इस समाचार पत्र में मैंने अपने कई स्तंभों के माध्यम से चीन की आधिकारिक मुद्रा रेनमिनबी (आरएमबी) के अंतरराष्ट्रीयकरण से जुड़े तथ्यों एवं घटनाक्रम की चर्चा की है। इस विषय पर कोई नई जानकारी रुचिकर हो सकती है क्योंकि पिछले कुछ समय में वैश्विक पटल पर कई उल्लेखनीय घटनाक्रम हुए हैं। उनमें रूस-यूक्रेन के बीच युद्ध, रूस के खिलाफ अमेरिका द्वारा अभूतपूर्व प्रतिबंधों की घोषणा और इसके फलस्वरूप वैश्विक ऊर्जा बाजार में मची भारी हलचल ने खास तौर पर पूरी दुनिया का ध्यान खींचा है।
वैश्विक वित्तीय एवं मुद्रा बाजार में अमेरिका का प्रभाव रहा है और वह इसका इस्तेमाल विभिन्न अवसरों पर अपना प्रभुत्व दिखाने के लिए करता रहा है। इसे देखते हुए दुनिया के देश डॉलर पर अपनी असाधारण निर्भरता से से जुड़े जोखिमों से अपने हितों की सुरक्षा के लिए कदम उठा रहे हैं। अमेरिका की मौद्रिक नीति और वहां ब्याज दरों में बदलाव से ये जोखिम और बढ़ते जा रहे हैं।
चीन इसे विश्व में अपना सिक्का जमाने और आरएमबी की भूमिका बढ़ाने के अवसर के रूप में देख रहा है। कई देश, खासकर एशिया, लैटिन अमेरिका, अफ्रीका और ओशियानिया (ग्लोबल साउथ) के देश व्यापार में सहयोगी देशों के साथ स्थानीय मुद्राओं में द्विपक्षीय व्यापार करने की संभावनाएं तलाश रहे हैं।
ब्राजील ने कहा है कि वह चीन के साथ उसकी मुद्रा आरएमबी और अपनी मुद्रा ब्राजीलियाई रियाल में व्यापार सौदों का निपटान करेगा और इसमें किसी मध्यस्थ प्रणाली (मुद्रा परिवर्तन) का सहयोग नहीं लेगा। आरएमबी में तेल एवं गैस का व्यापार ईरान और वेनेजुएला जैसे देशों के साथ तेजी से बढ़ा है। ये देश अमेरिकी प्रतिबंधों का सामना कर रहे हैं और अंतरराष्ट्रीय वित्तीय बाजार में डॉलर में होने वाले सौदों से पूरी तरह अलग-थलग हैं।
यूक्रेन में युद्ध शुरू होने के बाद तेल का सबसे बड़ा उत्पादक देश रूस भी डॉलर से इतर चीन की मुद्रा में कारोबार करने के लिए कूद पड़ा है। रूस चीन के साथ तेल एवं गैस व्यापार में एक बड़ी मात्रा का निपटान युआन या रूबल में कर रहा है। हाल में ही फ्रांस की कंपनी टोटाल ने चीन को एलएनजी की आपूर्ति का सौदा युआन में करने के लिए समझौता किया है।
चीन के साथ व्यापार में सहयोगी दूसरे देश भी ऐसी व्यवस्था के लिए हामी भर सकते हैं। हालांकि इसके बावजूद अन्य देश आरएमबी का इस्तेमाल व्यापारिक सौदों के निपटान के लिए नहीं कर रहे हैं। इन देशों के मामले में पूर्ण रूप से परिवर्तनीय अमेरिकी डॉलर को टक्कर देने वाली कोई दूसरी मुद्रा नहीं है। वैश्विक वित्तीय बाजारों में रोजाना 7.5 लाख करोड़ रुपये का कारोबार होता है जिनमें 88 प्रतिशत सौदों में डॉलर एक समकक्ष मुद्रा होती है।
चीन ने एक पूर्ण परिवर्तनीय मुद्रा स्वीकार करने में अपनी हिचकिचाहट के बीच विभिन्न उपाय किए हैं। सबसे पहले उपाय के रूप में चीन ने सेंट्रल बैंक डिजिटल करेंसी (सीबीडीसी) के इस्तेमाल को बढ़ावा देने की पहल की है। सीबीडीसी का इस्तेमाल सरकार की पैनी निगरानी में एक देशों के बीच लेनदेन के लिए किया जा सकता है। विविध सीबीडीसी परियोजना या ‘एम-ब्रिज’ विशेष रुचि का विषय है।
हॉन्ग कॉन्ग मौद्रिक प्राधिकरण, बैंक ऑफ थाईलैंड, पीपुल्स बैंक ऑफ चाइना के अधीनस्थ चीनी डिजिटल मुद्रा शोध संस्थान और बैंक ऑफ इंटरनैशनल सेटलमेंट्स (बीआईएस) की एक देश से दूसरे देश के बीच भुगतान की यह प्रायोगिक पहल है। इस पहल का मकसद ‘डिस्ट्रिब्यूटेड लेजर टेक्नोलॉजी पर वास्तविक समय में एक देश से दूसरे देश के बीच लेनदेन की एक सक्षम व्यवस्था तैयार करना है।’ इसका पहला चरण सफलतापूर्वक पूरा कर लिया गया है और दूसरे चरण की शुरुआत जल्द होगी।
एक दूसरे उपाय के रूप में चीन ने जून 2022 में बीआईएस के साथ मिलकर संयुक्त पहल के तहत आरएमबी नकद व्यवस्था को बढ़ावा दिया। इसका उद्देश्य आरक्षित कोष योजना के माध्यम से नकदी समर्थन देना था। इस व्यवस्था में भागीदार केंद्रीय बैंक इस योजना का इस्तेमाल भविष्य में बाजार में अनिश्चितता के दौरान कर सकते हैं। इंडोनेशिया, मलेशिया, हॉन्ग कॉन्ग मौद्रिक प्राधिकरण, सिंगापुर, चिली में प्रत्येक कम से कम 1.5 करोड़ आरएमबी या डॉलर की समतुल्य रकम कोष में देंगे।
