गत सप्ताह ब्लूमबर्ग ने एक रिपोर्ट में कहा कि भारत अपने प्रत्यक्ष कर कानूनों में सुधार की तैयारी कर रहा है ताकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को आय की बढ़ती असमानता को कम करने में मदद मिल सके। हालिया बजट में सरकार ने पहले ही डेट फंडों पर सामान्य आय कर दरों से कर लगाने का निर्णय लिया था।
जब आलेख सामने आया तो कुछ लोगों में भय का माहौल उत्पन्न हुआ और सरकार को तत्काल कदम वापस लेना पड़ रहा है। परंतु जिन्न बोतल से बाहर आ चुका था। सरकार ने हमें तैयार कर दिया था। अब किसी भी समय पूंजीगत लाभ कर दरों को समुचित स्तर पर लाया जा सकता है।
परंतु क्या अमीरों पर कर लगाने से असमानता में कमी आएगी जबकि अमीरों की अमीरी कर लाभ के कारण नहीं बढ़ रही है बल्कि उसमें भ्रष्टाचार, नियमों की अस्पष्टता, नियामकीय नाकामियों, कमजोर संस्थानों और हर स्तर पर व्यवस्था के साथ छेड़छाड़ के कारण इतना इजाफा हो रहा है।
यानी अगर हमें आय की असमानता को दूर करना है तो हमें दरों में छेड़छाड़ करनी पड़ सकती है लेकिन यह वह हमारी प्राथमिकता में सबसे नीचे होना चाहिए। गत 21 दिसंबर को संसद में एक प्रश्न के उत्तर में सरकार ने यह बताया था कि उसे 2020-21 में दीर्घावधि के पूंजीगत लाभ (एलटीसीजी) से महज 5,311 करोड़ रुपये हासिल हुए।
उच्च पूंजीगत लाभ कर से हासिल मुद्रा 2023-24 में 24.4 लाख करोड़ रुपये की राजस्व प्राप्तियों और 41.9 लाख करोड़ रुपये के व्यय अनुमान में शायद ही कोई खास योगदान कर सके। यह राशि उन संसाधनों की तुलना में भी कुछ नहीं है जो केंद्र और राज्य सरकारों के स्तर पर विभिन्न नाकाम योजनाओं तथा पुराने भ्रष्टाचार के कारण बरबाद हुए और जो सिलसिला अभी तक लगातार जारी है।
यह बात याद रखने वाली है कि सरकारी प्राप्तियों का 31 फीसदी हिस्सा ब्याज तथा वेतन चुकाने में लग जाता है। परंतु इन दोनों व्ययों को लेकर कुछ नहीं किया जा सकता है।
ऐसे में एलटीसीजी के साथ छेड़छाड़ से इतना पैसा नहीं मिल सकता है कि कोई खास अंतर पैदा हो सके। शायद सरकार अगले आम चुनाव में वोट हासिल करने के लिए गरीबी हटाओ जैसा कोई संदेश देना चाहती है। उच्च पूंजीगत लाभ कर से सरकार की गरीब समर्थक की छवि मजबूत होती है और अमीरों को उनकी वास्तविक जगह दिखाई जाती है।
Also Read: प्लास्टिक पर प्रतिबंध में नाकामी
यह नोटबंदी के जादू जैसा हो सकता है जिसने आय की असमानता कम नहीं की, न ही भ्रष्टाचार को हटाया और न ही अमीरों को कोई सबक सिखाया लेकिन आर्थिक दृष्टि से समझदार और पढ़ेलिखे लोगों ने चतुराई भरे नारों, चुटकुलों और कहानियों की मदद से इसका खूब समर्थन किया।
अगर ब्लूमबर्ग की रिपोर्ट एक किस्म का परीक्षण थी जिसे वित्त मंत्रालय ने तत्काल नकार दिया तो इससे यही पता चलता है कि मोदी सरकार इस बात को लेकर सतर्क है कि अमीरों पर अगर पूंजीगत लाभ कर बढ़ाया गया तो वे किस प्रकार की प्रतिक्रिया देंगे।
सरकार को डरने की आवश्यकता नहीं है। भारतीयों ने नोटबंदी जैसे झटकों के समय या आम जिंदगी में भी न केवल दर्द और असहज स्थिति को झेलने की जबरदस्त क्षमता दिखाई है, वहीं पूंजी बाजार के अधिकांश लोगों को यकीन है कि उनकी समस्याएं अस्थायी हैं और भारत सहजता से आर्थिक महाशक्ति यानी 5 लाख करोड़ रुपये मूल्य की अर्थव्यवस्था बनने की दिशा में बढ़ रहा है।
हालांकि उनकी समझ में एक दिक्कत है: मजबूत संस्थानों के अभाव में भारत न तो आर्थिक महाशक्ति बन सकता है और न ही वह आय की असमानता दूर कर सकता है। हमारे यहां ऐसे संस्थानों की कमी है।
