पिछला एक हफ्ता भारत की आंखें खोलने वाला रहा है। राष्ट्रपति के तौर पर डॉनल्ड ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में भारत और अमेरिका के बीच साझेदारी नई ऊंचाइयों पर पहुंचने की उम्मीदें उस समय चकनाचूर हो गईं, जब ट्रंप ने अपने ‘मित्र’ भारत पर 25 फीसदी शुल्क लगाने का ऐलान कर डाला। यही नहीं उन्होंने रूस से हथियार और तेल खरीदने, ईरान से पेट्रोलियम उत्पाद खरीदने तथा ब्रिक्स प्लस का सदस्य होने के कारण भारत पर जुर्माना लगाने की बात भी कही।
हालांकि जुर्माना कितना होगा, यह अभी नहीं पता है। उन्होंने भारतीय अर्थव्यवस्था को मृत प्राय बताते हुए कहा कि यह भी उसी तरह गर्त में चली जाएगी, जैसे उनके पुराने दोस्त रूस की अर्थव्यवस्था जा रही है। अब यह मामला व्यापार या शुल्क की जंग भर का नहीं रह गया है बल्कि भूराजनीतिक चुनौती बन गया है, जहां अमेरिकी राष्ट्रपति अपनी दोस्तों और दुश्मनों को झुकाने की अपनी सनक में वाणिज्यिक उपायों को हथियार बनाकर इस्तेमाल कर रहे हैं। कुछ देशों ने उनकी अतिरंजित और भेदभाव भरी मांगों के सामने घुटने टेक दिए हैं और अमेरिका में भारी निवेश का वादा किया है, जो पता नहीं ट्रंप का कार्यकाल समाप्त होने तक पूरा हो पाएगा या नहीं।
चीन जैसे अन्य देशों ने अपनी वाणिज्यिक बढ़त का इस्तेमाल कर अमेरिका का प्रतिरोध किया है। मगर भारत के पास तो इस तरह की बढ़त भी नहीं है तो क्या उसे चुपचाप अमेरिकी मनमानी सहन कर लेनी चाहिए?
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धौंस जमाने वालों से निपटने का सबसे अच्छा तरीका यही है कि उनकी धौंस नहीं सही जाए। अगर पहली बार में ही झुक गए तो भविष्य में और भी दबाव पड़ सकता है तथा बार-बार घुटने टेकने पड़ सकते हैं। अभी जान छुड़ाने के लिए छोटी कीमत चुका दी गई तो भविष्य में बड़ी कीमत चुकाने के लिए भी तैयार रहना पड़ेगा। भारत अगर अभी ट्रंप की मांगों के खिलाफ खड़ा नहीं होता है तो आगे चलकर अमेरिका की फरमाइशें बढ़ती ही जाएंगी और वह बड़ी रियायतें मांगेंगे। अगर हमने अभी सीमा रेखा नहीं खींची तो भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा और दुनिया में इसकी विश्वसनीयता तथा प्रभाव के लिए दुष्परिणाम होंगे।
क्या भारत को अपने प्रतिरोध की कीमत चुकानी होगी? बिल्कुल चुकानी होगी और हमें इसके लिए तैयार भी रहना चाहिए। अमेरिका के साथ हमारे आर्थिक और वाणिज्यिक रिश्तों की सीमा क्या है?
