मोदी सरकार ने अचानक ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ (एक राष्ट्र, एक चुनाव) का जो शगूफा छेड़ दिया है उसे चुनाव से पहले लोगों का ध्यान भटकाने की बड़ी चाल, या ‘ट्रायल बलून’ आदि कुछ भी नाम दे सकते हैं लेकिन यह समझना महत्त्वपूर्ण है कि यह विचार आया कहां से। लेख में आगे ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ का उल्लेख हम ‘ओएनओई’ के संक्षिप्त नाम से करेंगे।
बड़े प्रदर्शन की अपनी जानी-पहचानी प्रवृत्ति के मुताबिक मोदी सरकार ने इसकी चर्चा के साथ संसद के पांच दिन के विशेष सत्र की भी तैयारी कर ली है। पांच दिन तक टेलीविजन से सीधा प्रसारण होता रहेगा और ‘प्राइम टाइम’ पर ‘डिबेट’ चलेगी जिनमें आम तौर पर इस विचार का समर्थन ही सुनाई देता रहेगा। तमाम भारी-भरकम टीवी एंकरों में से शायद एक-चौथाई हिस्से को छोड़ बाकी सब-के-सब इस विचार का चीख-चीखकर समर्थन करेंगे। इस मौके का फायदा उठाकर कुछ एंकर वैसी उत्तेजना पैदा करने की कोशिश कर सकते हैं जो आमतौर पर पाकिस्तान, चीन, या जॉर्ज सोरोस के लिए आरक्षित रहती है।
‘ओएनओई’ तब तक संभव नहीं हो सकता जब तक संख्या में दो तिहाई राज्य उसका अनुमोदन नहीं करते। भाजपा के वश में यह नहीं है और यह उसकी सबसे बड़ी दुखती रग है, इसीलिए यह हड़बड़ी मची है। इसका अंतिम तार्किक मकसद है सभी राज्यों और केंद्र में ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव, एक पार्टी’ के विचार पर अमल। राजनीति में आकांक्षाएं रखना अच्छी बात है लेकिन बात इतनी-सी है कि आपके विरोधियों की आकांक्षाएं आपकी आकांक्षाओं के उलट होती हैं। यही वजह है कि इधर भाजपा कुछ अहम राज्यों में विफल रही है, और अगली सर्दियों में उसे कुछ और राज्यों में संघर्ष करना पड़ सकता है। खासकर उसके लिए झुंझलाने वाली बात यह है कि जिन राज्यों में वह लोकसभा चुनाव में जोरदार प्रदर्शन करती है उनमें पिट जाती है। कर्नाटक और हिमाचल प्रदेश इसके सबसे ताजा उदाहरण हैं।
‘ओएनओई’ को एक ब्रह्मास्त्र के रूप में देखा जा रहा है। अगर आपकी कमजोरी यह है कि एक ही नेता तमाम राज्यों में आपको वोट दिला सकता है और आपके अधिकतर नेता किसी गिनती में नहीं हैं तो क्यों न इस कमजोरी को अपनी मजबूती के रूप में इस्तेमाल करें? मोदी के नाम पर ही अगर केंद्र और राज्यों में वोट मांगा जाए तो इसमें बुरा क्या है? हर चुनाव ‘मोदी बनाम कौन’ हो जाएगा। जो चिंता उन पर दबाव बना रही है उसके पीछे की राजनीति को समझने के लिए हमें इस बात पर गौर करना होगा कि भारत के राजनीतिक नक्शे से भगवा रंग कितनी तेजी से गायब हो रहा है।
आज 14 राज्यों में या तो विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ का कोई घटक, या भाजपा से अलग कोई दल सत्ता में है। आप भारत को राज्यों का एक संघ मानें या एकीकृत संघीय राष्ट्र (यूनीफाइड फेडरल नेशन), 2024 के बाद अगर कम-से-कम 18 राज्य ऐसे हो जाते हैं जिनमें आप सत्ता में नहीं हैं, तो उस तरह का सत्ता प्रयोग करना एक बड़ी चुनौती हो जाएगी जिसकी मोदी सरकार आदी हो चुकी है। तब इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा कि आप लोकसभा में बहुमत में हैं। इसलिए ‘ओएनओई’ की इस चाल के साथ, 2024 के आम चुनाव की तैयारी में तीन बातें शामिल थीं:
