हंसल मेहता और मृणमयी लागू वायकुल की नेटफ्लिक्स सीरीज ‘स्कूप’, चर्चित पत्रकार जिग्ना वोरा की ‘बिहाइंड बार्स इन भायखलाः माई डेज इन प्रिजन’ किताब पर आधारित है और यह सीरीज देखने लायक है। वोरा ‘दि एशियन एज’ में डिप्टी ब्यूरो चीफ थीं और उनका नाम ‘मिड-डे’ के क्राइम रिपोर्टर ज्योतिर्मय दे (या जे दे) की हत्या के मामले से जुड़ गया। उन्हें नौ महीने तक जेल में रहने के बाद आखिरकार जमानत मिली और 2018 में वह बरी हुईं। 2 जून को रिलीज होने के बाद से नेटफ्लिक्स के शीर्ष 10 शो में स्कूप भी शामिल है।
मेहता ने इससे पहले भी ‘स्कैम 1992’ (2020) बनाई जो हर्षद मेहता घोटाला मामले पर आधारित थी। यह सीरीज भी बेहद सफल हुई और इस सीरीज की बदौलत चुनौतियों से जूझ रहे सोनीलिव को काफी मदद मिली। उनकी अगली वेबसीरीज ‘स्कैम 2003 : दि तेलगी स्टोरी’ सितंबर में रिलीज होने वाली है।
अगर आप ऑनलाइन दुनिया की चर्चा के हिसाब से भी तय करें तो दर्शक इसका बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं। ऐसे में यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि मेहता इस वक्त OTT की दुनिया में सबसे चर्चित निर्देशकों में से एक हैं।
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मेहता का सफर काफी लंबा रहा है। उन्होंने अमृता (1994) और दूरियां (1999) जैसे टीवी शो बनाए हैं। उनकी कई फिल्मों, अलीगढ़ (2015), शाहिद (2012) और सिटीलाइट्स (2014) की काफी प्रशंसा हुई और कई पुरस्कार भी मिले लेकिन उन्हें ‘स्कैम 1992’ और ‘स्कूप’ के चलते जो लोकप्रियता मिली है वैसी पहले कभी नहीं मिली थी। जब मेहता फीचर फिल्में बना रहे थे उस वक्त के मुकाबले अब लोगों ने उनके बारे में ज्यादा सुना है।
इस लेख को लिखने के मकसद का प्रमुख बिंदु भी यही है। जब भी कोई शो हिट होता है तब मीडिया के चर्चा के मुख्य बिंदुओं में अमूमन कुछ ऐसी ही बातें होती हैं कि OTT कितना शानदार है, कैसे बॉलीवुड निराश कर रहा है और टीवी पर देखने लायक कुछ भी नहीं है।
इत्तफाक से टीवी के दर्शकों की संख्या स्ट्रीमिंग वीडियो से दोगुनी है लेकिन यह एक अलग मुद्दा है। फिल्में या टीवी के लिए ‘सामग्री’ बनाने वाले लोग या प्रोडक्शन हाउस ही अब स्ट्रीमिंग मंच के लिए भी सामग्री तैयार करते हैं। अंतर सिर्फ स्क्रीन और इसके कारोबारी आयाम का है जिस पर हम इन सामग्री को देखते हैं।
1970 के दशक तक सिनेमाघरों का दबदबा था। वहीं 1980 और 1990 के दशक में पाइरेसी और अधिक कराधान की वजह से फिल्मकारों की स्थिति बिगड़ने लगी। उन दिनों सभी ऐसी फिल्म नहीं बनाना चाहते थे जो 1,000 सीटों वाले सिनेमाहॉल को भर सके।
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मृणाल सेन या हृषीकेश मुखर्जी छोटी कहानियों पर आधारित फिल्में बनाते थे। लेकिन उनके पास इस तरह की कहानियों के लिए कोई उपयुक्त मंच नहीं था। कारोबार के इस आर्थिक पहलू ने ब्लॉकबस्टर की मांग बढ़ाई जिसके बलबूते सिनेमाघर कई हफ्ते तक भरे रहें। लेकिन 1980 के दशक में टेलीविजन के आने से सरकारी चैनल दूरदर्शन ने दर्शकों तक पहुंचने की एक राह बनाई।
जब निजी सैटेलाइट टेलीविजन 1990 के दशक की शुरुआत में आए, तब इन फिल्मकारों के पास अपनी कहानी कहने के लिए कई विकल्प थे और वे कमाई भी कर रहे थे। इससे कहानी कहने के भाव में भी बदलाव आया। जल्द ही टीवी एक बड़ा कारोबार (फिलहाल फिल्मों के कारोबार का चार गुना) बन गया जिससे ‘सामग्री की फैक्टरी’ तैयार हुई।
इसके बारे में भी जरा सोचिए। सईद मिर्जा ने कई अन्य फिल्मों के साथ समीक्षकों द्वारा सराही गई ‘मोहन जोशी हाजिर हों’ (1984) और ‘अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है’ (1980) बनाई। लेकिन हम उन्हें उनके टीवी शो ‘नुक्कड़’ (1987) के लिए याद रखते हैं।
