कोई समाज कितना विकसित है उसका पता इस बात से चलता है कि सरकार अपने नागरिकों, कारोबार और संस्थाओं में कितना भरोसा करती है। यह भरोसा या उसकी कमी सरकार के तंत्र और प्रक्रियाओं में भी दिखाई देती है। विकसित देशों की सरकारों के भीतर विकासशील देशों की तुलना में विश्वास का स्तर प्राय: अधिक दिखता है। किंतु इस बात का अध्ययन यदा-कदा ही किया जाता है।
किसी भी कागजी कामकाज के लिए दस्तावेजों का सत्यापन अनिवार्य किया जाना विश्वास की इसी कमी की ओर इशारा करता है। कागजों से काम करने वाले किसी भी अफसरशाही तंत्र में सत्यापन की यह अनिवार्यता खर्च और तामझाम दोनों बढ़ा देती है। छोटे और गरीब वर्ग के लिए यह पूरी प्रक्रिया खास तौर पर जटिल हो जाती है। सरकार और जनता सहित विभिन्न समूहों के बीच अविश्वास का दूसरा उदाहरण तब सामने आता है जब कोई आवेदन करने पर अक्सर अनावश्यक जानकारी मांगी जाती है।
यह जानकारी यही मानकर मांगी जाती है कि आवेदन करने वाला कुछ न कुछ छिपा रहा होगा। विभिन्न स्तरों पर सख्त निगरानी से यह भी लगता है कि कर्मचारियों की ईमानदारी और उनकी कुशलता पर संदेह या अविश्वास है। अपेक्षित परिणामों पर अधिक ध्यान देने के बजाय प्रक्रिया पर जोर इस पूर्वग्रह का संकेत है कि कोई व्यक्ति बिना सख्त निर्देश और निगरानी के पूरी ईमानदारी और नैतिकता के साथ काम नहीं कर सकता।
विश्वास स्वस्थ परंपरा ही नहीं है बल्कि इसके पीछे आर्थिक तर्क भी काम करता है। यहां हर किसी को नैतिक रूप से खरा मानने की बात नहीं है बल्कि यह समझने और स्वीकार करने की बात है कि पूर्ण अनुपालन सुनिश्चित करने पर आने वाला खर्च कुछ उल्लंघनों की तुलना में अधिक है। विश्वास से क्षमता बढ़ती है, नियामकीय दबाव कम होता है और सामाजिक स्तर पर परिस्थितियां सबल होती हैं।
विश्वास पर आधारित तंत्र में कागजी तामझाम, निगरानी के विभिन्न स्तर और लालफीताशाही कम हो जाती है, जिससे प्रशासनिक व्यय भी कम हो सकता है। इससे सरकार को वृद्धि को गति देने तथा नवाचार में निवेश करने के अधिक अवसर मिलेंगे। भरोसा दिखाया जाए तो निष्पक्ष तथा पारदर्शी तंत्र के जरिये लोग खुद ही अनुपालन करते हैं, सोच समझकर जोखिम लेते हैं, नवाचार बढ़ता है और नियम-कायदों का पालन किया जाता है।
अंग्रेजी हुकूमत के कई तौर-तरीके अभी तक चले आ रहे हैं। उनमें एक था प्रशासनिक और प्रशासन तंत्र में अविश्वास की भावना। अंग्रेजी हुकूमत स्थानीय विरोध को दबाने और अपना वर्चस्व कामय रखने के लिए सबको संदेह की निगाह से देखती थी और उन पर नियंत्रण बनाए रखने के लिए नए हथकंडे अपनाती थी। यह अविश्वास उनके शासन, उनकी कार्य प्रणाली में भी दिखता था, जैसे राजपत्रित अधिकारी (जो अक्सर अंग्रेज होते थे) से सत्यापन की शर्त। आजादी के बाद भी भारत के कानून एवं प्रक्रियाएं अंग्रेजी तंत्र पर ही आधारित रहे और अविश्वास की मानसिकता हर स्तर पर बढ़ती गई।
