भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (SEBI) की प्रमुख माधवी पुरी बुच ने पिछले दिनों एक संवाददाता सम्मेलन में डेरिवेटिव खंड में कयास आधारित कारोबार में बेतहाशा बढ़ोतरी पर चिंता जताई थी। पिछले कुछ वर्षों के दौरान डेरिवेटिव खंड में कारोबार में भारी इजाफा हुआ है। इससे कयास आधारित कारोबार और बढ़ने की चिंता सिर उठाने लगी है। शेयर ब्रोकरेज कंपनी जीरोधा के संस्थापक नितिन कामत ने सोशल मीडिया एक्स पर कहा, ‘विकल्प (ऑप्शन) खंड में कारोबार बेतहाशा बढ़ा है।
सूचकांक विकल्प (इंडेक्स ऑप्शन) में 2018 में 4.6 लाख करोड़ रुपये का कारोबार हुआ था, मगर यह 2024 में बढ़कर 138 लाख करोड़ रुपये तक पहुंच गया है। इससे भी गौर करने वाली बात यह है कि खुदरा निवेशकों की हिस्सेदारी 2 प्रतिशत से बढ़कर 41 प्रतिशत हो गई है। इसे लेकर सेबी की प्रतिक्रिया देर से आई है और वह भी गलत दिशा में प्रतीत हो रही है। आइए, इसका कारण समझने की कोशिश करते हैं।
कयास बनाम हेजिंग
सेबी इस बात को लेकर चिंतित है कि विकल्प कारोबार का एक बड़ा हिस्सा केवल अटकल या कयास पर आधारित है और हेजिंग से इसका सरोकार नहीं है। बाजार नियामक की चिंता उचित है, मगर हल्के-फुल्के अंदाज में कहें तो यह मुझे एक वाकये की याद दिलाता है, जो मुझे 25 वर्ष पहले एक तीसरी पीढ़ी के एक ब्रोकर ने बताया था। 1970 के दशक में शेयर बिचौलियों (ब्रोकर) के साथ बैठक में वित्त मंत्रालय के एक शीर्ष अधिकारी ने कहा था कि बंबई स्टॉक एक्सचेंज (अब बीएसई) पर अटकलों का बाजार गर्म रहता है।
बैठक में मौजूद एक गुजराती ने कहा कि शेयर बाजार में कयास नहीं लगेंगे तो फिर कहां लगेगा? सेबी नकद बाजार और डेरिवेटिव बाजार के बीच जुड़ाव नहीं होने से भी चिंतित है।
मगर अधिकांश विकल्प कारोबारियों ने डिलिवरी लेने या देने के लिए विकल्प कारोबार नहीं किया है। वास्तव में, मुझे इसे लेकर आंकड़े नहीं मिले कि कितने विकल्प अनुबंध फिजिकल डिलिवरी में बदलते हैं। अगर कोई विकल्प कारोबार डिलिवरी में तब्दील होता है तो यह एक इत्तफाक होगा और यह संभवतः कारोबारी की गलती रही होगी, न कि हेजिंग स्ट्रैटजी (नुकसान से बचने या कम करने की रणनीति) का कोई हिस्सा। जब से शेयर विकल्प शुरू किया गया है तब से ऐसा देखने में आया है। सूचकांक विकल्प के लिए तो वैसे भी डिलिवरी का कोई खास मतलब नहीं रहता है।
सेबी प्रमुख ने यह भी कहा कि व्यापक आर्थिक नजरिये से देखा जाए तो ‘परिवारों की बचत का एक बड़ा हिस्सा एक ऐसे कारोबार में जा रहा है, जो बहुत आर्थिक रूप से बहुत फायदेमंद नहीं है। यह कयास आधारित गतिविधि है’।
उन्होंने कहा कि यह रकम अर्थव्यवस्था में पूंजी निर्माण पर खर्च नहीं हो रही है। यह सच भी है, मगर एम्सटर्डम में 1602 में दुनिया का पहला स्टॉक एक्सचेंज स्थापित होने के बाद दुनिया के किसी भी हिस्से में शेयर कारोबार (कैश या डेरिवेटिव) से कभी उत्पादक गतिविधि साबित नहीं हुआ है।
व्यापक आर्थिक नजरिये से देखें तो द्वितीयक बाजार में शेयर कारोबार प्राथमिक बाजार को चलाने के लिए जरूरी खामी है। प्राथमिक बाजार के कारण ही लोगों की बचत उद्यमों में आती है, मगर यह (प्राथमिक बाजार) स्वयं अपने बूते नहीं टिक सकता, इसलिए इसके निवेशकों में पर्याप्त कारोबारी तरलता को लेकर विश्वास बहाल करने के लिए द्वितीयक बाजार की जरूरत होती है। तरलता पर्याप्त रहने से निवेशक अपनी सुविधानुसार निकल सकते हैं।
