औद्योगिक नीति एक बार फिर जोर-शोर से आजमाई जा रही है। वैश्विक स्तर पर सरकारों को लगता है कि वे सब्सिडी, नए नियमों और शुल्कों की मदद से अपनी अर्थव्यवस्था को विकास की राह पर तेज गति से आगे ले जा सकती हैं। इससे भविष्य में औद्योगिक ढांचा और मजबूत हो जाएगा। इस नीति को पिछले दो दशकों में वैश्वीकरण की ‘विफलता’ पर प्रतिक्रिया के रूप में बढ़ावा दिया जा रहा है। यह तर्क दिया जा रहा है कि विकसित देशों में सभी समुदायों के लोगों की क्रय शक्ति तो बढ़ी है और दुनिया के विकासशील देशों में गरीबी कम करने में सहायता मिली है मगर पश्चिमी देशों के कुछ हिस्सों से विनिर्माण क्षेत्र में नौकरियां अन्यत्र चली गई हैं।
कुछ विकासशील देश भी औद्योगिक नीति की तरफ कदम बढ़ा चुके हैं। उदाहरण के लिए भारत उत्पादन संबद्ध प्रोत्साहन (पीएलआई) का ढांचा खड़ा कर रहा है और विदेशी निवेश की शर्तें कड़ी कर रहा है। इनके अलावा मनमाना शुल्क लगाए जा रहे हैं और प्रतिबंध एवं लाइसेंस से जुड़े प्रावधान (लैपटॉप के मामले में) की शर्तें थोपी जा रही हैं। ये सभी उपाय औद्योगिक नीति बहाल करने के माध्यम हैं और अधिकारी एवं कुछ लोग इन्हें उचित बता रहे हैं।
जब यह याद दिलाया जाता है कि ऐसी नीतियां पहले भी भारत में आजमाई जा चुकी हैं और इनके नतीजे देश में गरीब और नए संकटों के रूप में सामने आए हैं। मगर औद्योगिक नीति के पक्ष में यह तर्क दिया जा रहा है कि भारत अब पहले की तरह नहीं रहा है। देश में इस समय एक संवेदनशील सरकार है जो कांग्रेस के एक दलीय शासन की तरह नहीं है। भारतीय मुद्रा का प्रबंधन अच्छी तरह किया जा रहा है और चालू खाते में इन्हें आसानी से प्रमुख विदेशी मुद्राओं में परिवर्तित किया जा सकता है। विदेशी कंपनियों को अब भी भारतीय बाजार में उतरने की अनुमति दी जा रही है मगर उनके लिए यहां अवसर की समानता केवल नाम मात्र के लिए है।
मान लेते हैं कि औद्योगिक नीति कुछ जगहों में कुछ समय के लिए कारगर रही थी। अब प्रश्न हम उन तथाकथित सफलताओं से क्या सीख सकते हैं जो वर्तमान में भारत में नीति के दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण हो सकती हैं?
पहली बात, औद्योगिक नीति के लिए सरकार के पास क्षमता एवं विशेषज्ञता उपलब्ध हो जाती है। जापान के उदाहरण पर विचार किया जा सकता है। जापान में 1960 के दशक में अंतरराष्ट्रीय व्यापार एवं उद्योग मंत्रालय हुआ करता था। यह एक बड़ा मंत्रालय था जो औद्योगीकरण एवं वाणिज्य से संबंधित विषय संभालता था। इस मंत्रालय में 12,000 कर्मचारी थे और कई ब्यूरो भी इससे संबद्ध थे। इनमें अधिकांश लोग नीति एवं औद्योगीकरण एवं प्रशासन में सक्रिय थे। वे सभी अपने क्षेत्र के विशेषज्ञ थे, न कि औसत जानकारियां रखने वाले लोग थे, जैसा अभी भारत के मंत्रालयों में दिख रहा है। केंद्रीय वाणिज्य मंत्रालय और भारी उद्योग मंत्रालयों दोनों को मिलाकर कर्मचारियों की कुल संख्या लगभग 400 तक ही पहुंच पाती है।
दूसरी बात, औद्योगिक नीति के लिए खुली एवं पारदर्शी नीति-निर्धारण की जरूरत होती है। इस कार्य के लिए विशेषज्ञों की जरूरत होती है। एमआईटीआई, अब अर्थव्यवस्था, व्यापार एवं उद्योग मंत्रालय (एमईटीआई) के नाम से जानी जाती हैं। 1980 के दशक में ऊर्जा नीति का ढांचा तैयार करने के लिए इसमें 10 बड़ी समितियां थीं। ये आम सहमति आधारित नीति- निर्धारण नीति का इस्तेमाल करती हैं। 1988 में इन परिषदों में लगभग 250 सदस्यों में 40 प्रतिशत उद्योग से जुड़े लोग एवं अन्य 40 प्रतिशत स्वतंत्र विशेषज्ञ एवं शिक्षाविद थे। इनमें नागरिक समाज के सदस्य भी हुआ करते थे। सरकारी प्रतिनिधियों की उपस्थिति मात्र 5 प्रतिशत से कुछ अधिक तक सीमित हुआ करती थी।
