स्कूलों के लिए अनुचित होगा।
हालांकि निजी क्षेत्र नौकरियों में कोटा देने की संभावना के बारे में सोच कर ही कतरा रहा है, लेकिन संभव है कि कुछ समय बाद सरकार किसी न किसी रूप में इस नीति पर अपना ध्यान केंद्रित करे। निश्चित रूप से, ऐसा करने के लिए चुनावी मजबूरियां ज्यादा हैं, हालांकि बड़े कारोबार दाताओं को अलग करने की संभावना में एक जोखिम है। सरकारी ढर्रे पर काम को आगे बढ़ाए जाने के बजाए निजी क्षेत्र में अफर्मेटिव एक्शन यानी वंचित लोगों को अवसर देने की नीति लागू करने का अधिक उत्पादक तरीका एक अमेरिकी मॉडल का अनुसरण करना हो सकता है। इसके तहत सरकारी अनुबंध पाने वाली निजी कंपनियों को अफर्मेटिव एक्शन लागू करना जरूरी होगा। अभी भारत सरकार की कमान में बड़ी संख्या में बुनियादी ढांचागत क्षेत्र के अनुबंध हैं, ऐसे में इस तरह की नीति अफर्मेटिव एक्शन की मांग और वाणिज्यिक लाभ की अनिवार्यता के बीच की खाई पाट सकती है।
अमेरिका में प्रगतिशील नागरिक अधिकार कानून के साथ, इस नीति ने अफ्रीकी-अमेरिकी मध्यम वर्ग का उभार देखा है जबकि भारत लगभग सात दशकों के आरक्षण के बावजूद इस तरह का दावा नहीं कर सकता है।