वर्ष 2023 में जून और जुलाई में दर्ज औसत वैश्विक तापमान ने अब तक के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं। जंगलों में आग लगने की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं और 20 वर्ष पहले की तुलना में अब दोगुना वन क्षेत्र ऐसी घटनाओं से प्रभावित हो रहा है। वैश्विक स्तर पर समुद्र की सतह के औसत तापमान ने मई, जून और जुलाई में दर्ज पूर्व के सभी आंकड़ों को पीछे छोड़ दिया है।
सेंटर फॉर साइंस ऐंड एनवायरनमेंट के अनुसार 2022 में 365 दिनों में 314 दिन ऐसे रहे जब कहीं न कहीं मौसम में अप्रत्याशित बदलाव होने की घटनाएं हुई थीं। इन बातों से स्पष्ट है कि जलवायु परिवर्तन से जुड़े जोखिम से तत्काल निपटने की आवश्यकता है और इन्हें बिल्कुल भी टाला नहीं जा सकता है।
जलवायु परिवर्तन से जुड़े जोखिम समाप्त या कम करने के लिए पिछले 30 वर्षों से चले आ रहे प्रयास कारगर नहीं रहे हैं। वर्ष 1990 से लेकर 2019 के बीच दुनिया में पर्यावरण के लिए हानिकारक गैसों (ग्रीनहाउस गैस) का उत्सर्जन 30 अरब टन कार्बन डाइऑक्साइड समतुल्य या सीओ2ई (कार्बन डाइऑक्साइड सहित मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड सहित अन्य गैस) से बढ़कर 48 अरब टन सीओ2ई हो गया। हानिकारक गैसों के उत्सर्जन के लिए विकसित देश पूरी तरह जिम्मेदार बताए जाते हैं। इन देशों को मूल रूप से उत्सर्जन कम करने की जिम्मेदारी से मुक्त रखा गया था।
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इन हानिकारक गैसों के उत्सर्जन में विकासशील देशों की बढ़ती भूमिका यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसीसी) का उल्लंघन नहीं है। यूएनएफसीसीसी के कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज (सीओपी) की 1995 में जर्मनी के बर्लिन में आयोजित हुई पहली बैठक में टिकाऊ आर्थिक वृद्धि और गरीबी खत्म करने के विकासशील देशों की आवश्यकताओं को वाजिब बताया गया।
यह बात भी स्वीकार की गई कि पूर्व में और वर्तमान समय में वैश्विक स्तर पर हानिकारक गैसों के उत्सर्जन में विकासशील देशों की हिस्सेदारी सर्वाधिक रही है और विकासशील देशों में प्रति व्यक्ति उत्सर्जन का स्तर अब भी तुलनात्मक रूप से कम है। इस बिंदु को भी समझा गया कि विकासशील देशों में सामाजिक एवं विकास संबंधी आवश्यकताएं पूरी करने के लिए उत्सर्जन की मात्रा दुनिया में बढ़ेगी।
मगर इसमें अब संशोधन करना जरूरी है क्योंकि चीन को विकासशील देशों की सूची से बाहर किया जाना चाहिए। इसका कारण यह है कि 1990 से 2019 के बीच चीन का प्रति व्यक्ति उत्सर्जन 2.8 से बढ़कर 8.9 टन सीओ2ई हो गया था। यह 2019 में पश्चिमी यूरोप के प्रति व्यक्ति उत्सर्जन को भी पार कर गया। इस अवधि में चीन का उत्सर्जन जितना बढ़ा वह उत्सर्जन में वैश्विक स्तर पर हुई बढ़ोतरी का 54 प्रतिशत है। चीन और भारत को इस मामले में एक ही सूची में रखने का कोई औचित्य नहीं है।
भारत का प्रति व्यक्ति उत्सर्जन 2019 में 1990 में चीन के उत्सर्जन की तुलना में अब भी कम है। मेरा आशय यह है कि जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर मूलभूत चुनौती से निपटने का उत्तरदायित्व अब भी विकसित देशों के कंधों पर होना चाहिए, बस इसमें एक सुधार यह किया जाना चाहिए कि चीन को भी यह उत्तरदायित्व साझा करने के लिए कहा जाना चाहिए।
वर्ष 1990 से 2020 की अवधि में अनुबंध 1 (हानिकारक गैसों के उत्सर्जन में कटौती के लिए संदर्भित 36 देश) के देशों द्वारा उत्सर्जन में 272.4 करोड़ टन सीओ2ई की कमी जरूर आई, मगर हमें यह बात भी समझनी चाहिए कि इसका एक बड़ा कारण यह था कि रूस और पूर्वी यूरोपीय देशों (अनुबंध 1 में शामिल) में उत्सर्जन में भारी कमी दर्ज की गई।
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यह कमी जलवायु के अनुकूल नीतियों से नहीं आई बल्कि इन देशों में अत्यधिक ऊर्जा पर आधारित उद्योगों में कमी के कारण आई। अनुबंध 1 के देशों के उत्सर्जन में आई कमी में रूस एवं पूर्वी यूरोपीय देशों की हिस्सेदारी 80 प्रतिशत से अधिक रही है। 2007 के बाद केवल पश्चिमी यूरोपीय देशों में उत्सर्जन में भारी कमी आई है।