दो शताब्दियों की अंग्रेजी हुकूमत के दौरान हम स्वयं अविश्वास के आदी हो चुके थे, जो नए निजाम में और भी बढ़ता गया। नतीजतन पेचीदा नियामकीय व्यवस्था, कागजी औपचारिकताओं का झमेला और कई स्तरों पर नजर रखने का सिलसिला शुरू हो गया। इनमें आंतरिक एवं बाहरी ऑडिट, निगरानी प्रकोष्ठ, भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो, संसदीय समितियां, केंद्रीय सतर्कता आयोग, केंद्रीय जांच ब्यूरो, लोकपाल, लोकायुक्त, न्यायिक इकाइयां, क्षेत्रवार नियामक, सूचना का अधिकार कानून और न जाने क्या क्या शामिल है। इनका उद्देश्य जवाबदेही पक्की करना है मगर असल में ये कर्मचारियों पर और निगरानी तंत्र पर भी गहरे अविश्वास की तरफ इशारा करते हैं। इसी अविश्वास ने परिणामों के बजाय अनावश्यक औचारिकताओं को प्राथमिकता देने की सोच गहरी कर दी है।
भरोसे के साथ प्रशासन की दिशा में अहम कदम 1992 में उठाया गया, जब संविधान में हुए 73वे और 74वां संशोधन हुए। इन संशोधनों के बाद सत्ता के विकेंद्रीकरण का रास्ता साफ हो गया और पंचायत एवं नगर निकायों जैसी स्थानीय संस्थाओं को अधिकार दिए गए। विकेंद्रीकरण दिखाता है कि संसाधन संभालने और स्वतंत्र फैसले लेने की स्थानीय अधिकारियों की क्षमता में विश्वास है। मगर स्थानीय निकायों में केंद्र और राज्य की तरह अविश्वास की सोच हावी रही।
नरेंद्र मोदी के शासन में सरकार ने नागरिकों में विश्वास बहाल करने के लिए कई महत्त्वपूर्ण सुधार शुरू किए। शपथ पत्र की जगह स्व-अभिप्रमाणन की शुरुआत हुई और राजपत्रित अधिकारियों से सत्यापन की जरूरत खत्म कर दी गई। आवेदन एक पृष्ठ में सिमट गया और फालतू प्रश्नों से निजात मिल गई। पिछले कुछ वर्षों में 3,400 प्रावधान गैर-आपराधिक हो गए और 39,000 से अधिक अनुपालनों की जरूरत खत्म कर दी गई। ये बदलाव प्रगतिवादी लग रह रहे हैं मगर कुछ समस्याएं अभी बनी हुई हैं, जिनके लिए मौजूदा सुधार जारी रखने तथा कानूनी स्तर पर उपाय करने की जरूरत है।
नागरिकों का भरोसा जीतने में प्रगति के बाद भी सरकार और कारोबार के बीच विश्वास बहाल करना लगातार चुनौती बनी हुई है। कुछ बड़े कारोबारों में बड़े फर्जीवाड़े ने अविश्वास और बढ़ा दिया है, जिसके नतीजे में पेचीदा और भारी भरकम नियामकीय तंत्र सामने आया है।
