यूरोपीय संघ (EU) द्वारा लागू किए जाने वाले कार्बन बॉर्डर एडजस्टमेंट मैकेनिज्म (CBAM) से जुड़े नियमन 16 मई, 2023 को प्रवर्तन में आए। दरअसल CBAM उत्सर्जित कार्बन की कीमत है। यह वह कार्बन है जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उन विभिन्न वस्तुओं के निर्माण के दौरान उत्सर्जित होता है और यूरोपीय संघ में प्रवेश करता है। इसका क्रियान्वयन दो चरणों में होगा।
परिवर्ती चरण की शुरुआत 1 अक्टूबर, 2023 को होगी और यह छह क्षेत्रों के कार्बन गहन आयात को अपने दायरे में रखेगा जो हैं: एल्युमीनियम, सीमेंट, बिजली, उर्वरक, लौह और इस्पात तथा हाइड्रोजन। CBAM शुल्क 1 जनवरी, 2026 से प्रभावी होगा और वह यूरोपीय संघ की उत्सर्जन कारोबार प्रणाली (ETS) या फिर समान कार्बन मूल्य निर्धारण प्रणाली से जुड़े देशों के अलावा सभी देशों पर लागू होगी।
अनुमान है कि CBAM से वैश्विक स्तर पर अकार्बनीकरण को बढ़ावा मिलेगा और कार्बन लीकेज भी रोकी जा सकेगी। बहरहाल, अगर CBAM के डिजाइन और प्रस्तावित क्रियान्वयन की समीक्षा की जाए तो इसमें व्याप्त अनिरंतरता और विरोधाभास सामने आते हैं। ये विरोधाभास जलवायु परिवर्तन और वैश्विक व्यापार दोनों में हैं। यूरोपीय संघ के मुक्त व्यापार समझौते भी इसमें शामिल हैं। यदि CBAM में समुचित संशोधन नहीं किया गया तो यह जलवायु परिवर्तन का प्रभावी उपाय नहीं बन पाएगा।
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यह जलवायु परिवर्तन के पेरिस समझौते में स्वीकृत साझा लेकिन बंटी हुई जवाबदेही और भार वहन की साझेदारी के सिद्धांत से स्पष्ट विचलन है। CBAM कोई भेद नहीं करता और विकासशील देशों या सबसे कम विकसित देशों को कोई रियायत या छूट नहीं देता।
कई विकासशील देशों की कम संस्थागत क्षमता तथा सबसे कम विकसित देशों द्वारा घरेलू कार्बन बाजार या कार्बन उत्सर्जन करने वाली प्रक्रियाओं की रिपोर्टिंग तथा व्यापक अंकेक्षण की व्यवस्था को देखते हुए उत्सर्जन के बोझ के भारवहन को भी CBAM के डिजाइन में शामिल किया जाना चाहिए।
डिजाइन की असमानता पर एक और बात बल देती है और वह यह है कि CBAM द्वारा संग्रहित शुल्क को यूरोपीय संघ के बजट में भेजा जाएगा, न कि इसका इस्तेमाल विकासशील देशों या अत्यंत कम विकसित देशों में क्षमता निर्माण के लिए किया जाएगा।
पेरिस समझौते से विचलन उस समय और स्पष्ट हो जाता है जब उसे यूरोपीय संघ की मुक्त व्यापार समझौतों के प्रति प्रतिबद्धता की दृष्टि से देखा जाए। पेरिस समझौते में जताई गई प्रतिबद्धताओं का एक दूरदराज का संदर्भ हमेशा यूरोपीय संघ के मुक्त व्यापार समझौतों के व्यापार एवं टिकाऊ विकास वाले हिस्से में शामिल रहा है।
बल्कि अतीत की स्थिति से एक स्पष्ट विचलन में जून 2022 में यूरोपीय संघ और न्यूजीलैंड के बीच हुए मुक्त व्यापार समझौते में पहली बार व्यापार प्रतिबंधों का इस्तेमाल पेरिस समझौते के प्रावधानों का उल्लंघन करने वाला था। यह यूरोपीय संघ की जलवायु परिवर्तन नीतियों और व्यापार नीतियों में स्पष्ट अंतर दर्शाता था।
CBAM व्यापारिक संदर्भों में भी बहुपक्षीय मानकों से विरोधाभासी है। विश्व व्यापार संगठन के भेदभाव न करने के बुनियादी सिद्धांत कहते हैं कि तरजीही मुल्क और नैशनल ट्रीटमेंट की व्यवस्थाएं CBAM के कारण उलझ गई हैं। तरजीही मुल्क के मामले में अगर समान उत्पाद विभिन्न देशों से आ रहे हों तो उनमें भेदभाव नहीं किया जा सकता है।