समृद्धि हासिल करने के लिए (आर्थिक महाशक्ति बनने की बात तो भूल ही जाइए) तथा आय की असमानता कम करने के लिए मजबूत आर्थिक वृद्धि आवश्यक है लेकिन केवल उससे बात नहीं बनेगी। ऐसी वृद्धि को लंबे समय तक बरकरार रखना होगा। इस दौरान मुद्रास्फीति में कमी और ब्याज दर का कम होना भी जरूरी है। यह तभी संभव है जब अर्थव्यवस्था झटकों को सहन कर सके।
यह तब हो सकता है जब नियम प्रतिक्रिया देने में सक्षम हों और व्यवस्था तथा संस्थान मजबूत हों। यदि ऐसा नहीं हुआ तो वृद्धि थम जाएगी और ज्यादातर लोगों को उच्च वृद्धि के दौर से लाभ नहीं मिलेगा। इतिहास हमें यही सिखाता है। सन 1980, 1990 और 2000 के दशक में और फिर 2010-12 के बीच उच्च वृद्धि के पिछले दौर में ऐसा ही हुआ था। इनमें से हर दौर में कुछ वर्षों की उच्च वृद्धि बिना आय में असमानता कम किए समाप्त हो गई थी।
Also Read: चीन की आरएमबी परियोजना धीरे-धीरे बढ़ रही आगे
सन 1980 के दशक की तेजी ने भारत को डिफॉल्ट के कगार पर पहुंचा दिया था। एक समय भारत का विदेशी मुद्रा भंडार दो सप्ताह के आयात के लिए जरूरी स्तर से भी कम बचा था। सन 1990 के दशक की उस वृद्धि ने ब्याज दरों और मुद्रास्फीति में इजाफा किया जिसने उदारवाद को लेकर उत्पन्न जोश को ही ध्वस्त कर दिया। 2003 से 2007 के बीच की वृद्धि अधिक ठोस थी लेकिन वैश्विक वित्तीय संकट ने बुनियादी कमजोरियों को उजागर कर दिया।
सन 2010-12 के वृद्धि के दौर में आसानी नकदी उपलब्ध रही जिससे मुद्रास्फीति और ब्याज दरों में इजाफा हुआ। इसके चलते 2013 के मध्य में विदेशी मुद्रा का संकट उत्पन्न हुआ। उच्च वृद्धि के इन दौर के अस्थायी होने की वजह है।
जिस समय वृद्धि गति पकड़ती है कारोबारियों में जोश आ जाता है। उनके कदमों से उच्च मांग वृद्धि की एक श्रृंखला तैयार हो जाती है। मांग के बढ़ने और वित्तीय पूर्वानुमान में तेजी को भांपते हुए वित्तीय बाजार जोश में आ जाते हैं जिससे पूंजी का अतार्किक आवंटन होता है।
परंतु संस्थागत रूप से कमजोर अर्थव्यवस्था ऐसी उच्च वृद्धि की मांगों से नहीं निपट पाती। आपूर्ति को बराबरी करने में वक्त लगता है। अगर आपूर्ति तेजी से कदमताल नहीं कर पाती तो मांग वृद्धि के कारण मुद्रास्फीति बढ़ती है। इस पर नियंत्रण पाने के लिए उच्च ब्याज दर की आवश्यकता होती है।
Also Read: समलिंगी विवाह और लैंगिक हालात की समीक्षा
जो अर्थव्यवस्था उच्च मांग से निपटने के लिए मुद्रास्फीति और ब्याज दरों को संतुलित रख सके और निरंतर वृद्धि बहाल रख सके, केवल वही समृद्धि बढ़ाने और असमानता दूर करने में मददगार साबित होती है। इसके लिए प्रतिक्रिया देने और समायोजन करने वाले संस्थानों तथा नियामकीय व्यवस्था की आवश्यकता होती है।
उदाहरण के लिए तेजी के दौर में होटल के कमरों की मांग भी तेज होती है। क्या होटल वाले आपूर्ति में तेजी से योगदान कर सकते हैं? यह बात हर उद्योग पर लागू होती है। दुर्भाग्यवश किसी सरकार ने नियमन को बेहतर और पारदर्शी तथा संस्थानों को जवाबदेह बनाने के लिए अधिक काम नहीं किया है।
उनके कदम काफी विरोधाभासी रहे हैं-मनमाने, पक्षपाती और गैर जवाबदेह। भ्रष्टाचारी एक बीमारी की तरह फैल गया है। जब तक ये दिक्कतें रहेंगी, आय की असमानता बढ़ती रहेगी और अमीरों पर कर लगाने से केवल वोट मिलेंगे और कुछ नहीं होगा।
(लेखक मनीलाइफडॉटइन के संपादक हैं)