श्याम बेनेगल का काम भी असाधारण है जिसमें अंकुर, मंडी, मंथन और भूमिका जैसी फिल्में शामिल हैं। लेकिन उन्हें दर्शकों ने तब पहचानना शुरू किया जब उन्होंने पंडित जवाहर लाल नेहरू की किताब, ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ पर आधारित ‘भारत एक खोज’ बनाई जिसका प्रसारण दूरदर्शन पर 1988 में हुआ।
आप यह कल्पना कर सकते हैं कि बेनेगल के अंदाज की फिल्में कितनी मशहूर हुई होतीं अगर उन दिनों आज की तरह ही स्ट्रीमिंग मंच होते। उनकी फिल्मों की वही भाषा होती थी जिसे आज के OTT दर्शक आत्मसात करते हैं और उसका आनंद उठाते हैं। वहीं दूसरी तरफ मनमोहन देसाई (अमर अकबर एंथनी, नसीब) या यश चोपड़ा (दाग, वक्त, डर जैसी फिल्में) ने बड़े पर्दे पर सफलता पाई और खूब लोकप्रिय हुए। यह माध्यम उनके लिए कारगर भी हुआ।
हालांकि निजी टेलीविजन ने विविध सामग्री के साथ विभिन्न दर्शकों तक पहुंचने के अपने शुरुआती वादे को कभी नहीं भुनाया। इसके लिए भुगतान वाले टीवी की जरूरत थी जैसा कि HBO ने किया जो अमेरिका के कई मशहूर शो (गेम ऑफ थ्रोन्स, दि सोपरानोस, सक्सेशन) दिखाती है।
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भारत में वर्ष 2004 में टेलीविजन चैनलों की कीमतों का नियमन भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (TRAI) ने करना शुरू कर दिया ताकि केबल युद्ध की गति कम की जा सके। यह अब भी ऐसा ही करता है। कीमतों के नियमन के लगभग दो दशक के चलते शुरुआती वर्षों में सैटेलाइट टीवी द्वारा कहानी में नयापन के लिए की गई पहल अब खत्म हो चुकी है। अब यह पूरी तरह से विज्ञापन पर निर्भर (हालांकि लाभदायक) स्क्रीन है जो 1980 के दशक के सिंगल स्क्रीन की तरह ही दर्शकों के एक बड़े वर्ग तक पहुंच कर कमाई करती है।
वहीं सदी के आखिर में नए तरह के स्क्रीन का आगाज हुआ। मल्टीप्लेक्स के चलते दर्शक फिर से सिनेमाघरों में वापस आने लगे। इस प्रक्रिया के चलते ही ‘मल्टीप्लेक्स’ फिल्मों का जन्म हुआ। अगर आप ‘दिल चाहता है’ (2001) या ‘डेल्ही बेली’ (2011) के बारे में सोचें तो ये दोनों फिल्में शहरों में काफी हिट रहीं जबकि सूरज बड़जात्या की ब्लॉकबस्टर फिल्म ‘विवाह’ (2006) देश के छोटे शहरों में खूब देखी गई।
स्क्रीन की तादाद बढ़ी, विभिन्न बाजारों तक पहुंच बनाई जाने लगी और सिनेमा उद्योग में पैसा आने पर फिल्मकारों की एक नई पीढ़ी तैयार होने लगी जिनमें विक्रमादित्य मोटवाने (उड़ान, लूटेरा), श्रीराम राघवन (जॉनी गद्दार, अंधाधुन, बदलापुर) और कई अन्य शामिल हैं। लेकिन अधिक किराया और कई तरह की अनुमति का मतलब यह है कि मल्टीप्लेक्स काफी लागत वाला सौदा बना रहा है और इससे दर्शकों की तादाद उतनी नहीं बढ़ी जितनी बढ़ सकती थी।
वर्ष 2008 में यूट्यूब आया। वर्ष 2016 के बाद से स्ट्रीमिंग सेवाओं की बाढ़ आ गई। थियेटर ने हमें मजबूर किया कि हम बाहर निकलें और कहानी देखने के लिए बाकी काम को स्थगित कर दें। वहीं स्ट्रीमिंग मंचों ने हमें यह सहूलियत दी कि हम दुनिया के किसी भी हिस्से से जो चाहें वह देख सकते हैं और अपने खाने, ऑफिस, नींद की नियमित दिनचर्या में भी बदलाव लाएं।
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इसके वितरण में कोई बाधा नहीं है और न ही स्ट्रीमिंग पर कोई सेंसरशिप या कीमतों से जुड़ा कोई नियंत्रण है। आप यह कल्पना करें कि अगर ट्राई ने नेटफ्लिक्स से कहा होता कि वह 19 रुपये से अधिक शुल्क नहीं रख सकती या इसे केवल एयरटेल के सबस्क्राइबर ही देख सकते हैं तब क्या होता।
वास्तव में स्ट्रीमिंग ने प्रसारकों को भी स्वतंत्र बनाया है कि वे ज्यादा रचनात्मकता दिखा सकें। कई लोकप्रिय OTT, डिज्नी+हॉटस्टार (डिज्नी), सोनीलिव (सोनी) और ज़ी5 (ज़ी) जैसी प्रसारण कंपनियां चलाती हैं। सभी कहानी कहने वालों को और फिल्मकारों को फिलहाल वैसा स्क्रीन मिल गया है जो उनके लिए मुफीद है। वास्तव में यह मुद्दा इतना है कि विकासवादी राह पर स्क्रीन, इससे जुड़ा तंत्र और दर्शक कहां खड़े हैं।