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नैशनल ट्रीटमेंट घरेलू स्तर पर उत्पादित वस्तुओं तथा ‘समान’ वस्तुओं के बीच भेदभाव नहीं करने की बात कहता है। यूरोपीय संघ की समान वस्तुओं के साथ भेदभाव वाली व्यवस्था के लिए दी जाने वाली दलील आयातित वस्तुओं के कार्बन उत्सर्जन में अंतर पर आधारित है।
यह एक जटिल मुद्दा है क्योंकि अलग-अलग देश उत्पादन में अलग-अलग प्रक्रियाओं और तौर तरीकों का इस्तेमाल करते हैं और इससे समान वस्तुओं के उत्पादन में कार्बन उत्सर्जन भी अलग-अलग होता है। ऐसे में सीबीएएम की व्यवस्था काफी भेदभाव वाली हो जाती है।
नैशनल ट्रीटमेंट के बारे में यूरोपीय संघ की दलील घरेलू और आयातित वस्तुओं के बीच समता की है। अप्रैल 2023 तक की बात करें तो 73 क्षेत्रीय, राष्ट्रीय, उपराष्ट्रीय कार्बन प्राइसिंग प्रणालियां हैं जो या तो ETS के रूप में हैं या फिर कार्बन कर के रूप में जो वैश्विक ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन के 23 फीसदी को अपने दायरे में शामिल करती हैं।
ऐसे में यह कल्पना करना मुश्किल है कि CBAM कैसे उन देशों से होने वाले आयात के मामले में समता सुनिश्चित कर पाएगा जिन्होंने अपनी राष्ट्रीय योगदान प्रतिबद्धता के तहत अलग-अलग तरह के जलवायु नियमन का विकल्प चुना है। सभी देशों के मामले में CBAM के तहत प्रवर्तित अनुपालन न केवल राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं के तहत स्वनिर्धारण की प्रतिबद्धता के विरुद्ध है बल्कि यह क्षेत्राधिकार से परे प्रभावों का कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण प्रश्न भी पैदा करता है।
बल्कि गैट के अनुच्छेद 20 के अंतर्गत सामान्य अपवादों की व्यापक व्याख्या का इस्तेमाल करते हुए भी समुचित रूप से यह दावा नहीं किया जा सकता है कि CBAM विश्व व्यापार संगठन के नियमों का अनुपालन करता है। इसके बावजूद यह साबित करने की आवश्यकता होगी कि CBAM भेदभावकारी नहीं है।
व्यापार के व्यापक संदर्भ में भी CBAM के क्रियान्वयन की जटिलता एक किस्म की असमानता का भाव लाती है। चूंकि इस बात की काफी संभावना है कि CBAM के कारण अन्य देशों से प्रतिक्रियावादी कार्बन सीमा कर सामने आएंगे, ऐसे में वैश्विक मूल्य श्रृंखला समर्थित व्यापार को हर स्तर पर उत्पत्ति संबंधी नियम स्थापित करने की आवश्यकता होगी। यह अपने आप में एक बड़ा काम होगा।
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आखिरी और शायद सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि CBAM के लिए कार्बन लीकेज की स्थिति उत्पन्न प्रमाणों पर ही आधारित होगी। अब तक मौजूद जानकारी से निकले व्यापक प्रमाण तो यही बताते हैं कि इस बारे में कोई निर्णायक प्रमाण मौजूद नहीं हैं। यानी कार्बन लीकेज के ऐसे प्रमाण नहीं हैं जिनके आधार पर CBAM के लिए समुचित तर्क प्रस्तुत किया जा सके।
हकीकत तो यह है कि पर्यावरण संरक्षण की सापेक्षिक लागत के बरअक्स श्रम की लागत, उत्पादन के अन्य कारक, पारदर्शी नियमन, स्थिर नीतिगत माहौल, संपत्ति के अधिकारों का संरक्षण आदि निवेश संबंधी निर्णयों में अधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यहां तक कि प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों में भी यही सच है।
ऐसे में अब जबकि CBAM को भारत-यूरोपीय संघ व्यापार और तकनीक परिषद (द इकनॉमिक टाइम्स 13 जून, 2023) की चर्चाओं में शामिल कर लिया गया है तो अब भारत को यूरोपीय संघ से समुचित कदम उठाने को कहना चाहिए ताकि विकासशील देशों और अल्पविकसित देशों को बहुपक्षीय जलवायु एवं व्यापार वार्ताओं में समुचित स्थान मिल सके।
(लेखिका अंतरराष्ट्रीय अध्ययन केंद्र, जेएनयू में अर्थशास्त्र की प्रोफेसर हैं)