लघु एवं मझोले उद्यमों (MSME) सहित भारतीय कारोबारों को कंपनी अधिनियम 2013, आयकर अधिनियम 1961, भारतीय रिज़र्व बैंक दिशानिर्देश, बैंकिंग नियमन अधिनियम 1949, विदेशी मुद्रा विनिमय अधिनियम 1999, सेबी अधिनियम 1992, प्रतिस्पर्द्धा अधिनियम 2002, वस्तु एवं सेवा कर अधिनियम 2017, औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947, कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम 1948, कर्मचारी भविष्य निधि कोष एवं विविध प्रावधान अधिनियम 1952, बोनस भुगतान अधिनियम 1972, फैक्ट्री कानून 1948, ठेका अनुबंध अधिनियम 1970, बाल श्रम अधिनियम 1986, परिपक्वता लाभ अधिनियम 1961, ग्रैच्युटी भुगतान अधिनियम 1972 और कार्यस्थलों पर महिलाओं के साथ यौन अत्याचार रोकथाम अधिनियम 2013 सहित विभिन्न कानूनों के अंतर्गत अनुपालन संबंधी शर्तें पूरी करनी पड़ती है। भारत के नियामकीय ढांचे में 1,563 कानून हैं और इनके अंतर्गत 69,233 शर्तों का पालन करना पड़ता है। इनमें नई शर्ते जुड़ती रहती हैं।
नागरिकों के साथ आपसी विश्वास को बढ़ावा देने की तुलना में कारोबार के साथ विश्वास बहाल करना अधिक मुश्किल काम है। इसके कई कारण हैं। भ्रष्टाचार होने की आशंका से विश्वास बहाली और मुश्किल होती जाती है। दूसरा कारण यह है कि कारोबार में कई पक्ष शामिल होते हैं जिनकी आवश्यकताएं अलग-अलग होती हैं। इससे समान स्तर पर विश्वास बहाल करना और मुश्किल हो जाता है। तीसरी बात, सभी शर्तें नहीं हटाई जा सकतीं। कुछ नियामकीय शर्तें समाज कल्याण के लिए जरूरी होती हैं और इस परिप्रेक्ष्य में महत्त्वपूर्ण और कुछ कम जरूरी शर्तों के बीच अंतर करने की जरूरत महसूस होने लगी है।
सरकार और कारोबार के बीच अविश्वास दूर करने के लिए पारदर्शिता बुनियादी शर्त है। तकनीक आधारित सरकारी तंत्र की तरफ कदम बढ़ाने से विश्वास बहाली की प्रक्रिया में तेजी आ सकती है। डिजिटल लेन-देन से ऑडिट आसान हो जाता है जिससे अनैतिक व्यवहारों पर रोक लगती है और कदाचार तुरंत पकड़ में आता है। इससे लंबी नियामकीय प्रक्रिया की जरूरत समाप्त हो जाती है।
इसके अलावा विश्वास आधारित दृष्टिकोण तैयार करने के लिए अनुपालन से जुड़ी जरूरतों की व्यापक समीक्षा जरूरी है। यह समीक्षा जरूरी और गैर-जरूरी आवश्यकताओं में अंतर की पहचान करने, स्व-अभिप्रमाणन को बढ़ावा देने, प्रक्रिया सरल करने और डिजिटलीकरण का लाभ उठाने पर केंद्रित होनी चाहिए। निरीक्षण और तीसरे पक्ष से प्रमाणन (थर्ड पार्टी सर्टिफिकेशन) की शर्त, जहां भी संभव हो, समाप्त की जानी चाहिए।
गैर-जरूरी और अस्पष्ट शर्तें दूर की जानी चाहिए और जो सूचनाएं पहले से सरकारी एजेंसियों के पास मौजूद हैं वे दोबारा नहीं मांगी जानी चाहिए। आर्टिफिशल इंटेलिजेंस की मदद से ऑनलाइन सुविधा शुरू करने से कारोबार समुदाय स्वयं जरूरी शर्तों का अनुपालन कर सकते है। भारत ने विश्वास आधारित सरकारी तंत्र तैयार करने में काफी प्रगति की है, विशेषकर नागरिकों के साथ विश्वास बहाली की प्रक्रिया मजबूत हुई है परंतु कारोबार के साथ भी इसे बढ़ावा देने का समय आ गया है।
(लेखक आईआईटी कानपुर में अतिथि प्राध्यापक हैं और रक्षा सचिव रह चुके हैं)