जर्मनी में रविवार को हुए चुनाव जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई में बड़े मोड़ की ओर इशारा करते हैं। पेरिस समझौते पर हस्ताक्षर होने से पहले दुनिया ऐसे दशक से गुजरी, जिसमें कार्बन उत्सर्जन के खिलाफ कदम उठाने पर सभी प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं के बीच राजनीतिक सहमति बन गई थी। अब स्थिति बदलने वाली है।
जर्मनी की कंजर्वेटिव पार्टियों का नेतृत्व करने वाले फ्रीडरिष मेर्त्स इस पर अपनी राय दोटूक शब्दों में अपनी सामने रखते रहे हैं। पश्चिमी जर्मनी के एक औद्योगिक शहर में बोलते हुए जनवरी में उन्होंने चेतावनी दी कि जर्मनी की आर्थिक नीतियां लगभग पूरी तरह ‘जलवायु संरक्षण पर केंद्रित थीं’और ‘हमें इसमें बदलाव करना होगा’। उन्होंने कहा कि जब तक पर्याप्त वैकल्पिक इंतजाम नहीं हो जाता तब तक कोयला और परमाणु ऊर्जा संयंत्र बंद करने पर उद्योगों वाला देश जर्मनी बड़े खतरे में पड़ जाएगा। इसीलिए ऐसा करने का सवाल ही नहीं उठता।
फ्रीडरिष ने वही बात कही है, जो उनकी क्रिश्चियन डेमोक्रेटिक पार्टी के मूल समर्थक कहते और मानते हैं। जर्मनी की अर्थव्यवस्था चलाने वाले छोटे कारोबार और मध्यम आकार के उद्योग इस बात पर चिंता करने लगे हैं कि निर्यात के दम पर हुई उनकी वृद्धि भविष्य में दोहराई नहीं जा सकेगी क्योंकि यूरोप में ऊर्जा की कीमत उसके प्रतिस्पर्द्धियों के मुकाबले लगातार ज्यादा रहेगी।
जर्मनी की राजनीति में फ्रीडरिष का होना ही अपने आप में अजीब है क्योंकि इसके लिए उन्होंने निजी क्षेत्र से लंबी छुट्टी ली है, जबकि वे उसी की चिंताओं को कारगर ढंग से आगे रख रहे थे। उन्होंने एक अमेरिकी लॉ फर्म के लिए काम किया और फिर वह बीएएसएफ से लेकर बेयर, एयरबस, एक्सा और कॉमर्सबैंक तक बड़ी कंपनियों के बोर्ड में रहे।
अगर जर्मनी जलवायु परिवर्तन के खिलाफ कार्रवाई में ढिलाई बरतता है तो यूरोप की दिशा एकदम बदल जाएगी। पोलैंड जैसे कई देश पहले ही जलवायु परिवर्तन से लड़ने में बहुत दिलचस्पी नहीं दिखा रहे हैं। फ्रांस की ज्यादातर बिजली परमाणु ऊर्जा से और स्वीडन की पनबिजली से आती है और दोनों में ही उत्सर्जन बहुत कम रहता है। इटली की प्रधानमंत्री जॉर्जिया मेलोनी भी अतीत में कड़े तेवर दिखा चुकी हैं, जब उन्होंने देश के भीतर जलवायु परिवर्तन पर बात करने से इनकार कर दिया था। हालांकि दूसरे देशों के साथ इस मसले पर यूरोप के रुख के ही साथ हैं। उनकी सरकार ने नई समुद्री पाइपलाइनों और तरल प्राकृतिक गैस (एलएनजी) टर्मिनलों के जरिये इटली को एलएनजी की आपूर्ति बढ़वाने की कोशिश की है।
यह बात बहुत अहम है क्योंकि अमेरिका, चीन और भारत जैसे अधिक उत्सर्जन करने वाले देश उम्मीद लगा रहे हैं कि उत्सर्जन कम करने का अधिक बोझ यूरोप ही उठाएगा। नए राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के अधीन अमेरिका राष्ट्रीय स्तर पर जलवायु से जुड़े कदम पूरी तरह छोड़ सकता है। डेमोक्रेटिक पार्टी की पिछली सरकार ने भी कार्बन उत्सर्जन पर सख्ती बरतने के लिए ज्यादा कुछ नहीं किया था। उसने अक्षय ऊर्जा परियोजनाओं को सब्सिडी देने पर अरबों रुपये खर्च किए मगर ये परियोजनाएं उन्हीं की लालफीताशाही मे फंस गईं। यह बहुत बुरी स्थिति थी और इससे निराश होकर अमेरिका में जनता ने सरकार बदल दी।