यह कोष बीआईएस के पास रहेगा। इस पहल का उद्देश्य एक वित्तीय प्रत्याभूतिकर्ता के रूप में चीन की भूमिका को बढ़ावा देना है। यह एक तरह से पूर्व में एशियाई मुद्रा कोष के प्रस्ताव को जीवित करने जैसा होगा। 1997 में एशियाई वित्तीय संकट के दौरान एशियाई मुद्रा कोष स्थापित करने का प्रस्ताव दिया गया था। इस व्यवस्था में अधिक देशों के जुड़ने, खासकर एशियाई देशों की भागीदारी बढ़ने से यह एशिया में युआन मुद्रा क्षेत्र की शुरुआत हो सकती है।
तीसरी पहल के रूप में चीन ने एशिया में आरएमबी आधारित ऊर्जा बाजार तैयार करने के लिए तेल का सबसे बड़ा आयातक और गैस एवं एलएनजी का एक बड़ा आयातक होने के अपने ओहदे का लाभ लेने का प्रयास किया है। यह शुरू में द्विपक्षीय आधार पर होगा मगर बाद में एक पूर्ण वैश्विक बाजार बन जाएगा जहां चीन से ताल्लुक नहीं रखने वाले तेल एवं गैस व्यापार के लिए भी युआन आधारित लेनदेन किए जा सकते हैं। दिसंबर 2022 में सऊदी अरब की यात्रा पर गए चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने प्रस्ताव दिया कि तेल का निर्यात करने वाले खारी देश शांघाई पेट्रोलियम ऐंड गैस एक्सचेंज (एसपीएचजीएक्स) का इस्तेमाल ना केवल चीन बल्कि दूसरे एशियाई देशों को भी आरएमबी में तेल एवं गैस बेचने के लिए कर सकते हैं।
शांघाई इंटरनैशनल एनर्जी एक्सचेंज डेरिवेटिव, ऑप्शंस, स्पॉट ऑयल, प्राकृतिक गैस एवं एलएनजी व्यापार के लिए बाजार मुहैया कराता है। इससे सही मायने में स्थानीय आपूर्ति एवं मांग और एशियाई उत्पादकों एवं आयातकों के सापेक्ष भारांश के आधार पर एशियाई सूचकांक स्थापित होना चाहिए। शुरू में यह सीमित आधार पर होगा, बाद में बाजार की गहराई बढ़ने पर इसका विस्तार किया जा सकता है। शांघाई मानकों पर आधारित कारोबार अब बढ़कर अमेरिका स्थित वेस्ट टैक्सस और लंदन स्थित ब्रेंट सूचकांकों के बाद तीसरे स्थान पर आ गया है।
शांघाई एक्सचेंज को अधिक आकर्षक बनाने और जोखिम कम करने के लिए चीन ने तेल एवं गैस के व्यापार से प्राप्त आरएमबी को क्रमशः हॉन्ग कॉन्ग और शांघाई गोल्ड एक्सचेंजों में सोने में तब्दील करने की अनुमति दी है। हालांकि 2021 में चीन का तेल आयात 400 अरब डॉलर का था जो दुनिया में 22 लाख करोड़ डॉलर के कुल तेल व्यापार का केवल 2 प्रतिशत हिस्सा था। इस वजह इससे मिलने वाली बढ़त को बढ़ा-चढ़ा कर नहीं पेश किया जाना चाहिए। चीन द्विपक्षीय सौदों के निपटान में अपनी मुद्रा के इस्तेमाल को बढ़ावा देने में कामयाब हो सकता है मगर बहुपक्षीय लेनदेन के निपटान में अमेरिका डॉलर का दबदबा बना रहेगा।
इसके बावजूद दुनिया की दूसरी अर्थव्यवस्था होने के कारण और विदेश में अपने बड़े निवेशकों की बदौलत चीन अंतरराष्ट्रीय वित्तीय एवं मुद्रा बाजार में अग्रणी भूमिका निभाने की स्थिति में आ सकता है। अर्थशास्त्री केनेथ रोगॉफ ने कहा है, ‘मेरा अनुमान है कि कालांतर में एशियाई देश डॉलर नहीं बल्कि आरएमबी अपनाने लगेंगे। इसके बाद एक ऐसी स्थिति बनेगी जिसमें आरएमबी एशिया की क्षेत्रीय मुद्रा बन जाएगी, यूरो यूरोप की क्षेत्रीय
मुद्रा होगी और बाकी क्षेत्रों में डॉलर का दबदबा रहेगा।’
क्या भारत को इन घटनाक्रम की आंतरिक बातों का अध्ययन करना चाहिए जैसा इसने एशियन इन्फ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट बैंक और ब्रिक्स डेवलपमेंट बैंक के मामले में किया था? क्या भारत को स्थानीय मुद्राओं में ब्रिक्स व्यापार सौदों के निपटान ढांचे को बढ़ावा देने के लिए अधिक सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए? या फिर पश्चिमी देशों के दबदबे वाली वित्तीय प्रणाली के साथ और अधिक जुड़कर इसके आर्थिक एवं भू-राजनीतिक हित बेहतर तरीके से साधे जा सकते हैं? ये सभी महत्त्वपूर्ण प्रश्न हैं जिन पर सावधानी से विचार किया जाना चाहिए।
(लेखक भारत के विदेश सचिव रह चुके हैं और सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में मानद फेलो हैं।)