निवेशकों को यह विश्वास दिलाना महत्त्वपूर्ण है ताकि उद्यम शेयर निर्गमों के माध्यम से निवेश आकर्षित करते रहें। संयोग से जिंस बाजार उद्यमों में लोगों की बचत खींचने नहीं खींच पाता और न ही वह विनिर्माताओं या किसानों को हेजिंग की सुविधा ही दे पाता है।
अब अगर डेरिवेटिव में अत्यधिक अटकलबाजी पर गंभीर चिंता सता रही है, मगर सवाल है कि यह स्थिति कैसे उत्पन्न हुई? आखिर, सेबी की अनुमति के बाद ही तो स्टॉक एक्सचेंजों ने विकल्प कारोबार शुरू किया था। एक्सचेंज अब लाभ कमाने के उद्देश्य से काम करते हैं मगर सेबी का बाजार के सभी पक्षों पर पूर्ण नियंत्रण है, जिनमें एक्सचेंजों के प्रमुखों एवं प्रबंधन स्तर के मुख्य व्यक्तियों की नियुक्ति भी शामिल हैं।
सेबी के निर्देश के अनुसार जब कोई कारोबारी किसी ट्रेडिंग पोर्टल (कारोबारी पोर्टल) पर लॉग इन करता है तो उनके सामने स्क्रीन पर सेबी का एक अध्ययन सामने आ जाता है जिसमें लिखा होता है कि ‘शेयर वायदा एवं विकल्प खंड में 10 में 9 लोगों को शुद्ध नुकसान उठाना पड़ा है। शुद्ध कारोबारी नुकसान के अलावा उन्हें शुद्ध नुकसान का 28 प्रतिशत लेनदेन पर आई लागत के रूप में चुकाना पड़ा।’
इन लेनदेन लागत के दूसरी तरफ कौन हैं? इनमें पांच इकाइयां हैं जिनमें ब्रोकर (ब्रोकर फीस), एक्सचेंज (फीस), सेबी (फीस), राज्य सरकार (स्टांप शुल्क) और केंद्र सरकार (प्रतिभूति लेनदेन कर) शामिल हैं। क्या ये इकाइयां कयास कम करने के लिए प्राप्त होने वाला राजस्व कमाना छोड़ सकते हैं? वास्तव में, नीति निर्धारकों के बीच भी इसे लेकर स्थिति स्पष्ट नहीं है कि डेरिवेटिव आय पर कैसे कर लगाया जाए। डेरिवेटिव वास्तव में कयास आधारित कारोबार ही हैं।
मगर आश्चर्य की बात है कि डेरिवेटिव कारोबार से प्राप्त मुनाफे को कयास आधारित आय नहीं बल्कि आयकर के लिहाज से कारोबारी आय के रूप में देखा जाता है!
जब डेरिवेटिव कारोबार की शुरुआत हुई थी तो विचारों में अंतर देखा जा रहा था। वर्ष 2001 में आधुनिक पूंजी बाजार की चिर-परिचित शख्सियत आर एच पाटिल ने कहा था, ‘बदला लेनदेन की जगह देश में वायदा लाने का मुख्य मकसद सूचकांक वायदा, सूचकांक विकल्प और शेयर विकल्प शुरू करना था।
शेयर आधारित वायदा से जुड़े पूरे मामले पर विचार करने वाली सेबी की समिति शेयर वायदा के पक्ष में नहीं थी। जिन देशों में शेयर वायदा का कारोबार होता है उनमें अधिकांश में कोई अकेला शेयर वायदा जगह नहीं पाता है और अगर पाता है तो भी उसमें बहुत अधिक कारोबार नहीं होता है।’
मगर उनके विचार पर ध्यान नहीं दिया गया और ‘कयास’ की शुरुआत हो गई। कयास को दूसरा बड़ा समर्थन तब मिला जब सेबी ने 2029 में स्टॉक एक्सचेंजों को वीकली एक्सपायरी शुरू करने की अनुमति दे दी। सच्चाई यह है कि कोविड के बाद कारोबार में बेतहाशा बढ़ोतरी से पहले तक सेबी को डेरिवेटिव के साथ कोई दिक्कत नहीं थी।
मगर अब एक खतरनाक ढांचा खड़ा करने के बाद सेबी को यह चिंता सताने लगी है कि बड़ी संख्या में लोग डेरिवेटिव कारोबार में शामिल हो रहे हैं। सेबी ने इस मामले की समीक्षा के लिए एक समिति की स्थापना जरूर की है, मगर यह अटकलों पर अंकुश लगाना चाहता है तो उसे सबसे पहले शेयर विकल्प या सूचकांक विकल्प की वीकली एक्सपायरी को समाप्त करना होगा।
(लेखक डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यू डॉट मनीलाइफ डॉट इन के संस्थापक हैं)