चीन अब भी खुद को विकासशील देश बताता है, जबकि वह भारत से पांच गुना अमीर है। वह दशकों से भारी उत्सर्जन करता आ रहा है मगर जलवायु परिवर्तन के खिलाफ अपने कदमों का होहल्ला मचाता रहता है। यह बात अलग है कि उसका शोर तथ्यों की कसौटी पर सही साबित नहीं होता। चीन अब यूरोपीय संघ से ज्यादा कार्बन उत्सर्जन कर चुका है और इसका प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन वैश्विक औसत से दोगुना है, जो लगातार बढ़ता जा रहा है। चीन की घरेलू नीतियां उसके वैश्विक बयानों से मेल नहीं खातीं। चीन के नेताओं ने स्थानीय अर्थव्यवस्था में मंदी के कारण कार्बन का बहुत उत्सर्जन करने वाले क्षेत्रों को सब्सिडी दी है। कई लोग मानते हैं कि उत्सर्जन के चरम का अपना लक्ष्य वह पूरा नहीं कर पाएगा।
इस बीच 2024 में चीन में कोयले से चलने वाले नए बिजली संयंत्रों का निर्माण 10 साल के सबसे अधिक आंकड़े पर पहुंच गया और लगभग 100 गीगावॉट की बिजली उत्पादन क्षमता बढ़ गई। बंद होने वाले संयंत्रों की संख्या भी घट रही है। 2020 में लगभग 13 गीगावॉट के संयंत्र बंद हुए मगर 2024 में केवल 2.5 गीगावॉट के संयंत्र बंद हुए।
ट्रंप आठ साल पहले जब पहली बार राष्ट्रपति बने तब उन्होंने अमेरिका को पेरिस समझौते से बाहर निकाल लिया और 2025 में उन्होंने एक बार फिर ऐसा ही किया। लेकिन कई लोगों को लगा अमेरिका की जलवायु परिवर्तन से जुड़ी कार्रवाई जारी रहेगी भले ही देश की सरकार इसमें कोई मदद नहीं करे। ऐसा लग रहा था कि बड़ी कंपनियां और वित्तीय बाजार मिलकर पक्का करेंगे कि अधिक उत्सर्जन वाले क्षेत्रों में निवेश कम रहे और उन्हें पूंजी बहुत महंगी मिले।
लेकिन इस बार स्थिति अलग लग रही है। वित्तीय संस्थान जलवायु की समस्या पर पहले जितनी दिलचस्पी नहीं दिखा रहे हैं। वित्तीय क्षेत्र को जलवायु से जुड़े विषयों पर सक्रिय करने के लिए मनाने के वास्ते बनाए गए कई कंपनी समूह, निवेशक और बैंकर निष्क्रिय हो गए हैं।
ग्रीन बॉन्ड बताते थे कि निवेश पर्यावरण के अनुकूल निवेश के लिए कितनी अधिक रकम चुकाने को तैयार हैं। मगर 2024 में वे लगभग गायब ही हो गए। अमेरिका से पहले के मुकाबले आधे ग्रीन बॉन्ड जारी हो रहे हैं और डॉलर वाले ग्रीन बॉन्ड की बाजार में कुल 14 फीसदी हिस्सेदारी रह गई है। इसलिए सरकारें जलवायु परिवर्तन पर अपने वादे पूरे नहीं करेंगी तो वित्त व्यवस्था भी इसके लिए तैयार नहीं होगी। अभी तो यह समझना एकदम मुश्किल है कि जलवायु परिवर्तन के खिलाफ संघर्ष को रफ्तार कहां से मिलेगी।
भारत के लिहाज से भी यह बेहद बुरी खबर है। दुनिया में बढ़ती गर्मी भारत के लिए ज्यादा खतरनाक है क्योंकि यहां कृषि क्षेत्र की अनिश्चितता, सूखते जल स्रोत, प्राकृतिक आपदा, भीषण गर्मी की समस्या दूसरे देशों के मुकाबले बढ़ती जा रही है। जलवायु परिवर्तन से निपटने के इंतजाम करने के लिए इसके पास दुनिया के अन्य हिस्सों की तुलना में कम प्रति व्यक्ति पूंजी है। साथ ही यह अपनी खाद्य सुरक्षा और सामर्थ्य बढ़ाने के लिए भी मौसम पर बहुत निर्भर है।
दिक्कत यह है कि हमारे पास ऊर्जा के लिए कोयले के अलावा कोई देसी संसाधन ही नहीं है। अक्षय ऊर्जा को भारत के लिए ऊर्जा सुरक्षा का स्रोत बताया जा रहा है क्योंकि इससे तेल और गैस के आयात पर हमारी निर्भरता कम होगी।
मगर इन बातों के बीच अहम सवाल यह है कि चीन, अमेरिका या यूरोप अपने उत्सर्जन में कमी लाने की योजना टाल देते हैं या धीमी कर देते हैं तो भारत के कार्बन बजट का क्या होगा?