तीसरी बात, औद्योगिक नीति सरकार को न केवल विदेशी कंपनियों को भारत में आने की अनुमति देने के लिए विवश करती है बल्कि उन्हें लोक नीति चुनने में काफी हद तक राय देने का भी अधिकार देती है। दक्षिण कोरिया के विकास पर प्रकाशित शैक्षणिक शोध यह स्पष्ट करता है कि घरेलू सरकार की नीतियां एवं उसके द्वारा उठाए गए कदम काफी मददगार साबित हुए थे।
एक प्रमुख विशेषता यह थी कि आपूर्ति व्यवस्था में प्रगति करने के बाद खासकर जापान की कंपनियों ने 1965 में दोनों देशों के बीच संबंध सुधरने के बाद अपने कम लागत वाले कार्यों के लिए कोरिया के ठेकेदार की तलाश करने लगे। जापानी कंपनियों द्वारा चुने गए विकल्प-उदाहरण के लिए कोरिया में विग और प्लाईवुड में विशेषज्ञता हासिल करना- अगले दशक में निर्यात के मोर्चे पर कोरिया की सफलता से प्रेरित थे न कि सोल में बैठे अधिकारियों की पसंद या नापसंद से। दुर्भाग्य से अंतरराष्ट्रीय आपूर्ति व्यवस्था में भाग लेने के लिए उन कंपनियों की रजामंदी की जरूरत होती है जो इस समय आपूर्ति व्यवस्था में दबदबा रखते हैं। इनमें फिलहाल भारत की कोई कंपनी नहीं है।
चौथी बात यह है कि औद्योगिक नीति के तहत घरेलू निजी कंपनियों को भागीदार बनने के साथ बुनियादी शोध एवं तकनीक तक पहुंच हासिल करनी पड़ती है। शोध एवं विकास में जापान की सफलता में यह बेहद अहम पहलू था जिसकी बदौलत 1950 के दशक में वह आपूर्ति व्यवस्था में तेजी से आगे बढ़ता गया। एमआईटीआई की निगरानी में जापान की शीर्ष कंपनियों ने बड़े स्तर की तकनीकी अद्यतन परियोजनाओं पर काम किया और इन पर आए खर्च के लिए आपस में सहयोग किया।
पांचवीं बात, औद्योगिक नीति के तहत दो क्षेत्रों के बीच और क्षेत्रों के अंदर श्रमिकों की आवाजाही की आवश्यकता महसूस की जाती है। कोरिया की औद्योगिक नीति के समय विनिर्माण क्षेत्र में 60 प्रतिशत नौकरियां एक साल से कम समय तक रहीं और अर्थव्यवस्था के दूसरे क्षेत्रों की तुलना में श्रमिकों की आमद अधिक रहीं। राजस्व का एक बड़ा हिस्सा विनिर्माण क्षेत्र में वेतन बढ़ाने पर खर्च किया जाना चाहिए। इस अवधि में कृषि क्षेत्र के मजदूर विनिर्माण में नहीं लिए गए बल्कि वे सेवा एवं समर्थन क्षेत्रों के चले गए। इस प्रकार, विनिर्माण क्षेत्र में पूरी तरह नई नौकरियां शिक्षण व्यवस्था से बाहर निकले लोगों को मिल गईं।
छठी बात, औद्योगिक नीति के लिए बड़ी मात्रा में बचत (रकम) की जरूरत होती है। चीन वर्तमान में यह लक्ष्य वित्तीय दबाव की खुली नीति के साथ हासिल कर रहा है। इस नीति के अंतर्गत वहां परिवारों में उपभोग पर चीन की सरकार नियंत्रण रखती है। दूसरे पूर्वी एशियाई देशों में बैंक जमा पर क्रिप्टो- कर भी वित्तीय रणनीति का हिस्सा थे। वास्तविक ब्याज दरें भी जान-बूझकर ऊंचे स्तर पर रखी गईं। कोरिया में 1970 के दशक में कोरिया में ब्याज दरें प्रति वर्ष साल में 10 प्रतिशत से ऊपर रहीं। यह इसलिए संभव हो सका क्योंकि घरेलू सार्वजनिक ऋण अनुपात सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 3 से 4 प्रतिशत के बीच था।
सातवीं बात, औद्योगिक नीति निजी क्षेत्र में राजनीतिक हस्तक्षेप पसंद नहीं करती है। अगर कंपनियां किसी खास राजनीतिज्ञ या राजनीतिक दल की सरकार के इशारे पर काम करते पाई जाती हैं तो उन्हें गंभीर राजनीतिक खतरे का सामना करना पड़ता है। कोरिया में दिग्गज कंपनियां बड़ी राजनीतिक उथल-पुथल से निपटने में सफल रहीं और 1979 में राष्ट्रपति पार्क चुंग-ही की हत्या के बाद मचे भूचाल में भी टस से मस नहीं हुईं। पार्क चुंग ही की देख-रेख में वहां औद्योगिक नीति की शुरुआत हुई थी। कंपनियां 1980 और 1990 के दशक में हिंसा और लोकतंत्र के समर्थन में शुरू हुए आंदोलन में भी बेअसर रहीं। 1997 में एशियाई संकट के बाद ही उन्हें सुधार की जरूरत महसूस हुई।