सबसे पहले, संसद का ‘अमृत काल’ सत्र बुलाया गया। अब आगे भाजपा अगर हर चुनाव को ‘ओएनओई’ के लिए रायशुमारी में बदल दे तो हैरान मत होइएगा। दूसरी, ‘इंडिया’ के घटकों ने मुंबई के अपने सम्मेलन में वह एकजुटता हासिल करने कोशिश की है, जैसी भारतीय राजनीति में प्रायः नहीं देखी गई थी। तीसरी, मोदी सरकार ने रसोई गैस सिलिंडर की कीमत में बड़ी रियायत की घोषणा की, और पेट्रोल-डीजल के बारे में भी ऐसी घोषणा की जा सकती है। यह हड़बड़ी राज्यों के अंतिम चुनाव के नतीजों की वजह से पैदा हुई दिखती है, जिसमें भाजपा को कर्नाटक और हिमाचल प्रदेश में सत्ता गंवानी पड़ी। पिछले एक दशक में हम भाजपा के तौर-तरीके को जितना समझ पाए हैं उससे लगता है कि वह अपने हिसाब-किताब में इन सात बातों पर जरूर ध्यान देगी:
भाजपा का ‘थिंक टैंक’ (मोदी-शाह-नड्डा) पिछले तीन महीनों से इन सवालों पर जरूर मंथन कर रहा होगा। हमारे टीवी चैनल और ‘जनमत सर्वे’ तो यही संकेत दे रहे हैं कि वोटों की गिनती हुई हो या नहीं, भाजपा 2024 का चुनाव जीत चुकी है लेकिन भाजपा ऐसा नहीं सोच रही है। अपने विरोधियों से ज्यादा खुद उसे पता है कि ‘दोस्ताना’ मीडिया द्वारा महिमामंडन को कितनी गंभीरता से लेना चाहिए।
वे इस बात पर आश्वस्त हैं कि आम चुनाव तो मोदी के पक्ष में या खिलाफ ही लड़ा जाएगा लेकिन राज्यों में नगण्य नेतृत्व या महाराष्ट्र की तरह कामचलाऊ सत्ता का आत्मघाती जुगाड़ ही चलता रहा तो आम चुनाव के बाद जिन राज्यों में चुनाव होंगे उन्हें जीतना मुश्किल होगा। यह भाजपा को केंद्र में तीसरी बार अपनी सरकार बनाना और भी मुश्किल कर देगा। इसके अलावा राज्यसभा में अपनी ताकत के बारे में भी उसे सोचना होगा। कुछ राज्यों के चुनाव आम चुनाव के साथ कराने का विकल्प लुभावना तो है मगर जोखिम से भरा भी है।
इसमें पेच यह है-अगर आप यह मानते हैं कि राज्यों के और लोकसभा के चुनाव साथ कराए जाएं तो आज के मतदाता दोनों चुनावों में साफ फर्क करते हैं, जैसा कि 2019 में ओडिशा में हुआ था तो आज अगर दोनों चुनाव साथ कराए गए तो वे यह फर्क क्यों नहीं करेंगे? और अगर मतदाता अभी भी इतने समझदार नहीं हुए हैं, तो भाजपा की राज्य सरकार के प्रति उनकी नकारात्मक धारणा लोकसभा चुनाव में उनकी वोटिंग को क्यों नहीं प्रभावित करेगी? तब यह जोखिम उठाना क्या मुनासिब होगा कि अपने मुख्यमंत्रियों के खिलाफ मतदाताओं के गुस्से का खमियाजा मोदी को भुगतना पड़े? सार यह कि आम चुनाव के लिए अभियान शुरू होने में छह महीने से भी कम का समय रह गया है और भाजपा को सोच-विचार करने के लिए इतने सारे मसले हैं जितने 2019 के चुनाव से पहले नहीं थे।
आज, लोकसभा चुनाव नहीं बल्कि राज्यों के चुनाव भाजपा के रणनीतिकारों की नींद उड़ा रहे हैं। ऐसे में ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ दूर की कौड़ी लगती है। फिलहाल भाजपा को संविधान में दर्ज ‘चेक ऐंड बैलेंस’ की व्यवस्थाओं, राज्यों के अधिकारों, केंद्र सरकार की सीमाओं, और हर दो साल पर राज्यसभा की एक तिहाई सीटों के लिए चुनाव की चिंता करनी चाहिए, जो राज्य विधानसभाओं की बदलती वास्तविकताओं को प्रभावित करते हैं। इसलिए सत्तातंत्र के बौद्धिक हलकों में नए संविधान की आवश्यकता को लेकर सुगबुगाहट शुरू हो गई है।