दशकों से भारतीय शहर अवसरों के प्रमुख केंद्र रहे हैं, जो सामाजिक गतिशीलता के माध्यम से उम्मीद जगाते हैं। लाखों प्रवासी, ग्रामीण इलाकों से शहरी क्षेत्रों में चले गए हैं। मुंबई की कपड़ा मिलों से लेकर बेंगलूरु के प्रौद्योगिकी केंद्रों तक दरअसल ये प्रवासी एक ऐसी छिपी हुई ताकत हैं जो भारत के शहरी क्षेत्रों में बदलाव को लगातार बढ़ावा दे रहे हैं। यह गतिशीलता वास्तव में, भारत की विकास की कहानी में कोई आकस्मिक घटना नहीं है बल्कि इसकी केंद्रीय भूमिका रही है।
हालांकि इन दिनों भय आधारित शासन का एक उभरता रुझान, अब इस प्रणाली को खतरे में डाल रहा है। इसके कारण ही ऐसे सवाल उठते हैं कि क्या भारत के शहर, प्रवासन के इंजन के रूप में काम करते रह सकते हैं और इसके परिणामस्वरूप, ये आर्थिक वृद्धि और विकास के इंजन के रूप में भी काम करना जारी रख सकते हैं।
भारत में आंतरिक पलायन बड़े पैमाने पर होता रहा है। 2011 की जनगणना के अनुसार, 45 करोड़ से अधिक आंतरिक प्रवासी थे जो आबादी का लगभग 37 फीसदी है। विश्व बैंक के विश्लेषण के अनुसार, यह एक दशक पहले दर्ज किए गए 30 फीसदी से काफी अधिक है। ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी क्षेत्रों में पलायन एक प्रमुख घटक रहा है क्योंकि कुछ राज्यों ने वर्ष 2001-2011 के दौरान अपनी शहरी आबादी में लगभग 30 फीसदी की वृद्धि देखी है और यह मुख्य रूप से पलायन के कारण ही संभव हुआ।
आबादी में दिख रहे बदलाव के कारण, देश के आर्थिक भूगोल को एक नया रूप मिला है। वास्तव में प्रवासी न केवल अनौपचारिक अर्थव्यवस्था के लिए महत्त्वपूर्ण हैं बल्कि इनका सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में लगभग 45 फीसदी तक का योगदान है। साथ ही ये प्रवासी संगठित क्षेत्रों के लिए भी महत्त्वपूर्ण हैं जो कम लागत वाले संसाधन के रूप में उनके श्रम पर निर्भर होते हैं।
शहरीकरण का प्रबंधन जब सूझ-बूझ से किया जाता है तब इसके कारण गरीबी के स्तर में लगातार कमी आती है और इसका संबंध जीवन स्तर में सुधार के साथ भी जुड़ा है। विकासशील अर्थव्यवस्था में, शहरों में प्रवासन से गरीब परिवारों की आय बढ़ती है और इस वर्ग की सेवाओं तक पहुंच भी होती है। यह रुझान विशेष रूप से भारत जैसे देशों में दिखता है जहां शहरी क्षेत्रों में उत्पादकता का स्तर और मजदूरी, ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में काफी अधिक है। उदाहरण के तौर पर, आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण 2023-24 से पता चलता है कि भारत के शहरी क्षेत्रों में औसत वार्षिक मजदूरी (88,604 रुपये), ग्रामीण क्षेत्रों (45,785 रुपये) की तुलना में लगभग दोगुनी है।
किसी भी कानूनी प्रतिबंध की तरह, भय का माहौल बनना भी प्रवासन के लिए एक प्रभावी गतिरोध हो सकता है। भारत में आंतरिक स्तर पर पासपोर्ट का चलन नहीं है फिर भी कुछ बाधाएं अक्सर अदृश्य रूप से मौजूद होती हैं। इसमें भाषा सहित कुछ अन्य बुनियादी अंतर, महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, लेकिन एक अंतर्निहित धारणा यह भी है कि एक नए राज्य या शहर में प्रवेश करने का अर्थ वास्तव में एक नए सामाजिक और प्रशासनिक वातावरण को समझना और उसके हिसाब से सामंजस्य बिठाना है। प्रवासियों के लिए, खासकर अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वालों के लिए, स्वास्थ्य सेवा, आवास और बुनियादी राशन तक पहुंच अक्सर इसी कमज़ोर आत्मीयता की भावना पर निर्भर करती है। हाल के वर्षों में, यह भावना कमज़ोर हो गई है।