2024-25 में भारत और अमेरिका के बीच कुल 186 अरब डॉलर का व्यापार हुआ, जो भारत के कुल व्यापार का 10.73 फीसदी है। भारत का 8 फीसदी निर्यात अमेरिका जाता है और अमेरिका से हम 6 फीसदी आयात करते हैं। 10 फीसदी व्यापार की निर्भरता ज्यादा तो है मगर ऐसा भी नहीं है कि उसका खत्म होना बरदाश्त नहीं किया जा सकता। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की बात करें तो उसी साल अमेरिका चौथे नंबर पर रहा और भारत में 81.04 अरब डॉलर की कुल आवक में उसका योगदान केवल 11 फीसदी रहा। हिस्सेदारी का यह आंकड़ा ज्यादा तो है मगर इतना ज्यादा नहीं है कि उसे किसी अन्य देश से हासिल न किया जा सके। अनुमान है कि उच्च टैरिफ लागू होने के बाद भारत के सकल घरेलू उत्पाद में दो फीसदी तक कमी आ सकती है। परंतु यह बहुत बड़ी कीमत नहीं है। अतीत में जब हम कमजोर देश थे तब भी अहम मसलों पर अपना रुख साफ करने की कीमत हमने चुकाई है।
ट्रंप के कदमों के भूराजनीतिक परिणाम और भी चिंतित करने वाले हो सकते हैं। वह अन्य देशों के साथ भारत के रिश्तों पर वीटो चाहते हैं, यानी चाहते हैं कि अमेरिका तय करे कि भारत किसके साथ कैसे रिश्ते रखे। इसे पुरजोर तरीके से नकारा जाना चाहिए। भारत के पास ब्रिक्स प्लस और क्वाड में बने रहने की पर्याप्त वजह है। रूस के साथ हमारा रिश्ता कई तरह से हमारे हित में है। हालांकि इसमें अब कुछ विविधिता आ रही है लेकिन उसकी अपनी वजह हैं। अमेरिकी विदेश नीति में जिस तरह किसी एक की सनक के कारण पल भर में दुश्मन और दोस्त बदल जाते हैं, उसे देखते हुए जरूरी है कि भारत साझेदारियों का अपना नेटवर्क बनाए रखे तथा मजबूत करे। अन्य देशों के साथ भारत के रिश्तों में सबसे अहम रही है उसकी विश्वसनीयता। विभिन्न देश भारत पर भरोसा कर सकते हैं कि उसके साथ रिश्तों में निरंतरता बनी रहेगी। हमें एक अस्थिर चित्त वाले नेता के फेर में अपनी यह साख गंवानी नहीं चाहिए। भले ही वह दुनिया के सबसे ताकतवर मुल्क का मुखिया क्यों न हो? हमने दशकों में जो विश्वसनीयता और प्रतिष्ठा अर्जित की है उसे इस हाथ दे उस हाथ ले वाले रिश्ते की भेंट नहीं चढ़ा देना चाहिए।
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भारत को अपनी अर्थव्यवस्था को और भी बहिर्मुखी बनाना चाहिए मगर ऐसा अपने हित के लिए करना चाहिए, ट्रंप की मांगें पूरी करने के लिए नहीं। अच्छी बात यह है कि भारत ने कुछ व्यापार समझौते कर लिए हैं और उसे दोगुनी तेजी के साथ ऐसे अन्य समझौतों की दिशा में बढ़ना चाहिए जैसे यूरोपीय संघ के साथ समझौता। भारत ने बिना किसी ठोस वजह के स्वयं को दक्षिण-पूर्व एशिया के जीवंत आर्थिक क्षेत्र से अलग कर लिया है। उसे डर है कि चीन उस मार्ग का इस्तेमाल अपने माल को भारत में खपाने के लिए कर सकता है। परंतु इससे भारत को चीन से होने वाले निर्यात में कोई कमी नहीं आई है और इस समय वह अपने सबसे ऊंचे स्तर पर है। हमें पूर्व के अपने पड़ोसियों के साथ आर्थिक जुड़ाव का रास्ता दोबारा तैयार करना होगा क्योंकि वह अहम भूराजनीतिक पहलू है।
इस क्षेत्र के अधिकांश देश चाहते हैं कि भारत चीन को टक्कर देने वाला भरोसेमंद देश बने मगर यह तब तक संभव नहीं है जब तक हमारे पास मजबूत आर्थिक आधार न हों। भारत को व्यापक एवं प्रगतिशील प्रशांत पार साझेदारी (सीपीटीपी) का हिस्सा बनने के लिए आवेदन करना चाहिए, जहां फिलहाल न तो चीन है और न ही अमेरिका। आज के हालात में खुद को ट्रंप की नीतियों से बचाने के लिए शायद सबसे अच्छा रास्ता यह साहसी कदम ही होगा।
अंत में एक बात उन लोगों के लिए जो सोचते हैं कि हमें झुक जाना चाहिए और ट्रंप के कार्यकाल को किसी तरह गुजार लेना चाहिए क्योंकि जल्द ही अच्छे दिन लौट आएंगे। जमीनी हालात अगर किसी भी वजह से एक बार बदल जाते हैं तो उन्हें वापस पहले जैसा करना बहुत मुश्किल होता है।
(लेखक विदेश सचिव रह चुके हैं)