विकसित देश और चीन अब भी जलवायु प्रबंधन के जोखिमों से निपटने में सबसे बड़ी बाधा साबित हो रहे हैं। अनुबंध 1 देशों का प्रति व्यक्ति उत्सर्जन 2019 में 12.4 टन सीओ2ई था और इनमें चीन की हिस्सेदारी 8.9 सीओ2ई थी।
चीन का यह आंकड़ा भारत के 2.5 टन सीओ2ई उत्सर्जन और विकासशील देशों के 4.3 टन सीओ2ई उत्सर्जन से बहुत अधिक रहा। चूंकि, जलवायु से जुड़े जोखिम संचयी उत्सर्जन पर निर्भर करते हैं मगर 1990 से पहले के हुए उत्सर्जन पर विचार करें तो अनुबंध 1 देशों की जिम्मेदारी कहीं अधिक ठहरती है।
दुर्भाग्यवश जलवायु परिवर्तन रोकने का अभियान वैश्विक जलवायु कूटनीति से संचालित नहीं हो रहा है। पेरिस समझौते ने जलवायु कूटनीति की दिशा दो मायनों में बदल दी है। पहली बात, उत्सर्जन कम करने में विकसित देशों की भागीदारी कमजोर बनाई गई है और दूसरी बात यह कि विकासशील देशों के कंधों पर भी जिम्मेदारी डाल दी गई है।
जलवायु संबंद्ध न्याय की अनदेखी का असर अधिक उत्सर्जन करने वाले विकासशील देशों की शून्य उत्सर्जन योजना पर भी दिखता है। भविष्य को ध्यान में रखते हुए वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी 1.5 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए कुल वैश्विक उत्सर्जन 500 अरब टन सीओ2ई से नीचे रहना चाहिए। इस तरह, प्रति व्यक्ति उत्सर्जन वर्तमान समय में और शून्य उत्सर्जन का लक्ष्य प्राप्त करने की समयसीमा के बीच औसतन 1.8 टन रहना चाहिए।
कुछ समय पहले इस समाचार पत्र में प्रकाशित गणना दर्शाती है कि उत्सर्जन करने वाले बड़े देशों द्वारा शून्य उत्सर्जन के लिए घोषित तिथि के अनुसार अमेरिका का उत्सर्जन 5-7 टन, चीन का 4-6 टन, यूरोपीय संघ और ब्रिटेन का 2-3 टन, रूस का 5-8 टन और जापान का 4-5 टन रहेगा। भारत यह लक्ष्य प्राप्त करने के लिए तुलनात्मक रूप से अच्छी स्थिति में है क्योंकि इसका सालाना औसत प्रति व्यक्ति उत्सर्जन 1.5-2.3 टन के दायरे में रहेगा। हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि इसमें पूर्व में हुए उत्सर्जन के लिए किसी तरह की जवाबदेही नहीं ली गई है। अमेरिका और अन्य विकसित देश यह जवाबदेही लेने से इनकार कर चुके हैं।
इस बात की आशंका बढ़ गई है कि हम वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी 1.5 से 2 डिग्री से नीचे सीमित नहीं रख पाएंगे। जलवायु परिवर्तन का खतरा वैश्विक पारिस्थितिकी-तंत्र को चरम सीमा पार करने के करीब ले जा रहा है और खतरा अब वास्तविक लगने लगा है। हमें विकसित एवं विकासशील देश दोनों में उत्पादन एवं उपभोग के ढर्रे में बड़े बदलाव लाने की जरूरत है।
मगर यह उन लोगों की तरफ से स्वतः नहीं होगा जिनके पास सरकारों एवं अन्य संस्थाओं में निर्णय लेने के अधिकार हैं। कुछ मायनों में विकसित देशों में चुनौती कहीं अधिक है जहां मौजूदा उत्पादन एवं उपभोग प्रारूप जलवायु खतरे को बढ़ाता है। विकासशील देशों में मुख्य मुद्दा भविष्य के विकास को नई दिशा देने से जुड़ा है। यह मौजूदा उत्पादन एवं उपभोग के प्रारूपों में बदलाव लाने की तुलना में अधिक आसान है।
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जलवायु परिवर्तन रोकने के लिए सरकारों के बीच हुए समझौते पर हमारी निर्भरता कारगर साबित नहीं हुई है। इसका समाधान यह है कि दुनिया और चीन में जलवायु परिवर्तन से जुड़े खतरे को कम करने के लिए बड़े जन आंदोलन को बढ़ावा देने की जरूरत है।
जलवायु परिवर्तन रोकने की दिशा में काम करने वाले सर्वाधिक प्रभावशाली गैस-सरकारी संगठन एवं शोध संस्थाएं विकसित देशों में हैं। इनका दृष्टिकोण विकासशील देशों को लेकर भेदभाव पूर्ण रहता है और वे प्रायः पश्चिमी देशों की सरकारों के पैमाने के आधार पर दुनिया में हानिकारक गैसों के बढ़ते उत्सर्जन का आकलन एवं इसके लिए जिम्मेदारी तय करते हैं।
हमें भी भारत सहित विकासशील देशों में जलवायु संरक्षण के लिए काम करने वाले समूहों एवं शोध कार्यों में लगे संगठनों को बढ़ावा देना ताकि वे वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन रोकने के अभियान में अधिक से अधिक भूमिका निभा सकें। हमारा लक्ष्य केवल उन्हीं चीजों का प्रसार नहीं होना चाहिए जो हम अपने स्तर पर कर रहे हैं बल्कि अमेरिका, चीन एवं अन्य विकसित देशों द्वारा वादे पूरे नहीं करने की तरफ भी पूरी दुनिया का ध्यान आकृष्ट करने की दिशा में भी काम करना चाहिए।