विशिष्ट भाषाई, जातीय या धार्मिक समूहों को लक्षित करने वाले राजनीतिक बयानों और प्रशासनिक उपायों ने प्रवासी आबादी के बीच असहजता पैदा कर दी है। विशेष रूप से, 2020 के कोविड-19 लॉकडाउन के दौरान अचानक नौकरी छूटने, घर को लेकर बनी असुरक्षा की स्थिति को देखते हुए, परिवहन का साधन न होने के बावजूद लाखों प्रवासी पैदल या किसी से मदद लेकर अपने गांवों में वापस चले गए और कई लोग वापस नहीं लौटे। यह विभाजन के बाद भारत में शायद सबसे बड़ा सामूहिक पलायन था, जिससे पता चला कि बिना सुरक्षा गारंटी के दायरे में रहने वाले लोगों के लिए शहरी जीवन कितना कमजोर और चुनौतीपूर्ण हो सकता है।
यह चुनौती और कमजोरी तब और बढ़ जाती है जब शासन ही भय का स्रोत बन जाता है। नीतियां भी बाहरी लोगों के बारे में मतभेद करती हुई प्रतीत होती हैं, चाहे वह पुलिस जांच, दस्तावेज सत्यापन अभियान, या मनमाने तरीके से लागू किए जाने वाले कानून या नियम हों। इनके कारण ऐसा माहौल बनता है जिससे प्रवासी यह आकलन करने लगते हैं कि उनकी सुरक्षा के लिए सबसे अच्छी रणनीति वास्तव में अपने मूल स्थान पर वापस लौट जाने में है। वहीं शहरों को दो तरह से नुकसान होता है। सबसे पहले, प्रवासी श्रमिकों पर निर्भर क्षेत्रों में तत्काल बाधाएं खड़ी होती हैं यानी निर्माण परियोजनाएं रुक जाती हैं, सेवा उद्योग को भर्ती करने में कठिनाई होती है और लागत बढ़ जाती है। दूसरा, शहरी शासन में दीर्घकालिक स्तर पर भरोसा कम होने से उन श्रमिकों को आकर्षित करना और बनाए रखना कठिन हो जाता है जो आर्थिक गतिशीलता की धुरी होते हैं।
सांस्कृतिक लागतों को मापना कठिन होता है लेकिन वे कम महत्त्वपूर्ण नहीं हैं। प्रवासी सांस्कृतिक आदान-प्रदान के भी वाहक होते हैं जो शहरों को महानगरीय शक्ल देते हैं। वे अपने साथ नए व्यंजन, भाषाएं और उद्यमशीलता के लिए काफी ऊर्जा का स्रोत लाते हैं। इस गतिशील तंत्र के अभाव में, शहरों के अधिक संकीर्ण होने, कम नवाचारी और आखिरकार वैश्विक बाजार में कम प्रतिस्पर्धी बनने का जोखिम होता है। किसी शहर में प्रवासियों के लिए एक सुरक्षित और स्वागत योग्य स्थान के रूप में विश्वास बहाल करना न केवल एक नैतिक अनिवार्यता है, बल्कि एक आर्थिक अनिवार्यता भी है।
विश्व बैंक और संयुक्त राष्ट्र एजेंसियों ने इस बात पर जोर दिया है कि सामाजिक लाभों को सहजता से दूसरों तक पहुंचाना महत्त्वपूर्ण है। ऐसे कार्यक्रम या योजनाएं जो प्रवासियों को स्थान की परवाह किए बिना स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा और सब्सिडी वाले खाद्य पदार्थों तक पहुंच बनाने की गुंजाइश देते हैं, वास्तव में वे उन सारी असुरक्षा को कम करते हैं जो उन्हें शहरों से बाहर जाने को मजबूर कर सकती है।
राज्य की सीमाओं को पार करते समय अफसरशाही के स्तर पर गतिरोध दूर करना, नियमों को सुसंगत बनाना और यह सुनिश्चित करना भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है कि बुनियादी सेवाएं किसी निश्चित, दीर्घकालिक आवास या निवास पर ही निर्भर न हों। भारत का शहरी बुनियादी ढांचा पहले से ही भारी दबाव का सामना कर रहा है। ऐसा अनुमान है कि देश को अपनी शहरी मांग पूरी करने के लिए अगले 15 वर्षों में 840 अरब डॉलर का निवेश करने की आवश्यकता होगी।
ये निवेश तभी सफल होंगे जब शहर की अर्थव्यवस्था चलाने वाली मानव पूंजी को बरकरार रखा जाए। शहर अपने आप में बेहद जटिल है और इनकी सेहत खुलेपन, वस्तुओं, विचारों और लोगों की आवाजाही पर निर्भर करती है। भारत जो दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती प्रमुख अर्थव्यवस्था बनने की आकांक्षा रखता है, उसके लिए सबक स्पष्ट है कि प्रवासन कोई ऐसी समस्या नहीं है जिसे दूर करना है, बल्कि यह वास्तव में शहरी जीवन शक्ति का स्रोत है।
भय से अल्पकालिक राजनीतिक लाभ मिल सकता है, लेकिन यह समृद्धि की नींव को कमजोर कर देता है। ऐसे में विकास का इंजन बने रहने के लिए, भारतीय शहरों को विश्वास का इंजन भी बनना होगा।
(लेखक इंस्टीट्यूट फॉर कंपेटटिवनेस के चेयरपर्सन हैं। इस आलेख में मीनाक्षी अजित का भी सहयोग है)